राजनीति

क्या वामपंथ का आखिरी किला भी ढहने वाला है ?

राजेश कुमार पासी

मैं 2019 में केरल गया था. अपनी यात्रा के दौरान कई लोगों से बात की तो उन्होंने यही कहा कि यहां भाजपा का कुछ नहीं है और न कभी होगा। उनका कहना था कि यहां सिर्फ कांग्रेस और माकपा ही अदलबदल करके राज करती हैं। केरल की डेमोग्राफी भी कुछ ऐसी है कि वर्षों की मेहनत के बाद भी भाजपा यहां पैर नहीं जमा पाई है। भाजपा मुख्य रूप से उत्तर भारत की पार्टी मानी जाती है लेकिन मोदी के नेतृत्व में भाजपा पूरे देश को अपनी पकड़ में लेने की कोशिश कर रही है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने दक्षिण भारत को छोड़कर पूरे देश में अपना झंडा गाड़ दिया है हालांकि अभी भी कुछ राज्यों में भाजपा सत्ता से दूर है। लोकतंत्र में सत्ता में आने से पहले विपक्ष में आना जरूरी है और भारतीय राजनीति में ज्यादातर दलों ने ऐसे ही अपनी जगह बनाई है ।

दक्षिण भारत के दो राज्य तमिलनाडु और केरल भाजपा के लिए समस्या बने हुए हैं लेकिन धीरे-धीरे भाजपा ने इन राज्यों में भी अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी है । हाल ही में संपन्न हुए केरल स्थानीय निकाय के चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट(यूडीएफ) ने बड़ी जीत के साथ अपनी वापिसी की है । केरल में रिवायत चल रही थी कि एक बार यूडीएफ और एक बार एलडीएफ सत्ता में आता था लेकिन पिछली बार यह रिवायत टूट गई थी और एलडीएफ ने अपनी सरकार बचा ली थी । स्थानीय चुनाव परिणामों का यही संदेश है कि यूडीएफ अपनी वापिसी करने जा रहा है । वामपंथ धीरे-धीरे भारत से समाप्त होता जा रहा है हालांकि यह तो पूरी दुनिया में चल रहा है । देखा जाए तो केरल में वामपंथ का आखिरी किला बचा हुआ है । बेशक इन चुनावों में यूडीएफ ने अपनी वापिसी की उम्मीद जगा दी है लेकिन इससे इतर चर्चा भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की तिरूवनंतपुरम में जीत की है ।  यह जीत कई मायनों में भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।   

             भगवान का देश कहलाने वाले केरल में वामपंथी पार्टी को यूडीएफ की जीत के साथ-साथ सबसे बड़ा झटका तिरूवनंतपुरम में एनडीए की जीत से लगा है । एनडीए पहले ही उसे त्रिपुरा में सत्ता से और बंगाल में विपक्ष से साफ कर चुका है । प्रधानमंत्री मोदी की कल्याणकारी योजनाओं का प्रतिफल है कि भाजपा ने केरल में अपने पांव जमाना शुरू कर दिया है । 1952 से ही संघ यहां काम कर रहा है लेकिन भाजपा फिर भी खाली हाथ रही है । ऐसा लगता है कि अब संघ और भाजपा को जमीनी स्तर पर काम करने का फायदा मिलने लगा है । 2026 के विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री पी. विजयन को यूडीएफ के साथ-साथ एनडीए से भी चुनौती मिल सकती है । वामपंथी पार्टी के लिए समस्या यह है कि तिरूवनंतपुरम में पिछले 45 वर्षो से चल रहे उसके राज को सफल चुनौती यूडीएफ से नहीं बल्कि एनडीए से मिली है । भाजपा के तीसरी शक्ति बनने के आसार से वामपंथ को केरल में अपना अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है ।

देखा जाए तो भाजपा की ताकत बढ़ना दोनों गठबंधनों के लिए खतरे की घंटी है । ऐसा नहीं है कि भाजपा अगले चुनावों में कोई बड़ा चमत्कार करने जा रही है, लेकिन वो लड़ने की शक्ति जुटा रही है। अब भाजपा को पूरी तरह से नकारना दोनों गठबंधनों के लिए आसान होने वाला नहीं है। भाजपा की बढ़ती ताकत बता रही है कि लगातार प्रयास का परिणाम हमेशा सकारात्मक होता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि केरल की जनता के सामने भाजपा तीसरा विकल्प बनकर आ गयी है। हिन्दू समाज के भाजपा के पक्ष में जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन प्रदेश के ईसाई समुदाय के लिए भी भाजपा कुछ मामलों में बेहतर विकल्प बन सकती है। दोनों गठबंधन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलते हैं और इसके लिए इनमें एक प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है। मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से न केवल हिन्दू समुदाय बल्कि ईसाई समुदाय भी परेशान है, लेकिन अभी तक उसके पास इस नीति के प्रति विरोध जताने के लिए कोई रास्ता नहीं था । अगर ईसाई समुदाय का थोड़ा सा भी झुकाव भाजपा की ओर होता है तो ये दोनों गठबंधनों के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। भाजपा पूर्वोत्तर भारत के ईसाई नेताओं का इस्तेमाल केरल में ईसाई समुदाय में अपनी पकड़ बनाने के लिए कर सकती है।

                 देखा जाए तो तिरुवनंतपुरम में भाजपा की जीत अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में ये सीट भाजपा बहुत कम अंतर से हारी थी । कांग्रेस नेता शशि थरूर लगातार तीन बार इस सीट से सांसद रह चुके हैं। इस बार उन्होंने बड़ी मुश्किल से भाजपा उम्मीदवार राजीव चंद्रशेखरन को 12600 वोटों से हराया है । भाजपा ने निकाय चुनाव में 101 सीटों में से 50 सीटें जीत ली हैं । शशि थरूर कांग्रेस से नाराज दिखाई दे रहे हैं और उनका झुकाव भाजपा की तरफ देखा जा रहा है। भाजपा की इस जीत से उन्हें भी परेशानी होने वाली है। भाजपा की बढ़ती ताकत के कारण पार्टी को उनकी वैसी जरूरत नहीं रहेगी जैसी पहले लग रही थी। राजीव चंदरसेखरन के रहते उनके लिए अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करना मुश्किल होगा । देखना होगा कि अगर थरूर भाजपा में आते हैं तो पार्टी उनका कैसे इस्तेमाल करती है। थरूर अभी कांग्रेस के नेता हैं, इसलिए वो खुलकर भाजपा की मदद नहीं कर सकते। कांग्रेस इनकी सारी हरकतों को नजरअंदाज कर रही है, क्योंकि वो उन्हें पार्टी से निकाल कर आज़ाद नहीं करना चाहती । वैसे भाजपा केरल में पकड़ बनाने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन वो जल्दबाजी में नहीं है। 2029 के लोकसभा चुनावों के लिए उसने थरूर के लिए कोई भूमिका सोच रखी होगी । वैसे भी मोदी-शाह की जोड़ी बड़ी दूर की सोचकर राजनीति करती है। अगर उसे मौका मिला तो वो थरूर जैसे चेहरे को साथ लाने की कोशिश जरूर करेगी। थरूर भी अब कांग्रेस से सारी उम्मीदें खो चुके हैं क्योंकि उनके पास उम्र खत्म हो रही है। अगर उन्हें अपनी प्रतिभा और योग्यता का कुछ इस्तेमाल करना है तो भाजपा की एकमात्र विकल्प है। वैसे भी थरूर ने मोदी सरकार को बड़ा फायदा पहुंचाया है और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है, इसके बदले भाजपा उन्हें कुछ तो इनाम देगी । विधानसभा चुनाव में थरूर भाजपा की अप्रत्यक्ष रूप से मदद कर सकते हैं। वैसे देखा जाए तो 2026 में यूडीएफ की सरकार बनने की संभावना भी इन चुनावों से नजर आने लगी है। इसका मतलब है कि वामपंथी पार्टी की सत्ता अब किसी भी राज्य में नहीं रहेगी। 2026 के केरल विधानसभा चुनाव में वामपंथ का आखिरी किला ढहने वाला है। 

              पिछले लोकसभा चुनाव में त्रिशुर सीट से भाजपा के सुरेश गोपी सांसद बन चुके हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि केरल में भाजपा खाली हाथ नहीं है। तिरुवनंतपुरम के अलावा अन्य नगर निगमों से भी भाजपा के उम्मीदवार जीत कर आये हैं। ऐसा लग रहा है कि भाजपा धीरे-धीरे शहरी क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाने के कामयाब हो रही है। मोदी सरकार की योजनाओं का लाभ ग्रामीण क्षेत्र की जनता को हो रहा है, इसलिए वहां भी भाजपा को समर्थन मिलने की उम्मीद है। अनुमान के अनुसार अगर यूडीएफ सत्ता में आ जाता है तो भाकपा विपक्ष में चली जायेगी । ऐसे में भाजपा भी खुद को विपक्षी दल के रूप में पेश कर सकती है, उसे चाहे कितनी भी सीटें मिले। तमिलनाडु का उदाहरण हमारे सामने है जहां भाजपा बहुत कमजोर होने के बावजूद प्रमुख विपक्षी दल के रूप में सामने आ रही है। भाकपा के लिए कांग्रेस से ज्यादा बड़ी चुनौती भाजपा बन सकती है क्योंकि वो उसे सत्ता की लड़ाई से बाहर कर सकती है। भाकपा के लिए उम्मीद की किरण यह है कि जब भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से होता है तो कांग्रेस बहुत कमजोर साबित होती है। वर्तमान राजनीतिक हालात देखकर कहा जा सकता है कि 2031 के चुनावों में नई संभावनाएं पैदा हो सकती हैं। अभी तक यूडीएफ और एलडीएफ की राजनीति में फंसा केरल इससे बाहर निकल सकता है।

देखना यह होगा कि भाजपा तीसरी ताकत से आगे बढ़कर दूसरी ताकत कब बनती है। अभी तक की भाजपा की राजनीति देखकर कहा जा सकता है कि दूसरी ताकत बनने के बाद भाजपा सत्ता से ज्यादा दिन तक दूर नहीं रहती । कांग्रेस को केंद्र में अपनी संभावनाएं कमजोर नजर आ रही हैं, इसलिए वो राज्यों की सत्ता पाने के लिए प्रयास कर रही है। भाकपा और कांग्रेस की विचारधारा और नीतियां लगभग एक जैसी हो गई हैं। एक तरह से विचारधारा और नीतियों के स्तर पर दोनों पार्टियों में अंतर खत्म हो चुका है। भाजपा की विचारधारा, नीतियां और कार्यक्रम दोनों दलों से बिल्कुल अलग हैं । इस तरह भाजपा केरल की जनता के सामने सही मायनों में एक नया विकल्प बनकर सामने आ सकती है। दोनों गठबंधनों की राजनीति से ऊब चुकी जनता को भाजपा में नयापन दिखाई देता है तो वो उसकी तरफ आ सकती है। भाजपा भी उस समय का इंतजार रही है जब उसे उसकी मेहनत का फल मिलेगा ।  

राजेश कुमार पासी