राजनीति

का्ंग्रेस को चाहिए गैर गांधी नेतृत्व

अभिषेक कांत पाण्डेय

कांग्रेस की महाराष्ट्र और ​हरियाणा में हार के बाद गैर गांधी अध्यक्ष की आवश्यकता को चिदंबरम ने एक टीवी चैनल के साक्षात्कार में स्वीकार किया है। कांग्रेस की लोकसभा में करारी हार के बाद अब महाराष्ट्र और ​हरियाणा राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन पर सवाल उठना शुरू हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के बड़े नेता भी चहाते हैं कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर गैर गांधी परिवार का चेहरा हो लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस में क्या ऐसा नेतृत्व संभावना है जो कांग्रेस को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। इसके बावजूद प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने की कावायद गांधी परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता को ही दर्शा रहा है। आज कांग्रेस लगातार सिकूड़ती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस में गैर गांधी अध्यक्ष की कवायद शुरू हो गई है। इस समय 11 राज्यों में ही कांग्रेस की सरकार जबकि भाजपा लगातार बढ़ रही है। भाजपा की सरकार बड़े राज्यों में है। कांग्रेस में हार की समीक्षा होती है लेकिन अध्यक्ष पद पर काबिज सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष पद पर राहुल गाधी हार का ठीकरा राज्य के प्रभारी पर डालकर स्वंय जिम्मेदारियों से बचते है। देखा जाए तो कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। वहीं राहुल गांधी भी बड़ी जिम्मेदारी से बचते रहे हैं और मुख्यधारा में आकर आपने आपको साबित करने के कई मौकों को गंवा दिया है। गांधी परिवार के होने का फायद राहुल गांधी को मिला लेकिन अपने पिता राजीव गांधी की तरह भारतीय राजनीति में वह आपने आपको साबित नहीं कर पाए।

 

वहीं परिवारवाद की पर्याय बन गई कांग्रेस पार्टी के लिए अब आत्मचिंतन की जगह गैर गांधी नेतृत्व ढूंढ़ने की आवश्यकता बढ़ गई है। नरेद्र मोदी का राजनीति में सशक्त होना कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा चिंतन का कारण बनी तो वहीं गांधी परिवार की राजनीति पर सीधा सवाल उठना लाजिमी है। वैसे देखा जाए तो सपा, बसपा, शिवसेना जैसी पार्टी में अध्यक्ष पद पर एक ही चेहरा काबिज हैं। लेकिन कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है तो वहीं पर गैर गांधी चेहरा अध्यक्ष पद के लिए नहीं ढूंढ़ पा रही है। क्या कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र है। नेहरू के बाद इंदिरा गाधी फिर राजीव गांधी उसके बाद कांग्रेस की नइया पार लगाने के लिए सोनिया गांधी तब अब क्या राहुल गांधी इस इम्तिहान में खरे उतरे हैं। अपने पिता जैसी सबको लेकर चलने वाली जुझारू व्यक्तित्व क्या उनमें है। आज कांग्रेस अपने बुरे दौर में है, ऐसे में क्या कांग्रेस को बचा सकने की दमखम रखने की काबलियत गांधी परिवार में अब है।

वैसे इन सवालों से पहले हमे वर्तमान परिपेक्ष्य में बदल रहे राजनीतिक माहौल को भी देखना चाहिए। इस लोकसभा में गठबंधन की राजनीति  खत्म हुई है। राज्यों की समस्या और जातिगत कारण से उपजे क्षेत्रीय दलों की राजनीति को भी करारा झटका लगा है। समीकरण पूरी तरह से बदल चुके हैं, क्षेत्रीय दलों की राजनीति प्रवेश के समय स्थानीय विकास के मुद्दा रहा लेकिन क्षेत्रीय दला जनता के विकास पर खरे नहीं उतरे ऐसे में ऐनकेन केवल चुनाव को जैसे तैसे जीतने और सत्ता का सुख पाने तक ही सिमट चुकी है। ऐसे में जनता ने क्षेत्रीय दलों को अब नकार रही है, जिसका प्रमाण है कई राज्यों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना। क्षेत्रीय पार्टीयों ने सत्ता पाने के लिए एक तरह से ब्लैकमेलिंग की राजनीति करना शुरू कर दिया था, ऐसे में केंद में बनी गठबंधन की सरकार को समर्थन दे रही पार्टी की राज्यों में बनी सरकार के बीच केंद्र कई मामलों में तालमेल नहीं बैठा पाई, जिसके कारण से वोट बैंक की राजनीति और ब्लैकमेलिंग की राजनीति क्षेत्रीय दलों और राष्ट्रीय दलों के बीच होने के कारण जनता की समस्या को अनदेखा किया जाने लगा। ऐसे में जनता ने विकास के मायने के रूप में नरेंद्र मोदी को पहचाना है, निश्चित ही यह नरेंद्र मोदी की कामयाबी है। इस तरह से भाजपा से लोगों ने उम्मीदें लगाई है। वहीं कांग्रेस की केंद्र की सरकार के साथ ही अन्य राज्यों की सरकार के बीच से भ्रष्टाचार और कुशासन के मामले में एक दूसरे के प्रति सत्ता में बने रहने की सोची समझी रणनीति पर काम कर रही थी। सीबीआई का गलत प्रयोग के आरोप केंद्र सरकार पर लगते रहे हैं। वहीं विकास के आंकडों के साथ गरीबो का मजाक बनाना और योजना आयोग की असफल रणनीति का प्रयोग कांग्रेस आंकडों की बाजीगिरी करने में लगी रही।

कालेधन और भ्रष्टाचार पर जनलोकपाल कानून जैसे मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की तत्कालिक चुप्पी जनता को रास नहीं आई। राहुल गांधी का कैम्पेन में एंग्री एंगमैन की अचानक मुद्रा में उनकी समय-समय पर सक्रियता से जनता को लगने लगा कि मीडिया में बने रहने और बड़ी जिम्मेदारी से बचने के साथ सुरक्षित पारी का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की हार के बाद भी राहुल गांधी जिम्मेदारी से बचने की कवायद में ही रहें। जिस तरह से अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी में उन्हें कड़ी टक्कर मिली और लोगों ने चुनाव के समय ही संसदीय क्षेत्र की याद आने जैसे सवाल उन पर किया तो उनकी अक्षमता उसी समय सामने आ गई, यहीं से गांधी परिवार की मानसिकता वाली नेतृत्व की कमजोरी को जनता ने महसूस करना शुरू कर दिया इसीलिए बीच-बीच में प्रियंका लाओं के नारे लगाकर कांग्रेस राहुल गांधी की अक्षमता से ध्यान हटाने की कवायद भी शुरू किया।

आज कांग्रेस में नई ऊर्जा और बदलाव की आवश्यकता है। ऐसे नेतृत्व का जो कम से कम कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में उत्साह भर सके, इसके साथ ही रचानात्मक विपक्ष की भूमिका का निर्वहन में सक्रिय होने वाले नेतृत्व वाला चेहरा हो। भाजपा ने चुनाव के समय विकास का वायदा किया है, इन वायदों को जमीनी हकीकत में उतारने के लिए जनता की आवाज बनने वाली नई भूमिका में कांग्रेस आ कर अगले पांच साल में देश के विकास में योगदान के साथ ही एक विपक्षी दल की तरह आने वाले समय में स्वयं को मजबूती के साथ चुनाव मे खड़ा कर सकती है। इससे पहले गांधी परिवारवाद की जकड़न से कांग्रेस को बाहर आना है, नही तो धीरे-धारे कांग्रेस का वजूद क्षेत्रीय पार्टियों में घुल मिलकर रह जाएगा।