रामस्वरूप रावतसरे
इजरायल के नेवातिम में हाल ही में नवानगर (अब जामनगर) के पूर्व महाराजा जामसाहब दिग्विजय सिंह जडेजा की प्रतिमा का अनावरण किया गया। यह प्रतिमा उस करुणा और मानवता की याद में बनाई गई है, जब जामसाहेब ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पोलैंड के सैकड़ों बच्चों, जिनमें कई यहूदी बच्चे भी शामिल थे, उनको भारत में शरण और सुरक्षा दी थी। यह कार्यक्रम भारतीय यहूदी विरासत केंद्र और कोच्चि यहूदी विरासत केंद्र ने महाराजा जामसाहेब की याद में और उनकी प्रतिमा के अनावरण के लिए आयोजित किया था। यह प्रतिमा सितंबर 2024 में तैयार हो गई थी, लेकिन हमास के साथ जारी युद्ध के कारण इसके अनावरण में कई बार देरी हुई।
महाराजा दिग्विजय सिंह रणजीत सिंह नवानगर के अंतिम शासक थे। उन्हें और उस समय के कई राजाओं को लोग स्नेह से बापूसाहेब कहते थे। यह उपाधि किसी पद या सम्मान के रूप में नहीं दी जाती थी, बल्कि जनता के प्यार और विश्वास का प्रतीक थी। ऐसे राजाओं का मंत्र था, “मेरी प्रजा का कल्याण मेरे साथ हो।”
भावनगर के नरेश कृष्णकुमार सिंह जी और जामसाहेब दिग्विजयसिंह जडेजा जैसे राजा सचमुच बापूसाहेब कहलाने योग्य थे, जिन्होंने अपनी प्रजा की देखभाल पिता की तरह की। दिग्विजयसिंहजी ने सिर्फ अपने राज्य के लोगों की ही नहीं, बल्कि हजारों किलोमीटर दूर पोलैंड के नागरिकों की भी मदद की। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उन्होंने वहाँ के बच्चों को भारत में शरण दी, बिना किसी स्वार्थ के मानवता का उदाहरण पेश किया। आज भी पोलैंड और इजरायल जैसे देश उन्हें सम्मान और कृतज्ञता के साथ याद करते हैं।
जाम साहब दिग्विजय सिंह जडेजा का जन्म 1895 में हुआ था। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई राजकुमार कॉलेज में की और आगे की शिक्षा यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन से प्राप्त की। 1919 में वे ब्रिटिश सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट बने और करीब बीस साल की सेवा के बाद 1931 में सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद भी वे 1947 तक भारतीय सेना में मानद पद पर जुड़े रहे। 1933 में अपने चाचा रणजीत सिंह जडेजा के निधन के बाद वे नवानगर के महाराजा बने। वे 1966 में अपनी मृत्यु तक नवानगर (अब जामनगर) के शासक रहे। 1947 में भारत की आजादी के बाद उन्होंने अन्य राजाओं के साथ अपने राज्य का भारत में विलय कर दिया। इस तरह वे जामनगर के अंतिम महाराजा माने जाते हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1939 में सोवियत संघ और जर्मनी ने मिलकर पोलैंड पर हमला किया। इसके बाद पोलैंड की सरकार गिर गई और उसके शासक लंदन भाग गए। हजारों पोलिश नागरिकों, जिनमें महिलाएँ, बच्चे, विकलांग और अनाथ शामिल थे, उनको सोवियत संघ भेज दिया गया। उन्हें शरणार्थी शिविरों और अनाथालयों में रखा गया, जहाँ वे भूख और बीमारियों से जूझते रहे। लगभग दो साल तक यह स्थिति बनी रही। 1941 में सोवियत सरकार ने इन लोगों को रिहा कर दिया और देश छोड़ने की अनुमति दी। तब हजारों पोलिश नागरिकों ने दूसरे देशों में शरण ली कुछ मेक्सिको गए, कुछ न्यूजीलैंड और अन्य देशों में बस गए।
उसी समय महाराजा दिग्विजय सिंह जडेजा ब्रिटिश युद्ध मंत्रिमंडल में हिंदू प्रतिनिधि के रूप में जुड़े हुए थे। उन्हें जब इन पोलिश बच्चों की दुर्दशा का पता चला, तो उन्होंने तुरंत उनकी मदद का निर्णय लिया। बातचीत के बाद यह तय हुआ कि इन बच्चों को भारत लाया जाएगा और उन्हें सुरक्षित आश्रय दिया जाएगा। पोलैंड के बच्चों का पहला समूह 1942 में नवानगर पहुँचा। महाराजा दिग्विजय सिंह जडेजा स्वयं उनका स्वागत करने पहुँचे और बच्चों से कहा, “अब तुम अनाथ नहीं हो। मैं तुम्हारा पिता हूँ और नवानगर अब तुम्हारा घर है।”
महाराजा ने बच्चों के रहने, खाने और पढ़ाई की पूरी व्यवस्था की। बालाचडी के पास उनके लिए एक शिविर बनाया गया, जहाँ उन्हें सुरक्षित माहौल, चिकित्सा सुविधा और शिक्षा मिली। बच्चों के लिए पोलिश भाषा की किताबों वाला एक पुस्तकालय भी बनाया गया ताकि वे अपनी मातृभाषा से जुड़े रहें। जाम साहब हर व्यवस्था का खुद ध्यान रखते थे और नियमित रूप से शिविर का दौरा करते थे। जब बच्चों ने भारतीय भोजन को बहुत मसालेदार बताया, तो उन्होंने उनके लिए सात पोलिश रसोइए रखे और पढ़ाई के लिए पोलिश शिक्षक भी नियुक्त किए।
बाद में एक और कैंप खोला गया, जहाँ और बच्चे लाए गए। इस कार्य में पटियाला और बड़ौदा के राजाओं ने आर्थिक मदद दी, जबकि टाटा समूह ने भी धनराशि दी। इन बच्चों की देखभाल के लिए लाखों रुपए जुटाए गए।
पोलिश बच्चे द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति तक नवानगर में रहे। युद्ध खत्म होने के बाद जब ब्रिटेन ने पोलिश सरकार को मान्यता दी, तो कई बच्चे अपने देश लौट गए, जबकि कुछ ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में बस गए। जाम साहब स्वयं उन्हें विदा करने पहुँचे, वह क्षण बच्चों और उनके बापूसाहेब दोनों के लिए बेहद भावुक था।
पोलैंड ही नहीं, इजरायल भी महाराजा दिग्विजय सिंह जडेजा को नहीं भूला है। नवानगर में जिन पोलिश बच्चों को शरण दी गई थी, उनमें कई यहूदी बच्चे भी शामिल थे। यहूदी समुदाय आज भी मानता है कि उस हिंदू राजा ने जब मदद की तो उन्होंने धर्म या जाति नहीं देखी सब बच्चों को समान रूप से अपनाया।
यहूदी-अमेरिकी ऐतिहासिक संरक्षण सोसायटी के अध्यक्ष जेरी क्लिंगर ने अपने एक लेख में लिखा कि जब वे एक अन्य परियोजना पर काम कर रहे थे, तो उनके एक सहकर्मी ने उन्हें जाम साहब की इस मानवता की कहानी बताई। वह सहकर्मी उन लोगों में से कुछ को जानता था, जिन्हें बचपन में जाम साहब ने शरण दी थी।
क्लिंगर ने कहा, “ऐसे बहुत से लोग होंगे जिनकी जिंदगी जाम साहब ने बदली, भले ही कुछ अब जीवित न हों। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि उन्होंने यहूदी बच्चों को भी शरण दी थी। पोलैंड ने तो उनका सम्मान किया है, अब इजरायल में भी उन्हें उचित सम्मान मिलना चाहिए।” इसी सोच से नेवातिम में उनकी प्रतिमा लगाने की पहल शुरू हुई।
रामस्वरूप रावतसरे