राजनीति

कानू सान्याल: एक सफल योद्धा का असफल अंत

“नक्सल आंदोलन के जनक कानू सान्याल ने खुदकुशी की.”यह पढकर मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएं हिलोरें लेने लगी, जिसको शब्द देना संभव ही नहीं है. एक अवांछित दुःख, एक स्वाभाविक निराशा, समाज में अपनी छाप छोड़ जाने वाले नेताओं के अवसान की तरह श्रद्धांजलि का भाव, एक ऊर्जावान एवं निष्ठावान पुरुष की सेवाओं से देश को लाभान्वित न हो पाने का अफ़सोस, जनता एवं मजदूरों की पीड़ा को महसूस करने वाले व्यक्ति का दुखद अंत या एक क्रांतिकारी के अपने नियत-नियति को पा जाना. एक असफल एवं अपनों के द्वारा ही उपेक्षित मानव द्वारा हताश या निराशा में की गयी आत्मघाती कारवाई या अपने कर्मों के लिए “अंत भला तो सब भला” का विलोम बन जाने की अभिशप्ति. “कानू” इनमें से किसी एक या सभी विशेषणों के हकदार थे यह जानना या अपने मानस के उथल-पुथल को कोई उचित शब्द दिया जाना मुश्किल है.

उपरोक्त सभी भावनाएं समाज के मुख्य धारा में जुडकर काम करने वाले किसी अगुए के लिए तो समीचीन है. लेकिन यह जानते हुए भी कि “कानू” नक्सलवाद के जनक कहे जाते हैं. उस वाद के जो कोढ़ की तरह खाए जा रहा है छत्तीसगढ़ को, उस नक्सलवाद के जो आज लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है. उस नक्सलवाद के जिसके लिए आज की तारीख में किसी का भी जान ले लेना ककड़ी और खीरे को काट देने के बराबर है. उस नक्सलवाद के जिसके लिए क्रूरतम हत्या के मामले में कम से कम कथित बुर्जुआ और सर्वहारा में कोई फर्क नहीं है. तो ऐसे किसी भी वाद के जनक के लिए क्यूंकर कर कोई सकारात्मक शब्द निकले आखिर. लेकिन अगर आज उनके अवसान पर सहानुभूति का भाव ही आ रहा है तो इसके मायने ढूंढे जाने की ज़रूरत है. खास कर इस परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी प्रासंगिक हो गया है कि अपने अंत समय में अपने आंदोलन का जनक यह नेता अपने ही मानस पुत्रों पर कुपित था. मुख्य धारा के चिंतकों की तरह वह भी नक्सलवाद को एक “आतंक” के रूप में ही मानने लगे थे. लेकिन तब पछताने से क्या हासिल होना था जब “चिड़िया चुग गयी थी खेत.” क्या उनकी कुंठा को परमाणु के जनक उस वैज्ञानिक की तरह देखे जाने की ज़रूरत है जो “हिरोशिमा और नागासाकी” के बाद अपने ही आविष्कार पर पछता रहा था? शायद समग्रता में देखें तो हाँ. पूरी दुनिया में एक अच्छे विचार की तरह माने गए “साम्यवाद” को वास्तविक जीवन में क्यूं-कर आखिर कलंकित होने को ही अभिशप्त होना पड़ा है ? तर्कों के सहारे तो नहीं लेकिन आस्थाओं, भारतीय परम्पराओं एवं सिद्धान्तों के सहारे इसका शायद जबाब ढूँढना संभव होगा.

एक पुराने कहावत को थोडा सा संशोधित कर किसी ने साम्यवाद के बारे में कहा है “अगर सत्ताईस वर्ष की उम्र तक कोई कम्युनिष्ट नहीं हुआ तो उसके पास दिल नहीं है और अगर इस उम्र के बाद भी कोई कम्मुनिष्ट ही बना रहा तो उसके पास दिमाग नहीं है.” हलके-फुल्के ढंग से कही गयी इन बातों के सहारे कुछ सार ढूँढना समीचीन होगा. मोटे तौर पर किसी पुराने सिद्धांत का आशय ही यही होता है कि व्यक्तिशः हर बार आपको प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं होती. अपने प्रयोगों में हज़ार बार असफल होने के बाद एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने कहा कि वे इसलिए सफल माने जायेंगे क्युकी उन्होंने हज़ार ऐसे तरीके खोज कर निकाले हैं जो काम के नहीं हैं, यानी अब किसी को इन हज़ार प्रयोग करने के जद्दोजहद की ज़रूरत नहीं होगी. सीधी सी बात यह है कि अगर हर व्यक्ति हत्या करने के बाद यह समझे कि हत्या करना उचित नहीं है तो अराजकता ही फैलेगी. तो समाज विज्ञानियों, अगुओं के लिए भी “कानू” का हाराकिरी यही सन्देश देता है कि सफल और असफल प्रयोगों के बाद स्थापित हो गए सिद्धांतों के आधार पर “सत्ताईस बर्ष” तक की अपनी उर्जा एवं प्रतिभा का सम्यक उपयोग करते हुए, देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपने मार्ग का संधान करें. जैसा कि तुलसी ने कहा है “प्रथम मुनिन्ह जेहि कीरति गाई तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई ”.

अमेरिका के “एआईजी कम्पनी” के दिवालिया होने पर लिखे अपने आलेख में प्रकाश करात ने एक बहुत अच्छी बात कही थी. बकौल प्रकाश “यह वामपंथी दवाव के कारण ही संभव हुआ कि सरकार को शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के अपने फैसले से पीछे हट जाना पड़ा. आप कल्पना करें कि अगर आज एआईजी को भारत में शत-प्रतिशत निवेश की अनुमति दे दी गयी होती तो देश के करोड़ों निवेशकों के साथ क्या होता.” लेकिन आप सोचें करात अपने मिशन में इसलिए ही सफल हो पाए न क्युकी उनके पास मुख्यधारा के राजनीति की ताकत थी. कानूनी रूप से उन्हें देश की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने का हक था. सरकार पर दवाव बनाए रखने का नैतिक अधिकार था. क्या भूमिगत होकर, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से अलग हटकर वे सरकार को मजबूर कर सकते थे? आज वामपंथियों का यह कहना भी सही हो सकता है कि सूचना का अधिकार, नरेगा (अब मनरेगा) आदि क्रांतिकारी क़ानून भी उन्ही के दवाव के कारण लागू होना संभव हुआ है. लेकिन ये तो संभव तभी हो पाया न जब आपने संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान करते हुए अपने पुराने विचार को नयी ऊर्जा के साथ प्रस्तुत करना स्वीकार किया. क्या भूमिगत होकर हत्या और बलात्कार करने वाले कथित नक्सलियों के पास ऐसी कोई उपलब्धि है? नेपाल के राष्ट्रप्रमुख बनने के बाद खुद प्रचंड ने यह आधिकारिक रूप से स्वीकार किया था कि किसी गुरिल्ला युद्ध से ज्यादा कठिन होता है सत्ता का संचालन. तो बिना किसी जिम्मेदारी के हज़ारों करोड की वसूली, अकारण मजलूमों की हत्या समेत हर तरह के देशद्रोही कारनामों को अंजाम देने के बदले पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित जनतांत्रिक प्रणाली का उपयोग करने का कठिन लेकिन शाश्वत मार्ग अपना कर अपनी जिम्मेदारियों का परिचय देने से भारत के नक्सलियों को कौन रोक रहा है? अभी वही माओवादी जब नेपाल में लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए मर-खप रहे हैं तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की धारा में खुद को समाहित कर लेने में क्या बुराई है? लाख बुराइयों के बावजूद यहाँ के डेमोक्रेसी की साख पूरी दुनिया में बदस्तूर है. तो अगर वास्तव में दम है आपके विचारों में तो फिर ऐसा व्यभिचार क्यू?

लेकिन सवाल बस इतना है कि “मीठा-मीठा गप्प और करवा-करवा थू” नहीं चलेगा. ये नहीं चलेगा कि जहां सत्ता मिलने की सम्भावना हो वहाँ कामेश्वर बैठा की तरह लार टपकाने लगे. दुर्दांत नक्सली के रूप में कुख्यात कामेश्वर ने जेएमएम का टिकट मिलते ही प्रचंड की तरह ही लोकतांत्रिक बाना ओढ़ सांसद बनना तय कर लिया. आज भी झामुमो से कई नक्सली विधानसभा तक की देहरी लांघने में सफल हुए हैं. तो अवसरवादिता नहीं चलेगी और लोकतंत्र भी आपके लिए कोई आसान विकल्प थाली में परोस कर नहीं प्रस्तुत कर देगा. लोगों के दिलों तक पहुचने की प्रतिस्पर्द्धा निश्चय ही बीहड़ों में वसूली से कठिन ही होगा आपके लिए. लेकिन अगर वास्तव में आपके पास विचारों की नैतिक ताकत है तो इतनी तो तपस्या आपको करनी ही पड़ेगी. यह केवल और केवल आपके लिए ही अच्छा होगा. भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी मज़बूत है कि नक्सलियों द्वारा सौ दो सौ हत्याकर दिए जाने से कमजोर नहीं पड़ने वाला. इससे कई गुना लोग तो हर साल सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं. साथ ही ढेर सारे गुंडे-मवालियों से निपटने का देश को अनुभव भी काफी है. लेकिन ठेकेदारों, व्यवसायियों के टुकड़ों पर पलने, जानवरों की जिंदगी और ऐसी ही मौत मरने से बेहतर तो यही होगा कि आप राष्ट्र निर्माण के पुनीत यज्ञ में सहभागी बनें. भारतीय मनीषा कहता है कि आपने कैसा जीवन जीया ये आपके मौत के तरीके से ही समझा जा सकता है. विलक्षण व्यक्तित्व कानु जी के अंत समय में मोहभंग और उनके त्रासद अंत को आज के उनके औरस पुत्र नक्सली एक सबक के तौर पर ही ले सकते हैं. अन्यथा जब उनके जैसे ईमानदार व्यक्ति की मुख्यधारा से हट जाने के बाद ऐसी दुर्गति हो सकती तो आज नक्सली बना ओढ़े लुटेरों की क्या बिसात?

– पंकज झा