आर्थिकी

इस्लामिक बैंकिंग 

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

इस्लामिक बैंकिंग उस वित्तीय व्यवस्था को कहा जाता है जो रिबा यानी ब्याज को पूरी तरह निषिद्ध मानकर चलती है और अपनी सारी गतिविधियों को शरिया के सिद्धांतों के अनुरूप रखती है। इसमें पैसा अपने आप से पैसा पैदा करने का साधन नहीं बल्कि वास्तविक व्यापार, सामान, सेवाओं और परियोजनाओं से जुड़ा माध्यम माना जाता है। इसीलिए इस्लामिक बैंक लाभ कमाते तो हैं लेकिन वह लाभ हमेशा किसी ठोस आर्थिक गतिविधि, जोखिम, साझेदारी और व्यापारिक अनुबंध के साथ जुड़ा होता है न कि आम बैंकिंग व्यवस्था की तरह तय ब्याज दर पर।  

इस व्यवस्था की पहली खासियत यह है कि इसमें किसी जमा या ऋण पर पहले से निश्चित ब्याज नहीं लिया या दिया जाता। पारंपरिक बैंकों में ग्राहक अपना पैसा जमा करता है और उसे पहले से तय दर पर ब्याज मिलता है जबकि इस्लामिक बैंक में जमा धन आम तौर पर निवेश की तरह माना जाता है, जिसका मुनाफा बढ़‑घट सकता है और कभी‑कभी हानि भी हो सकती है। दूसरी विशेषता यह है कि इस्लामिक बैंक हर लेन‑देन को किसी वास्तविक संपत्ति या सेवा से जोड़ते हैं,  यानी या तो कोई माल खरीदा या बेचा जाएगा, या कोई संपत्ति किराए पर दी जाएगी, या फिर बैंक और ग्राहक मिलकर किसी व्यवसाय में साझेदार बनेंगे।  

इस्लामिक बैंकिंग की रीढ़ लाभ हानि के साझेदारी वाले मॉडल हैं। 

मुदारबा मॉडल में एक पक्ष पूँजी देता है और दूसरा पक्ष मेहनत तथा प्रबंधन देता है । दोनों पहले से तय अनुपात में लाभ बाँटते हैं जबकि सामान्य परिस्थितियों में पूँजी की हानि पूँजीदाता की और समय तथा मेहनत की हानि प्रबंधक की मानी जाती है।

 मुशारका मॉडल में बैंक और ग्राहक दोनों पूँजी लगाकर बराबरी या पूर्व सहमति प्राप्त अनुपात से साझेदार बनते हैं ।  लाभ आपसी समझौते के अनुसार वितरित होता है पर वास्तविक नुकसान हमेशा पूँजी के अनुपात से उठाया जाता है। इन दोनों मॉडलों में मूल बात यह है कि लाभ के साथ‑साथ जोखिम भी साझा किया जाता है जिससे न्याय और आर्थिक अनुशासन दोनों कायम रहते हैं।  

इसके अलावा मुराबहा, इजारा और तवार्रुक जैसे व्यावहारिक ढाँचे हैं, जिनसे रोजमर्रा की वित्तीय जरूरतें पूरी की जाती हैं।

 मुराबहा में बैंक पहले किसी वस्तु, जैसे घर, कार या मशीनरी को स्वयं खरीदता है और फिर ग्राहक को लागत से ऊपर एक घोषित कीमत पर उधार बेच देता है । ग्राहक किस्तों में यह कीमत चुकाता है और अतिरिक्त हिस्सा बैंक का व्यापारिक लाभ माना जाता है, ब्याज नहीं।

 इजारा में बैंक किसी संपत्ति को खरीदकर ग्राहक को किराए पर देता है । ग्राहक किराया देता है और कई बार अनुबंध की अवधि के अंत में वही संपत्ति किस्तों या प्रतीकात्मक कीमत पर उसके नाम हो जाती है।

 तवार्रुक या कमोडिटी मुराबहा ढाँचा उन स्थितियों में उपयोग किया जाता है जहाँ ग्राहक को नकद चाहिए । इसमें वस्तु की खरीद‑फरोख्त के माध्यम से नकद की व्यवस्था की जाती है ताकि रूपरेखा शरिया के अनुरूप रहे।  

व्यावहारिक स्तर पर इस्लामिक बैंक बचत और निवेश खातों को भी इन्हीं सिद्धांतों पर ढालते हैं। आमतौर पर बचत या निवेश खातों को मुदारबा जैसी संरचना से जोड़ा जाता है जहाँ ग्राहक वास्तव में निवेशक बन जाता है और बैंक उसकी पूँजी को शरिया के अनुरूप व्यापारों में लगाता है। प्राप्त होने वाला लाभ किसी निश्चित प्रतिशत के रूप में पहले से गारंटी नहीं किया जाता बल्कि अवधि के अंत में वास्तविक लाभ के आधार पर ग्राहक के लाभ वाले  हिस्से का निर्धारण होता है।  हानि होने पर ग्राहक भी अपनी पूँजी के अनुपात से उसे वहन करता है। इस तरह जमाकर्ता और बैंक दोनों वास्तविक आर्थिक परिणामों के भागीदार बनते हैं जिससे सट्टेबाजी और अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है।  

इस्लामिक बैंकिंग और पारंपरिक बैंकिंग के बीच एक अन्य बड़ा अंतर निवेश के क्षेत्रों में भी दिखाई देता है। पारंपरिक बैंक आम तौर पर उन सभी क्षेत्रों में निवेश करते हैं जो कानूनन मान्य हों, भले वे शराब, जुआ, अश्लीलता या अत्यधिक सट्टेबाजी जैसे क्षेत्रों से जुड़े हों। इसके विपरीत इस्लामिक बैंक ऐसे क्षेत्रों से पूरी तरह दूरी रखते हैं ।  वे केवल उन व्यवसायों में धन लगाते हैं जिन्हें शरिया के दृष्टिकोण से हलाल माना जाता है। इस उद्देश्य के लिए हर इस्लामिक बैंक के साथ एक शरिया बोर्ड या शरिया सलाहकार परिषद होती है जो उत्पादों, अनुबंधों और निवेशों की जाँच‑पड़ताल करके यह सुनिश्चित करती है कि बैंक की सारी गतिविधियाँ धार्मिक मानकों पर खरी उतरें।  

आज विश्व भर में इस्लामिक बैंकिंग एक मजबूत वैकल्पिक वित्तीय प्रणाली के रूप में  सफलता से चल रही  है।

सऊदी अरब में अल राजही बैंक और अल इन्मा बैंक, कुवैत में कुवैत फाइनेंस हाउस, मलेशिया में मय बैंक इस्लामिक, संयुक्त अरब अमीरात में अबू धाबी इस्लामिक बैंक, क़तर में दुक्षन बैंक और पाकिस्तान में मीज़ान बैंक जैसे बैंकिंग संस्थान बड़े पैमाने पर शरिया के अनुरूप बैंकिंग सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। 

इन बैंकों ने खुदरा बैंकिंग से लेकर कॉरपोरेट फाइनेंस, परियोजना वित्त, सुकूक (इस्लामिक बॉन्ड), ग्रीन और ESG आधारित निवेश तक हर क्षेत्र में ऐसे उत्पाद विकसित किए हैं जो आधुनिक वित्तीय ज़रूरतों और इस्लामी सिद्धांतों के बीच संतुलन स्थापित करते हैं। यही संतुलन इस्लामिक बैंकिंग को न केवल मुस्लिम समाज के लिए, बल्कि नैतिक और संपत्ति आधारित वित्त में रुचि रखने वाले गैर मुस्लिम निवेशकों के लिए भी आकर्षक बनाता है।

इस्लामिक बैंकिंग  अध्ययन तथा इकोनामिक्स के अध्येताओं के लिए रुचि का विषय है। 

विवेक रंजन श्रीवास्तव