कविता

बैठ कुऐं की मुंडेर पे

सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

सुबह से सोच रही थी
कब , भरने पानी मैं जाऊं
बैठ मुंडेर पे कुऐं की
सहेली को मनं का हाल सुनाऊं
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

सास मेरी बहु को बेटी ना माने
बना बना के मुहं टेढ़ा
देती है मुझ को ताने
माइके वाले मेरे उसे एक आंख ना भाये
कहती है तुझे देने वाले जन्म
सीधे नरक में जायें
मनं करता है सास से एक बार जी भर के लड़ लूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

बालम मेरा माँ का लाडला
बातों को मेरी वोह है टालता
सास मेरी की हर बात वोह माने
में कुछ कहती हूँ तो मुहँ फुला लेता है
कीसी न कीसी बहाने
सिसकियाँ भर लूँ
मनं हल्का में कर लूँ
सहेली
आ बैठ मेरे पास
मनं की दो बातें कर लूँ
फीर भर के घड़ा पानी का
अपने घर को चल दूँ

{संजय कुमार फरवाहा}