विविधा

जयराम रमेश का चोगात्याग

– आशुतोष

हाल ही में एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने “कन्वोकेशन गाउन” को यह कह कर उतार फेंका कि वह उपनिवेशवाद का प्रतीक है। सार्वजनिक रूप से इस टिप्पणी के लिये जयराम रमेश का अभिनन्दन किया जाना चाहिये। संभवतः वे भी यही चाहते होंगे।

जहां तक दीक्षांत के समय गाउन न पहनने का प्रश्न है, ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। शांति निकेतन विश्वविद्यालय में तो प्रारंभ से ही धोती-कुर्ता पहन कर उपाधि ग्रहण करने का प्रचलन है। पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ मुरली मनोहर जोशी ने मंत्री रहते हुए दीक्षांत समारोहों में गाउन पहनने से इनकार किया था। यद्यपि ऐसी घटनाएं प्रतीक रूप में ही हुई हैं और समाज द्वारा इसी रूप में ली भी गयीं हैं।

जयराम रमेश की पहचान कांग्रेस के गंभीर किस्म के नेताओं में की जाती रही है। लेकिन पिछले कुछ समय से वे भी सुर्खियों में बने रहने के टोटके अपनाते दिख रहे हैं। बीटी बैंगन के मुद्दे पर उन्होंने यद्यपि मोन्सेंटो जैसी भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनी के दवाब को नकारने का हौंसला दिखाया, साथ ही देश भर में जगह-जगह जाकर जनसुनवाई के नाम पर काफी चर्चा बटोरी। गंगा पर गांध के मुद्दे पर भी वे सरकार की सामान्य नीति से हटते दिखे।

सवाल यह उठता है कि यह बात वे सार्वजनिक मंच पर कह कर तालियां बजवाने के बजाय कैबिनेट की बैठक में क्यों नहीं कहते हैं ? क्या यह इतनी बड़ी बात है कि कैबिनेट इसे बदल न सके ? और क्या अंग्रेजियत का लबादा उतार फेंकने की यह इच्छा वास्तविक है ? साथ ही इस औपनिवेशिक ढ़ांचे की ओढ़ी हुई पवित्रता पर उंगली उठाने की इजाजत नीति निर्माताओं का गठजोड़ किसी को देगा, भले ही वह उनके बीच का ही आदमी क्यों न हो ?

नयी दिल्ली में लुटियन का प्रेत आज भी मंडरा रहा है। सांसदों और अधिकारियों की बढ़ती भीड़ के बावजूद लुटियन के बनाये सौ साल पुराने नक्शे में बदल करने की हिम्मत सरकार में भी नहीं है। चाणक्य पुरी में पुलिस स्मारक बनने के बाद इसी कारण हटाया गया । कनॉट प्लेस में नयी परिस्थितियों और आवश्यकता को देखते हुए किये जाने वाले हर परिवर्तन पर लुटियन के वारिस तड़प उठते हैं और अदालत के दरवाजे पर दस्तक देना शुरू कर देते हैं। अभी तक तो अदालत का फैसला भी उनके ही हक में गया है।

लबादे उतार फेंकने का महत्व तभी है जब उससे भारतीयता मजबूत हो। यदि इससे भारतीय मूल्यों का पोषण न होता हो, राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़ सकने की स्थिति न बने तो चोगा पहने रखने य़ा उतार देने में कोई फर्क नहीं है। बदलाव केवल इतने से ही पूरा नहीं होता कि काला चोगा उतार कर सफेद या पीला चोगा पहन लिया और उसे गाउन की जगह उत्तरीय का नाम दे दिया, जैसा कि कुछ विश्वविद्यालयों ने प्रयोग के तौर पर किया है। आवश्यकता है कि समूचे परिवेश को ही भारतोन्मुख बनाया जाय। औपनिवेशिकता के बोझ से दबी इस व्यवस्था में परिवर्तन की किसी भी रचनात्मक पहल करने वाले को उसके जोखिम उठाने के लिये भी तैयार रहना होगा।

चोगा उतार फेंकने की पहल अगर सस्ती लोकप्रियता के लिये नहीं है तो यह सचमुच स्वागत योग्य है। लेकिन फिर बात सिर्फ चोगा उतारने पर ही नहीं रुकती बल्कि समग्र व्यवस्था परिवर्तन तक जाती है। जब तक शिक्षा में प्रवेश, पाठ्यक्रम, परीक्षा, मूल्यांकन, पाठ्येतर प्रयोग आदि में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होंगे, शिक्षा परिसर मूल्यों और जड़ों से कटे बेरोजगारों की फौज उगलते रहेंगे जो भारत को महाशक्ति बनाने की बात तो अवश्य करेंगे किन्तु वह जो निर्माण करेंगे वह जीवंत भारत राष्ट्र नहीं बल्कि पश्चिमी आधुनिकता के चोगे में लिपटा एक रीढ़विहीन पिछलग्गू राज्य होगा।