समाज

फुटपाथ पर ज़िंदगी: विकास के साए में बेघर भारत

शहर की सुबह अक्सर अख़बारों की सुर्खियों से नहीं, फुटपाथ पर सिमटी नींद से शुरू होती है। किसी बस स्टैंड के कोने में ठिठुरता शरीर, किसी निर्माणाधीन इमारत के साये में पड़ी चादर, किसी नाले के किनारे जलती छोटी-सी आग। यही वह दृश्य है जो भारत के तेज़ी से बढ़ते शहरी विकास के समानांतर चलता है। विकास की ऊँची इमारतों के नीचे एक ऐसी आबादी सांस लेती है जिसका कोई स्थायी पता नहीं होता। नोबल नॉन प्रॉफिट के मुताबिक भारत में बेघर लोगों की संख्या लगभग 1.77 मिलियन तक पहुँच चुकी है। यह कोई स्थिर आँकड़ा नहीं है। यह हर दिन बढ़ता हुआ सच है। भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी की रेखा के आसपास जीता है। इसी असुरक्षा की ज़मीन पर बेघर होने की समस्या फैलती चली जाती है। एक छोटी-सी बीमारी, काम का छूट जाना, गांव में सूखा, कर्ज़ का दबाव, पारिवारिक टूटन। ये सभी कारण किसी व्यक्ति को धीरे-धीरे उस स्थिति तक ले आते हैं जहाँ छत केवल आसमान रह जाती है। देश में बेघर लोगों की संख्या पुरुषों में अधिक है। अधिकतर की उम्र 18 से 60 वर्ष के बीच है। यही वह आयु है जिसे कामकाजी और उत्पादक माना जाता है। यही वह वर्ग है जो शहरों की अर्थव्यवस्था को चलाने में अदृश्य भूमिका निभाता है।

बेघर होने की समस्या का चेहरा ग्रामीण कम और शहरी अधिक है। अनुमान है कि भारत के लगभग 85 प्रतिशत बेघर लोग शहरों में रहते हैं। शहर अवसरों का वादा करते हैं। रोजगार का सपना दिखाते हैं। बेहतर जीवन की आशा जगाते हैं। इसी आशा के सहारे लाखों लोग गांवों से शहरों की ओर निकल पड़ते हैं। कुछ लोग निर्माण स्थलों पर पहुंचते हैं। कुछ ढाबों में काम करते हैं। कुछ रिक्शा चलाते हैं। कुछ अस्थायी मजदूरी में खप जाते हैं। सभी के पास एक बात समान होती है। अस्थिरता। इंडिया इन फैक्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 3,29,125 लोग बेघर हैं। महाराष्ट्र में यह संख्या 2,10,908 है। राजस्थान में 1,81,544 लोग इस स्थिति में जी रहे हैं। मध्य प्रदेश में 1,46,435 लोग बेघर हैं। ये केवल संख्या नहीं हैं। ये उतने ही अधूरे सपने हैं। उतनी ही टूटी हुई उम्मीदें हैं। उतनी ही कहानियाँ हैं जो किसी रिपोर्ट में दर्ज होकर ठहर जाती हैं। प्रवासी श्रमिकों की स्थिति इस संकट को और गहरा करती है। प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के अनुसार जनगणना 2011 में देश में अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों की संख्या 4,14,22,917 दर्ज की गई थी। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने गांव, अपनी भाषा, अपनी पहचान से बाहर निकलकर नए प्रदेशों में श्रम बेचा। मध्य प्रदेश में ही 24,15,635 प्रवासी श्रमिकों के आने का रिकॉर्ड है। इन लोगों का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है। इनके पास सामाजिक सुरक्षा नहीं होती। स्थायी आवास नहीं होता। कानूनी संरक्षण अक्सर कागज़ों तक सीमित रहता है।

देश के विभिन्न शहरों में यह संकट साफ़ दिखाई देता है। रेलवे स्टेशन के आसपास, सब्ज़ी मंडी के पीछे, अस्पतालों के बाहर, पुलों के नीचे। प्रवासी कामगार और बेघर लोग दिन भर मेहनत करते हैं। शाम होते ही उनके पास लौटने के लिए कोई घर नहीं होता। नगर की रोशनी उनके लिए उत्सव नहीं होती। वह केवल एक और लंबी रात की शुरुआत होती है। इन परिस्थितियों में व्यक्ति की गरिमा पर सबसे गहरी चोट पड़ती है। संविधान हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात करता है। समान अवसर की गारंटी देता है। जब कोई व्यक्ति खुले आसमान के नीचे सोने को मजबूर होता है, तब यह केवल व्यक्तिगत विफलता नहीं होती। यह व्यवस्था की सामूहिक असफलता होती है। बेघर और प्रवासी लोग अक्सर अदृश्य माने जाते हैं। वे मतदाता सूची में होते हुए भी राजनीतिक प्राथमिकता नहीं बनते। वे शहर के निर्माण में शामिल होते हुए भी उसके लाभ से वंचित रहते हैं। महामारी के समय यह सच्चाई और निर्मम रूप में सामने आई। पैदल चलते मजदूर, भूखे बच्चे, बंद फैक्ट्रियाँ, खाली जेबें। उस समय समाज ने पहली बार बड़े पैमाने पर उन्हें देखा। फिर धीरे-धीरे वे फिर से अनदेखे हो गए।

बेघर होना केवल छत न होने का सवाल नहीं है। यह स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, पहचान सभी से जुड़ा है। बिना पते के इलाज मुश्किल हो जाता है। बच्चों की पढ़ाई टूट जाती है। पुलिस और प्रशासन के साथ संबंध डर और अविश्वास से भरे रहते हैं। महिलाओं और बच्चों के लिए यह स्थिति और अधिक असुरक्षित हो जाती है। शहरों की योजना में इन लोगों के लिए स्थान अक्सर नहीं होता। स्मार्ट सिटी की कल्पना में फुटपाथ पर सोने वाला व्यक्ति फिट नहीं बैठता। विकास के नक्शों में उसकी जरूरतें नहीं दिखतीं। नाइट शेल्टर सीमित हैं। स्वच्छता सुविधाएं अपर्याप्त हैं। रोजगार योजनाएं कागज़ी बनकर रह जाती हैं। फिर भी इन चेहरों में जिजीविषा की कमी नहीं है। हर सुबह वे फिर काम की तलाश में निकलते हैं। किसी ठेकेदार की आवाज़ पर दौड़ पड़ते हैं। किसी निर्माण स्थल पर ईंट उठाते हैं। किसी होटल में बर्तन मांजते हैं। यह संघर्ष रोज़ दोहराया जाता है। बिना शिकायत। बिना मंच। ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह देश इन नागरिकों को केवल श्रम की इकाई मानकर संतुष्ट रह सकता है। क्या विकास की परिभाषा में उनके लिए सुरक्षित आवास, स्थायी रोजगार, सामाजिक सुरक्षा शामिल नहीं होनी चाहिए। क्या संविधान के मूल्य केवल पुस्तकों में सजाने के लिए हैं।

अहमदाबाद हो या लखनऊ, मुंबई हो या जयपुर, हर शहर की आत्मा उसके सबसे कमजोर नागरिक से पहचानी जाती है। जब तक बेघर और प्रवासी लोग हाशिये पर रहेंगे, तब तक विकास अधूरा रहेगा। यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। यह समाज की सामूहिक चेतना का प्रश्न है। नागरिक होने का अर्थ केवल अधिकार लेना नहीं होता। जिम्मेदारी निभाना भी होता है। इन लोगों को दया नहीं चाहिए। उन्हें अवसर चाहिए। सम्मान चाहिए। स्थिरता चाहिए। जब किसी व्यक्ति को घर मिलता है, तब केवल एक छत नहीं मिलती। उसे पहचान मिलती है। सुरक्षा मिलती है। भविष्य की कल्पना करने की आज़ादी मिलती है।भारत जैसे युवा देश के लिए यह चेतावनी है। जो हाथ शहरों को बनाते हैं, यदि वही हाथ सबसे अधिक असुरक्षित हैं, तब व्यवस्था को स्वयं से प्रश्न पूछना होगा। बेघर और प्रवासी लोगों की कहानी किसी एक शहर की नहीं है। यह पूरे देश का आईना है। इस आईने में झांकने का साहस ही वास्तविक विकास की पहली शर्त है।