कमलेश पांडेय
देश के सुप्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पांडेय की नवस्थापित पार्टी जनसुराज की बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में हुई शर्मनाक हार से सियासी पंडित भी चौक गए हैं। वजह यह कि भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की चुनावी रणनीति बनाते-बनाते आखिर कब और कैसे प्रशांत किशोर उर्फ पीके में सियासी नेता बनने की इच्छा प्रबल हो गई, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इसके पीछे कांग्रेस और जदयू की अंदरूनी राजनीतिक परिस्थितियों का भी बहुत बड़ा हाथ है जिससे प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को एक नया आकार मिला। उससे उत्साहित प्रशांत किशोर ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कर्मस्थली पश्चिम चंपारण, बिहार से एक नई शुरुआत की और अपना 3 साल बिहार के उन मुद्दों को दिया, जिसकी समकालीन राजनीति को बहुत जरूरत थी।इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘बिहार का अरविंद केजरीवाल’ तक कहने लगे जो अब एक सियासी व्यंग्य समझा जाने लगा है लेकिन प्रारंभिक जनसंपर्क उफान के बाद जिस तरह से उनका चुनावी पराभव सामने आया है, उसके प्रमुख कारणों के सियासी मायने तलाशे जा रहे हैं।
सच कहूं तो जिस तरह से उन्होंने पटना में आंदोलनरत छात्रों को आधा-अधूरा नेतृत्व दिया और राजनीतिक-रणनीतिक चालाकी दिखाई, वह उनके अधकचरे नेता होने का पहला सबूत था। उसके बाद विधानसभा चुनावों से पहले उन्होंने जिस तरह से भाजपा, जदयू और राजद के नेताओं पर सबूतों के आधार पर निशाना साधा, उससे अपने पक्ष में हवा बनाने में तो वह कामयाब रहे लेकिन जिस तरह से उन्होंने सेक्यूलर राजनीति का दामन थामने का स्वांग रचा, वह अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक पैटर्न से अलग तो था ही, साथ ही उनके मूल आधार वोट बैंक समझे जाने वाले स्वजातीय सवर्ण मतदाताओं को पसंद नहीं आया।
इसके अलावा, उन्होंने राघोपुर से चुनाव नहीं लड़कर खुद ही हारने के डर का संकेत दिया जिससे उनके विरोधियों को इसे तूल देने का मौका मिल गया। इसी बीच टिकट बंटवारे की उनकी परंपरागत रणनीति ने उनके हार्डकोर समर्थकों को भी नाराज कर दिया। लोगबाग यहां तक कहने लगे कि जनसुराज पार्टी के पास कार्यकर्ताओं का हुजूम नहीं है बल्कि पेड वर्कर्स द्वारा जुटाई हुई भीड़ है। इससे उनका बनाया बनाया खेल ही बिगड़ गया। वहीं, उनकी पार्टी के आय और व्यय को लेकर भी सवाल उठने लगे। कुछ लोग यहां तक कहने लगे कि प्रशांत किशोर को महागठबंधन के मददगार लोगों का शह हासिल है।
खैर, चुनाव प्रचार के बीच ही उन्होंने जिस तरह से हथियार डालने के संकेत देने शुरू कर दिए, उससे तो यही लगा कि भाजपा और जदयू से उनकी सेटिंग हो चुकी है अन्यथा अपने उम्मीदवारों को वो मजबूती से लड़ाते। कुछ लोग यह भी बता रहे हैं कि राष्ट्रवादी समाजवाद को बढ़ावा देने वाले प्रदेश में घिसी पिटी धर्मनिरपेक्षता और अप्रासंगिक जातिवादी राजनीति की नकल करना उन्हें भारी पड़ गया। खासकर उनका प्रबुद्ध राजनीतिक आधार वाला मत ही उनसे खिसक गया जिसके बाद से ही उनकी राजनीतिक दुर्गति तय लग रही थी।
सच कहूं तो जनसुराज की चुनावी रणनीति मुख्य रूप से सोशल मीडिया और युवा वर्ग पर आधारित थी जबकि बिहार में जमीन पर पार्टी की पकड़ कमजोर थी। इसका फायदा मुख्य रूप से जेडीयू को हुआ। वहीं, जातीय समीकरणों को सही से न समझ पाना और पार्टी के बूथ स्तर पर कमजोर संगठनात्मक ढांचे की वजह से पार्टी प्रभावी नहीं हो सकी। वहीं, प्रशांत किशोर ने स्वयं चुनाव नहीं लड़ा, जिससे आम जनता में निराशा बनी और पार्टी के प्रति विश्वास में कमी आई जबकि उम्मीदवार चयन प्रक्रिया असहज और विवादित रही, जिससे पार्टी की छवि भी प्रभावित हुई। चूंकि पार्टी को क्षेत्रीय और जातिगत राजनीति के पुराने दलों से मुकाबला करना पड़ा, जिसमें वह सफल नहीं हो पाई।
इसके सियासी मायने दिलचस्प हैं- पहला, बिहार की राजनीति में नई पार्टी के लिए जगह बनाना कठिन है, खासकर जब इलाके और जातिगत समीकरणों का मजबूत दबदबा हो। दूसरा, जनसुराज की हार से यह साबित होता है कि केवल सोशल मीडिया या रणनीतिक प्रचार से चुनाव जीतना संभव नहीं है, जमीनी पकड़ और जनता का विश्वास सबसे महत्वपूर्ण है। तीसरा, इस हार से प्रशांत किशोर की राजनीतिक छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है जो पहले सफल चुनावी रणनीतिकार के रूप में देखे जाते थे।
चतुर्थ, पार्टी के कमजोर प्रदर्शन ने एनडीए, खासकर जेडीयू को मजबूत बनाया है और महागठबंधन और अन्य छोटे दलों के लिए चुनौती बढ़ाई है। पंचम, चुनाव के दौरान जनसुराज के समर्थकों के खिलाफ हिंसात्मक घटनाओं का होना भी पार्टी की स्थिति को कमजोर करने वाला कारक रहा। कुलमिलाकर बिहार में जनसुराज के पिटने की मुख्य वजहें उसकी कमजोर जमीन पर पकड़, असंगठित चुनावी रणनीति और जातिगत राजनीति की पेचीदगियां रहीं, जिनका सियासी असर राज्य की प्रमुख पार्टियों के लिए अवसर और जनसुराज के लिए राजनीतिक संकट बनकर सामने आया।
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि जनसुराज की हार के चार मुख्य रणनीतिक कारण निम्नलिखित रहे:
पहला, कमजोर संगठनात्मक ढांचा और जमीनी पकड़:
पार्टी का स्थानीय स्तर पर संगठन न तो सक्रिय था और न ही आत्मनिर्भर था। कई इलाकों में पुराने राजनीतिक नेताओं के प्रभाव में लोकल प्रभारी थे, जिससे मतदाताओं में भ्रम और अविश्वास पैदा हुआ। बिहार की चुनावी राजनीति में मजबूत जातीय और क्षेत्रीय संगठनात्मक नेटवर्क की कमी ने जनसुराज की स्थिति कमजोर कर दी।
दूसरा, नेतृत्व का संकट और प्रमुख चेहरा की अनुपस्थिति:
प्रशांत किशोर के नेतृत्व की छाया में पार्टी ने काम किया, लेकिन उन्होंने खुद पार्टी अध्यक्ष पद से दूरी रखी और ज्यादा जिम्मेदारी अन्य नेतृत्वहीन नेताओं को सौंप दी। इससे आम जनता और कार्यकर्ताओं की प्रेरणा पर असर पड़ा क्योंकि नेतृत्व का स्पष्ट और मजबूत केंद्र नहीं था।
तीसरा, विचारधारा और नीति की अस्पष्टता:
जनसुराज ने कोई ठोस नीतिगत घोषणापत्र या विजन डॉक्युमेंट नहीं दिया। इससे मतदाताओं को पार्टी के विकास, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर स्पष्ट विकल्प नहीं मिला। पार्टी की छवि एक ‘राजनीतिक स्टार्टअप’ की थी जो पुराने राजनीतिक ढांचे से अलग नई राजनीति का विकल्प बन न पाई।
चतुर्थ, चुनावी रणनीति में चूक और स्थानीय संवेदनशीलता की अनदेखी:
जनसुराज की प्रचार भाषा और रणनीति में स्थानीय बोली, संस्कृति और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का अभाव था, जिससे ग्रामीण जनता पार्टी से जुड़ाव महसूस नहीं कर पाई। इसके अलावा, पार्टी ने जातिगत समीकरणों को सही तरीके से नहीं संभाला, जो बिहार की राजनीति में निर्णायक है।
वाकई ये कारण परस्पर मिलकर जनसुराज पार्टी को बिहार के चुनाव में हार की स्थिति में ले गए जिससे प्रशांत किशोर की राजनीतिक छवि पर भी असर पड़ा है। हालांकि, एक पेशेवर चुनाव प्रबंधक की तरह वह फायदे में रहे और भारी मौद्रिक चंदा जुटाकर मुनाफा लूट लिया। उनकी अवसरवादिता से भाजपा के उन विक्षुब्ध नेताओं का भविष्य चौपट हो गया जो उनकी पार्टी से जुड़े थे। उनकी अप्रत्याशित हार जनता और राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए यह भी संकेत है कि बिहार जैसी सामाजिक-जातीय राजनीति वाले क्षेत्र में नये राजनीतिक विकल्पों को जमीन पर मजबूत संगठन और स्पष्ट नेतृत्व के बिना सफलता मिलना कठिन है। हालांकि, बिहार में जनसुराज की हार के पीछे प्रशांत किशोर की आखिर क्या रणनीति रही, इसे समझने में अभी वक्त लगेगा!
कमलेश पांडेय