कविता

चौराहा

 विजय निकोर

अनचाहे कैसे अचानक

लौट आते हैं पैर उसी चौराहे पर

जिस चौराहे पर समय की आँधी में हमारे

रास्ते अलग हुए थे,

तुम्हारी डबडबाई आँखों में

व्यथाएँ उभरी थीं, और

मेरी ज़िन्दगी भी उसी दिन ही

बेतरतीब हो गई थी ।

 

जो लगती है स्पष्ट पर रहती है अस्पष्ट

शायद कुछ ऐसी ही अनचीन्ही असलियत

घसीट लाती है मुझको यहाँ किसी सोच में

कि नई ज़िन्दगी की कँटीली तारों से

तंग आ कर

शायद एक दिन तुम भी अचानक भूले से

लौट आओ

इसी उदास चिरकांक्षित चौराहे पर,

और हम दोनों एक संग

घूम कर देखें उसी एक रतिवंत रास्ते को

जो कितनी सुबहों हमारे कदमों से जागा था,

जिस पर हम मीलों इकठ्ठे चले थे,

हँसे थे,

रोय थे,

बारिश में भीगे थे,

और फिर कुछ तो हुआ कि आसमान हमारा

सूख गया,

तब कोई बादलों का साया न था,

आशाओं की बारिश न थी,

और नई वास्तविकता की चुभती कड़ी धूप को

मैं सह न सका,

न तुम सह सकी ।

 

अब कोई कड़वाहट कैंसर के रोग-सी भीतर

मुझको उदास-उदास किए रहती है,

नए अनुभवों की धुंध में घना अवसाद पलता है,

और मैं

तुम्हारी लाचारिओं की ऊँची दीवारों को लांघ कर

इस अभिशप्त चौराहे पर आ कर

अपनी बोझिल ज़िन्दगी के नए

आक्रांत अक्षर लिख जाता हूँ ।