किस्सा-ए-लिखास रोग

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शिवेन्दु राय

कॉमरेड, ये रोग मुझे बहुत साल पहले नहीं लगा था | जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में मीडिया फर्स्ट ईयर का छात्र था, स्वर्गीय राजेन्द्र जी को पहली बार ‘हंस’ में पढ़ा | उसी दौरान इस रोग के कीटाणुओं का प्रवेश मेरे अन्दर हो गया | मेरे दोस्त लव कांत अक्सर कहने लगे कि उजले कागज को काली स्याही से तुम कब गोदना शुरू करोगे | मैंने भी दिल पे ले ली उनकी बात, रचने लगा साहित्य | कागज पर कहा जगह मिलती मेरे लुगदी साहित्य हो, तो शुरू हो गया ब्लॉग,फेसबुक और पोर्टलों पर अपनी रचनाओं को फेकने का दौर | मैंने भी अपनी दुकान सजा ली, बेचने लगा साहित्य , मजे की बात ये है कि कुछ खरीदार भी मिलने लगे थे | हौसला बढ़ने लगा था | रोग पुरे शरीर में फैलते जा रहा था | मेरे जैसे रोगियों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही थी | जो लोग इस रोग के डॉक्टर थे वो भी इस रोग के शिकार थे | आज के दौर में डॉक्टर तो शायद ही कोई बचा है , सब रोगी है | लिखास रोग महामारी की तरह स्नातक से पीएचडी तक, साहित्य में नाजायज ढंग से अवतरित मनुष्यों को शिकार बना लिया है | नीली चादर वाली फेसबुक की दुनिया ने इस रोग को बढ़ाने में मदद की है | लिखास रोग से पीड़ित पेसेंट का इलाज कौन करेगा ? इस विषय पर चिंता करने के लिए सरकार को समिति गठन करनी होगी | क्यूंकि ये काम हम कॉमुनिस्टों या राष्ट्रवादीयों के हाथ में नहीं दे सकते हैं | सबसे ज्यादा इस रोग के शिकार वहीँ लोग है | दोनों को एक ही रोग है बस लक्षण अलग अलग है | दोनों अपने माल को बेचने के लिए मंडी सजा रखा है | आज खरीदार ही नहीं मिल रहे हैं | खरीदार नहीं मिलना भी एक चिंता का विषय है | खरीदार क्यूँ नहीं मिल रहे हैं इस विषय को ध्यान में रख कर संगोष्ठियाँ बड़े पैमाने पर आयोजित की जा रही हैं | सरकार भी क्या करे, मेरे जैसे लेखकों को खपाने के लिए, भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए पुरस्कार भी दे रही है | अब इसके बावजूद भी खरीदार नहीं मिल रहे हैं तो व्यक्तिगत प्रयास ही सही, हर कोई लगा है अपने-अपने तरीके से बेचने में | कुछ ही दिन पहले अख़बारों में ख़बर छपी थी कि सौ पुस्तकों के रचयिता अश्क जी चूना बेच रहे हैं | भाई क्यूँ आपत्ति है आप लोगों को | मीडिया खुद का माल तो जैसे चाहे वैसे बेच लेती है लेकिन हमारें तरीकें पर आपत्ति क्यूँ हो रही है | हमारा माल है हम जैसे चाहे बेचे उसको | हमें जो मिला है हम उसको रखे या किसी को दे दे | मीडिया क्यूँ पड़ा भाई हमारे बेचने के तरीके के पीछे | जानना है तरीका तो हम लोग समय-समय पर संगोष्ठी, वर्कशॉप लगते रहते हैं | फीस भर कर सीख क्यूँ नहीं लेते हैं |

खैर, हमें रोग लगा है तो हम ही इलाज करेंगे | अपने में से ही किसी को डॉक्टर भी बना देंगे | भाई,डॉक्टर बनने भी अलग ही पीड़ा है | बहुत से लोगों से प्रमाण पत्र लेना पड़ता है | खानदान से लेकर पानदान तक का सफ़र होता हैं | खानदान वे लोग है जो आसपास रहते हैं बेवजह पानी डालते रहते हैं ये जानते हुए भी कि ये रोग उनमें भी लग सकता हैं | पानदान वे लोग है जो फेसबुक पर लाइक से ही हमारे रोग के कीटाणुओं को भोजन प्रदान करते रहते हैं | इस रोग से बचना का अभी तक एक ही उपाय नजर आ रहा है | खानदान और पानदान लोग इस रोग के शिकार हो जाये | तब पता चलेगा उन लोगों को हमारा दर्द |

खैर, मुझे तो अपने शेयर से मतलब है | मेरे साहित्य का शेयर वैल्यू मेरे रोग से ही निर्धारित हो रहा है तो मुझे रोग लगा ही रहे | जब शेयर वैल्यू गिरेगा तो पुरस्कार वापस कर दूंगा, मेस समिति ज्वाइन कर लूँगा, मोदी के ख़िलाफ़ नारा लगा दूंगा, आलू दुकान खोल लूँगा, पान दुकान खोल लूँगा, चाय बेच लूँगा, धरने पर बैठ जाऊंगा, हिन्दू-मुस्लिम एकता वाली दुकान सजा लूँगा आदि | अब जिसकों रोग नहीं है वो अपना धन्धा सोंचे | जय भीम !लाल सलाम ! जय श्री राम! ख़ुदा हाफिज |

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