कविता

इत्मिनान

कोई गिला रहा नहीं,
न कोई शिकवा अब है।
ज़िंदगी में आए इत्मिनान तो
हो जाए गुम हर डर है।
जीना कठिन था सही,
पर हौसलों से राह बन गई।
थकी हुई रूह को भी
फिर से ऊर्जा मिल गई।
साँस अब बोझ नहीं,
ज़िंदगी अवसर नए बनाती है।
हर सुबह की धूप में उम्मीद
फिर से खिलखिलाती है।
दुनिया के रंग बहुत देखे,
हर रंग में स्याही थी।
जलती रूहों ने तपिश भी ली,
हर चाह आह से बंधी थी।
कब कौन अनजाना
सहारा बन जाए,
कौन अपना दगा दे जाए,
जीवन की राहें उलझी बड़ी।
उम्मीदें अब व्यर्थ सी हैं लगती,
न कोई अपना न कोई गैर।
मन शांत हो ग़र भीतर से
न रहती शिकायत न कोई वैर।

मुनीष भाटिया