राजनीति

कश्मीर, नेहरु और पटेल

प्रधान मंत्री श्री  नरेन्द्र मोदी द्वारा संसद में कश्मीर, नेहरु और पटेल का मुद्दा चर्चा में लाने पर मुझे अपने छात्र जीवन की एक घटना याद आ गई। सन 1954 की बात है। मैं स्नातक कक्षा का छात्र था। मेरे एक शिक्षक थे प्रोफेसर जवाहर लाल वाकलू। उनकी पत्नी का नाम था विजयलक्ष्मी । विभागाध्यक्ष प्रो बी.एन. मुखर्जी ने मजाक  में कहा था, “but not brother and sister” वे श्रीनगर, काश्मीर के बासिन्दा थे। मुझसे कभी कभार कश्मीर और बिहार की सामाजिक स्थिति पर चर्चा हुआ करती थी। ग्रीष्मावकाश के बाद घर से वापस आए थे। मैंने समाचार पूछा तो झल्ला से पड़े। उन्होंने कहा- हमलोग वहाँ ऐसी हालत में हैं कि अगर जनमत संग्रह हो तो  मुसलमान ही नहीं, हिन्दु भी अधिकतर पाकिस्तान के पक्ष में मतदान करेंगे। मुझे बात बहुत ही अटपटी लगी। सो मैंने पूछा कि सर, मुसलमानों की बात तो समझ में आती है, पर हिन्दु क्यों पाकिस्तान के पक्ष में मतदान करेंगे? वाकलू साहब ने कहा- देखो अभी  हालात ऐसे हैं कि  बात बात में सम्पन्न हिन्दुओं को भी धमकाया जाया करता है , बक्शी को कह दूँगा। उस वक्त जम्मू-कश्मीर के प्रधान मंत्री बक्शी गुलाम मोहम्मद थे।  वाकलू साहब ने मुझसे कहा, हम पाकिस्तान में चले जाएँगे तो अल्पसंख्यकों के अधिकार तो हमें मिलेंगे.अभी तो हम अल्पसंख्यक रहते हुए भी बहुसंख्यक के दर्जे में हैं।हमारे कोई नागरिक अधिकार नहीं हैं, न बहुसंख्यक का अधिकार और सुविधा, न ही अल्पसंख्यक की सुरक्षा।

कश्मीर की कहानी वाकलू साहब के अनुसार यों है।.  प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को आशंका थी कि गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल  कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के पक्ष में थे।वे महात्मा गाँधी के पास गए और उनसे भावनात्मक अपील की कि वे सरदार को रोकें। महात्मा ने  पटेल को बुलाया और कहा, कश्मीर के साथ जवाहर का व्यक्तिगत लगाव है, तुम उसे छोड़ दो। उसके बाद से कश्मीर, भारत का एक राज्य होने के बावजूद गृह मंत्रालयः( सरदार पटेल) के बजाए विदेश मंत्रालय( नेहरु) का अंश हो गया था।

प्रोफेसर वाकलू के अनुसार अगर जवाहरलाल नेहरु नहीं अड़ते तो कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होता।