मनुष्य का मन जितना संवेदनशील और रचनात्मक होता है, उतना ही वह नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में भी आसानी से आ जाता है। उन्हीं नकारात्मक भावनाओं में एक है — ईर्ष्या, जिसे मनोविज्ञान में “मूक मानसिक रोग” कहा गया है। यह रोग किसी बाहरी कारण से नहीं, बल्कि भीतर की असंतुष्टि और तुलना की प्रवृत्ति से जन्म लेता है। जब कोई व्यक्ति दूसरों की सफलता, प्रतिष्ठा या सुख देखकर भीतर ही भीतर जलने लगता है, तो वह स्वयं अपनी शांति, प्रसन्नता और संतुलन खो देता है।
ईर्ष्या का भाव सामान्यतः तब जन्म लेता है, जब मनुष्य स्वयं को दूसरों से कमतर महसूस करने लगता है। जब किसी का साथी, पड़ोसी, सहकर्मी या परिचित व्यक्ति किसी क्षेत्र में आगे बढ़ता है, तो ईर्ष्यालु व्यक्ति का मन भीतर ही भीतर सुलग उठता है। यह सुलगन धीरे-धीरे उसकी सोच, व्यवहार और दृष्टिकोण को विषाक्त बना देती है। ऐसी स्थिति में वह दूसरों की अच्छाई में भी कमी खोजने लगता है और उनके प्रति तिरस्कार या घृणा का भाव पाल लेता है।
ईर्ष्या का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि यह हमारे आंतरिक संतुलन को नष्ट कर देती है। मन में उठने वाली जलन हमें मानसिक रूप से थका देती है, नींद छीन लेती है, और धीरे-धीरे आत्मविश्वास को भी कमजोर करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति यह भूल जाता है कि जिससे वह ईर्ष्या कर रहा है, उसका कुछ भी नुकसान नहीं हो रहा, बल्कि उसका अपना ही मन असंतोष और तनाव से ग्रस्त हो रहा है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति स्वयं विष पीकर यह अपेक्षा करे कि दूसरे की मृत्यु हो जाएगी।
समाज में ईर्ष्या केवल व्यक्ति के मन तक सीमित नहीं रहती, यह आपसी संबंधों को भी प्रभावित करती है। यह मित्रता को दुर्भावना में, सहयोग को प्रतिस्पर्धा में और स्नेह को शत्रुता में बदल देती है। एक ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की सफलता देखकर प्रसन्न नहीं हो पाता, बल्कि भीतर से विचलित होता है। परिणामस्वरूप वह दूसरों से दूरी बनाने लगता है, उनके प्रति नकारात्मक बातें फैलाता है, और धीरे-धीरे अकेलापन महसूस करने लगता है। इस तरह ईर्ष्या मनुष्य को सामाजिक और भावनात्मक रूप से भी कमजोर बना देती है।
यदि मनुष्य आत्मचिंतन करे तो पाएगा कि ईर्ष्या का मूल कारण तुलना की प्रवृत्ति है। जब हम अपनी जीवन-स्थितियों की तुलना दूसरों से करने लगते हैं, तो हमारे भीतर हीनता और जलन की भावना पनपने लगती है। जबकि हर व्यक्ति की परिस्थितियाँ, प्रतिभाएँ और अवसर भिन्न होते हैं। किसी की सफलता देखकर प्रेरणा लेने की जगह यदि हम जलन महसूस करें, तो यह हमारी अपनी प्रगति में बाधा बन जाती है।
आध्यात्मिक दृष्टि से भी ईर्ष्या को मनुष्य के पतन का एक कारण माना गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है — “अहंकार, क्रोध और ईर्ष्या — ये तीन नरक के द्वार हैं, जो आत्मा के पतन का कारण बनते हैं।” वास्तव में ईर्ष्या मनुष्य की आत्मा को कलुषित करती है, उसकी करुणा और उदारता को नष्ट कर देती है। यह व्यक्ति को दूसरों के दुःख में सुख और दूसरों के सुख में दुःख अनुभव करने वाला बना देती है।
ईर्ष्या से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है — संतोष और आत्मस्वीकार। जब हम अपनी परिस्थितियों को ईमानदारी से स्वीकार करते हैं और अपने प्रयासों पर विश्वास रखते हैं, तब दूसरों की प्रगति हमें प्रेरित करती है, न कि कष्ट देती है। दूसरों की उपलब्धियों की सराहना करना, उनकी सफलता में प्रसन्न होना, और अपनी कमियों पर कार्य करना — यही स्वस्थ मानसिकता का परिचायक है।
सच्चे अर्थों में ईर्ष्या का कोई लाभ नहीं, केवल हानि है। यह मन की वह आग है जो दूसरों को नहीं, बल्कि स्वयं हमें जलाती है। इसलिए आवश्यक है कि हम इस भावना को पहचानें, उसे रोकें और अपने मन को कृतज्ञता, सहयोग और सकारात्मकता से भरें। जिस दिन मनुष्य दूसरों की सफलता में भी आनंद महसूस करने लगेगा, उसी दिन उसका जीवन वास्तविक अर्थों में शांत, प्रसन्न और सफल बन जाएगा।
सुरेश गोयल ‘धूप वाला’