राजनीति

आइए मनाएं, राजनीतिक शुचिता माह

-रवि शंकर

अक्टूबर का महीना भारत के लिए राजनीतिक शुचिता माह के रूप में मनाया जा सकता है। इस महीने में तीन ऐसे राजनीतिक नेताओं का जन्म हुआ, जिन्होंने न केवल देश की राजनीति को नई दिशा दी, बल्कि नए आदर्श व मानदंड भी स्थापित किए। इनमें से दो यानी मोहनदास करमचंद गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का जन्म दो अक्टूबर को हुआ था और ग्यारह अक्टूबर को नानाजी देशमुख का। मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी को राजनीतिक नेता कहना थोड़ा अटपटा-सा प्रतीत होता है। वे इन सभी सीमाओं से ऊपर उठ चुके थे, परन्तु 1931 में कांग्रेस की सदस्यता और उसके रूप में सक्रिय राजनीति को छोड़ने के बाद भी वे राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली बने रहे। इतना ही नहीं, उनका राजनीतिक हस्तक्षेप भी उसी रूप में बना रहा। वास्तव में, महात्मा गांधी सामाजिक कार्यों का भी अपना राजनीतिक महत्व था। इसलिए प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति में न रहते हुए भी महात्मा गांधी ने देश को न केवल एक राजनीतिक नेतृत्व दिया, बल्कि उसमें आदर्श व मापदंड भी स्थापित किए।

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नाम तो जगविदित है। जय जवान, जय किसान के उनके नारे ने उनकी मजबूत राजनीतिक क्षमता का अहसास कराया था और रेलमंत्री रहते हुए, एक साधरण-सी दुर्घटना पर दिए गए उनके तस्तीफे से उनकी मजबूत राजनीतिक नैतिकता व शुचिता का परिचय मिलता था। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने न तो कभी धन कमाने का प्रयास किया और न ही नाम। वे सभी लौकिक एषणाओं से मुक्त रहकर निरपेक्ष भाव से देशसेवा में लगे रहे। राजनीतिक क्षेत्र में रहते हुए भी सादगी और सरलता की वे एक मिसाल थे। महात्मा गांधी की तरह उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र का परित्याग तो नहीं किया परंतु प्रत्यक्ष राजनीति में रहते हुए आर्थिक शुचिता का समाज में एक आदर्श स्थापित किया। असमय उनकी मृत्यु (जिस पर उनकी हत्या होने का भी संदेह है) नहीं हुई होती, तो शायद देश की राजनीति की दिशा ही आज कुछ और होती।

इसी कड़ी में जो तीसरा नाम है, वह है नानाजी देशमुख का। नानाजी देशमुख एक सच्चे अर्थों में समाजसेवी राजनेता थे। महात्मा गांधी की ही तरह उनका व्यक्तित्व भी बहुआयामी और प्रतिभा बहुमुखी थी और महात्मा गांधी की ही तरह उन्होंने राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली रहने के बावजूद सक्रिय चुनावी राजनीति का परित्याग कर दिया था। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने अनेक राजनीतिक आदर्श और प्रतिमान स्थापित किए। भारतीय जनसंघ की स्थापना में सहयोग करने के बाद अपने संगठन से कौशल से न केवल जनसंघ को मजबूत किया, बल्कि उसके प्रति अन्य राजनीतिक दलों का भेदभावपूर्ण व्यवहार को भी समाप्त करने में सफल रहे। नानाजी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आन्दोलन का सफल संचालन किया और 1977 में देश की पहली गैरकांग्रेस सरकार बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोरारजी देसाई सरकार के निर्माण का महत्वपूर्ण घटक होने के बावजूद वे मंत्री पद के लोभ में नहीं फंसे और उद्योग मंत्री रूपी प्रभावशाली मंत्री पद त्याग दिया। राजनीतिक आदर्श स्थापित करने के लिए उनका अगला कदम था राजनीति से सेवानिवृत्ति। उनका यह स्पष्ट मानना था कि जिस प्रकार व्यक्ति 60 वर्ष की आयु में नौकरी से निवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार उसे राजनीति से भी निवृत्त होकर समाजसेवा में लगना चाहिए। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने वर्ष 1987 में सक्रिय राजनीति छोड़ दी और चित्रकूट जाकर ग्राम विकास के काम में पूरी तरह जुट गए। चित्रकूट में उन्होंने जो कार्य खड़ा किया, वह इतना परिणामकारक और प्रभावोत्पादक है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक ने उसकी प्रशंसा की और देश के विकास के लिए उसे एक आदर्श प्रारूप घोषित किया।

भारतीय राजनीति के वर्तमान गिरावट के दौर में जब सर्वत्र स्वार्थ और धनबल व बाहुबल का जोर हो, ये तीनों एक अलग सितारे के रूप में चमकते नजर आते हैं। दु:ख का विषय यह है कि इनके अपने राजनीतिक साथियों व अनुयायियों तक ने इनके बनाए राजनीतिक आदर्शों व प्रतिमानों की स्पष्ट व घोर उपेक्षा की। महात्मा गांधी जिन्हें अपना उत्ताराधीकारी और वारिस मानते थे। उन पंडित नेहरू ने 1947 में ही साफ-साफ कह दिया था कि वे गांधीजी की ग्राम स्वराज की अवधारणा से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं। महात्मा गांधी के राजनीति छोड़कर समाजसेवा में लगने के आदर्श को किसी कांग्रेसी नेता ने अपनाने की कोशिश नहीं की, इसके उलटे वे सत्ता की राजनीति में इतना डूबे, इतना डूबे कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का आज वे पर्याय वन गए हैं। लाल बहादुर शास्त्री की राजनीतिक निरपेक्षता और निस्वार्स्थता का दूसरा उदाहरण भी उन्हें भ्रष्ट होने से नहीं बचा सका। लाल बहादुर शास्त्री का सादगीपूर्ण जीवन और सरलता उदाहरण ही वन कर रह गई। किसी भी कांग्रेसी नेता ने उनको अपने जीवन में उतारने की कोशिश नहीं की। दूसरी ओर, राजनीति में एक अलग चाल, चेहरा और चरित्र प्रस्तुत करने का दावा करने वाला भारतीय जनसंघ भी इस राजनीतिक गिरावट से नहीं बच सका। नानाजी देशमुख के निकटतम राजनीतिक सहयोगी रहे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी में से किसी ने उनके आदर्शों पर चलने की आवश्यकता नहीं समझी। अटल बिहारी वाजपेयी शरीर से पूरी तरह लाचार होने तक शीर्ष पर बने रहे और 89 वर्ष की आयु में भी आडवाणी पीएम इन वेटिंग की दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार बैठे हैं। इसका ही परिणाम है कि भारतीय जनसंघ के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी में कोई दूसरी पीढ़ी तैयार नहीं हो पाई। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को कहना पड़ा कि युवा नेतृत्व को पार्टी में आगे लाना चाहिए।

बहरहाल, कांग्रेस हो या भाजपा, किसी ने भी अपने इन नेताओं के आदर्शों को आगे बढ़ाने की कोई भी कोशिश नहीं की। दूर से प्रणाम ले लिया, श्रद्धा सुमन भी चढ़ाए, परन्तु उनके दिखाए गए रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं दिखा पाए। जब उनके दल के नेताओं ने ही इनकी उपेक्षा की तो अन्य दलों के नेताओं से तो कोई अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। परन्तु भारतीय राजनीति में आज जो गिरावट आ रही है, उसका एकमात्र समाधान इनके दिखाए गए रास्ते में ही दिखता है। इसलिए आज जरूरत है कि हम इस महीने राजनीतिक शुचिता माह मनाकर इन्हें याद करें और इनके दिखाए रास्ते पर चलने का संकल्प करें। यदि पूरा महीना मनाना हमारे राजनीतिक नेताओं को कठिन प्रतीत होता हो तो राजनीतिक शुचिता सप्ताह भी मनाया जा सकता है। इसराजनीतिक शुचिता माह या सप्ताह में आदर्श राजनीतिक जीवन पर केवल कार्यशालाओं, संगोष्ठियां और सेमिनारों का ही आयोजन न किया जाए, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव लेने के भी कुछ कार्यक्रम बनाए जाएं। जैसे, चित्रकूट या वर्धा जाकर वहां चल रहे सेवा कार्यों में प्रत्यक्ष भाग लेना। एक पूरा सप्ताह या फिर कम से कम दो दिन किसी दलित बस्ती या फिर किसी सुदूर गांव में वहां के लोगों के बीच रहना। इस प्रकार के और भी राजनीतिक प्रशिक्षण के कार्यक्रमों की योजना बनाई जा सकती है। इस प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन यदि किया जाए तो यही इन महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।