राजनीति

एक थी इशरत, एक था आज़ाद

-पंकज झा

इशरत जहां याद है आपको? अगर नहीं भी होता तो अभी हेडली ने जो एनआईए को बयान दिया है उससे पता चल जाता. याद कीजिये, कुछ साल पहले की बात है गुजरात में एक खूबसूरत सी लड़की मारी गयी थी. पुलिस ने एनकाउंटर का दावा किया था लेकिन गोरे मीडिया के भाई लोगों के अनुसार वह एक सीधी-साधी, इत्र का व्यवसाय करने वाली छात्रा थी जिसको पुलिस ने बिना किसी अपराध के क़त्ल कर दिया था. “एक थी इशरत” विभिन्न टीवी चैनलों पर इसी नाम के कार्यक्रमों ने मानो धूम मचा दी थी. राखी सावंत से भी ज्यादा मनमोहक और बिकाऊ हो गया था तब क्लोज-अप में बार-बार दिखाया जाता मृत इशरत का खूबसूरत चेहरा. व्यक्तिगत नाम लेना मुनासिब नहीं है लेकिन चूंकि अभी पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने ‘अपराध’ के लिए माफी मांगी है तो याद करना होगा कि पुण्य प्रसून जैसे लोगों की तो बांछे खिल गयी थी. दिन भर एक इशरत को बेचते-बेचते धन्ना सेठ हो गए थे चैनल के मालिकान. पुलिस का हर बार की तरह हज़ार बार सफाई देना, जल्दी-जल्दी में यथा संभव सबूत भी लोगों के सामने में रखना जारी था, लेकिन मीडिया तो मोदी को हत्यारा मान चुकी थी और उसे वही मानना था चाहे आप जो भी कहे. अगर आज वाजपेई ने माफी भी मांगी है तो उनसे यह ज़रूर पूछना मुनासिब होगा कि आखिर किस-किस चीज़ के लिए उन्हें माफ किया जाय. और माफ किया ही क्यू जाय. अगर गलती की है उन्होंने तो दंड क्यू ना दिया? अगर आप अपनी गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग के द्वारा सौ करोड से ऊपर के देश को बंधक बनाना शुरू कर देंगे तो आखिरकार आपको सज़ा भी क्यू ना दिया जाय.

अभी देखा जाय तो यह प्रकरण कोई अकेला नहीं है. मानवाधिकार के नाम पर विदेशों से पालित-पोषित होते कुछ उनके नमक हलाल गण गाहे-बगाहे आतंक विरोध की लड़ाई को कमजोर करने में जान-प्राण लगाते रहते हैं. आप इसी पुण्य प्रशून का सरगुजा (छत्तीसगढ़) से सम्बंधित एक आलेख पढेंगे तो आपको ताज्जुब होगा कि क्या भारत में कोई जगह ऐसी भी है जहां की सरकार इदी अमीन और पोल-पोट की तरह अपनी ही जनता को मार-मार कर बर्बाद की हुई है. यह रिपोर्ट उस सरगुजा की है जहां अब नक्सलवाद का सफाया जैसा हो गया है, देश के आम हिस्से की तरह वहां भी अब मोटे तौर पर शांति जैसी स्थिति है. लेकिन सूचना क्रान्ति के इस ज़माने में दुनिया के अन्य हिस्से में केवल इस रिपोर्ट को पढ़ कर ऐसा लगेगा कि भारत के हालात तो युद्धरत कुछ अफ्रीकन देशों से भी ज्यादे खराब है. शर्मनाक बात यह कि प्रशून को ऐसे भरकाऊ रिपोर्ट पर पत्रकारिता का सबसे बड़ा पुरस्कार भी हाथ लग गया. तो असली सवाल इसी तरह के पुरस्कार का, लोकतंत्र के विरुद्ध छिड़े युद्ध में आतंकियों को प्रोत्साहित कर बटोरे जाने वाले नोट और चटोरे जाने वाले मलाई का है. इस लेखक का दावा है कि कोई खोजी पत्रकार अगर पुण्य प्रसून के उस सरगुजा से सम्बंधित आलेख की भी जांच करे तो पता नहीं इन्हें कई बार ऐसी माफी मांगनी होगी.

इसी तरह एक और महानुभाव हुआ करता था ‘आज़ाद’ नाम का. अभी-अभी सौभाग्य से उसके मरने के बाद लोकतंत्र को उससे मुक्ति मिली है. एक दिन शायद जंगल की दुश्वारियों से तंग आ कर कही सैर को निकल पड़ा. चुकि मारने वाले लोग सबसे ज्यादा डरपोक भी होते हैं, अतः उसने किसी अपनों पर भी भरोसा करना उचित नहीं समझा. बस..अब शुरू हो गया प्रशांत भूषन जैसे वरिष्ठ दुकानदारों के लिए चिंता का दौर. आप आश्चर्य करेंगे कि जिस देश में ‘न्याय’ इतना विलंबित और मुश्किल से मिलता हो कि कई बार नहीं मिलने के बराबर हो जाता हो. वहां एक दुर्दांत माओवादी के लिए सबसे महंगे माने जाने वालों में से एक, सुप्रीम कोर्ट के वकील ने अपना सब काम-काज छोड़ कर दिन रात एक कर दिया. सीधे सर्वोच्च न्यायलय में याचिका दायर कर मांग की गयी कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार को कोर्ट यह आदेश दे कि वह ‘आज़ाद’ को नहीं मारे. सुनवाई से पहले ही दो-चार दिनों के भीतर ही आज़ाद का बयान आ जाता है कि वह अपनी मर्जी से कही चला गया था और वापस आ गया है, सकुशल है. जहां कोर्ट के इतने समय की बर्बादी के लिए प्रशांत को माफी मांगनी चाहिए थी उसके बदले वह महाश्वेता, मेधा, अरुंधती, सच्चर, हर्ष, जैसे अपनी नाटक मंडली के साथ निकल पड़ता है किसी अन्य शिकार की तलाश में.

अगर आप गौर करेंगे तो लोकतंत्र के साथ अब तक किये गए और किये जा रहे ऐसे खिलवाड की श्रृंखला नज़र आयेगी आपको. इसी तरह एक बार उच्चतम न्यायालय में ही छत्तीसगढ़ से सम्बंधित मामले की सुनवाई थी. उस दिन सिवा डेट आगे बढ़ जाने के और कुछ नहीं हुआ था, लेकिन ‘वार्ता’ द्वारा खबर जारी करवा दी गयी कि कोर्ट ने मानवाधिकार हनन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार को लताड़ते हुए “सलवा-जुडूम” को बंद करने को कहा है. सभी समाचार माध्यमों में व्यापक प्रतिक्रया हुई. सबने प्रमुखता से छापा भी, बाद में राज्य सरकार द्वारा आपत्ति दर्ज कराने पर बिना कोई पश्चाताप किये समाचार को एजेंसी ने रद्द कर दिया. तब-तक ढेर सारे अखबारों में खबर छप चुकी थी. अगले दिन छोटे से खंडन से कुछ होना जाना था नहीं. तो सबसे बड़ी अदालत के अवमानना से लेकर पाठकों-दर्शकों से धोखाधडी करने के बावजूद प्रशांत के तरह की बेशर्मी से ही वह एजेंसी भी अपना दूकान चलाते रहा. केवल इन दुकानदारों द्वारा मीडिया के दुरूपयोग पर ही अलग से ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं. उपरोक्त कुछ उदाहरण तो केवल नमूने हैं इन नमूनों के कारगुजारियों के.

तो माओवादी, मानवाधिकारवादी, मज़हबी, मीडिया कर्मी, मैकालेसुतों के समूह ने यह समझ रखा है कि देश की संपदा पर केवल मुट्ठी भर उग्रवादियों का राज है या होना चाहिये, और ज्ञान का भंडार इन लोगों के पास. इसके अलावा किसी चीज़ से इन्हें कोई मतलब नहीं. लोकतंत्र, जनता द्वारा निर्वाचित संस्थाएं, न्यायालय, प्रतिष्ठित चुनाव आयोग, संवैधानिक मानवाधिकार संस्थाएं आदि सब इनके हिकारत का पात्र. अपने अहंकार या किसी छुपे स्वार्थवश वर्तमान दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित और सबसे कम बुरी प्रणाली इस भारतीय लोकतंत्र को खोखला कर रहे इन लोगों से मुक्ति पाना तो असली माओवादियों से मुक्ति से भी बड़ी चुनौती है लोकतंत्र के लिए.