राजनीति

विवादों को जन्म देती साहित्यिक त्रुटियां

-तनवीर जाफ़री

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को उन्हीं की भाषा में जवाब देकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ‘लाजवाब’ कर दिया है। ग़ौरतलब है कि पिछले दिनों नितिन गडकरी ने लखनऊ की एक जनसभा में दिग्विजय सिंह के आज़मगढ़ दौरे पर प्रश्चिन्ह खड़ा करते हुए अपने विशेष अंदाज में यह प्रश्न कर डाला था कि आजमगढ़ का दौरा करने वाले दिग्विजय सिंह यह बताएं कि वे महाराणा प्रताप अथवा शिवाजी की औलाद हैं या फिर औरंगज़ेब की? गडकरी के इस जोशीले सवाल पर दिग्विजय सिंह ने गत दिनों एक संवाददाता सम्‍मेलन में उन्हीं के शब्दों में यह पलटवार किया कि ‘मैं तो वीरभद्र सिंह की औलाद हूं परंतु माननीय गडकरी जी ही बताएं कि वे महाराणा प्रताप की औलाद हैं या शिवाजी की? दिग्विजय सिंह ने कहा कि मैं औरंगज़ेब का नाम ही नहीं लेता। अब आईए इस ‘औलाद’ शब्द की साहित्यिक व्याख्‍या की जाए। विलादत, वालिद, वल्दियत तथा औलाद यह सभी अरबीभाषा के शब्द हैं। विलादत का अर्थ पैदा होना होता है। जबकि वालिद पैदा करने वाले अर्थात् पिता को कहा जाता है। इसी प्रकार जन्मदाता पिता के नाम को वल्दियत कहा जाता है। और ‘औलाद’ उसी जन्मदाता पिता द्वारा पैदा की गई संतान को कहते हैं।

साहित्यिक अल्पज्ञान के कारण गडकरी द्वारा की गई इस साहित्यिक गलती का पूरा फायदा उठाते हुए दिग्विजय ने उन्हीं के अस्त्रों से उनपर पलटवार करते हुए अब यह पूछ लिया है कि गडकरी जी स्वयं बताएं कि वे महाराणा प्रताप की औलाद हैं या शिवाजी की। अब यह निश्चित समझा जाना चाहिए कि नितिन गडकरी के पास दिग्विजय सिंह के जवाब में बग़लें झांकने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है। क्योंकि दिग्विजय सिंह किसकी औलाद हैं इस विषय पर दिग्विजय सिंह ने यह बता भी दिया कि वे किसकी औलाद हैं। अब नितिन गडकरी के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह स्वयं को महाराणा प्रताप अथवा शिवाजी में से किसी एक की अथवा दोनों की ‘औलाद’ बताकर इस विवाद से अपना पीछा छुड़ाएं तथा अपनी वल्दियत को लेकर एक नए विवाद में उलझने या फिर दिग्विजय सिंह की ही तरह वह भी उपरोक्त तीनों की ‘औलाद’ होने से इंकार करते हुए अपने वालिद अर्थात् जन्मदाता पिता का नाम बता डालें।

इस पूरे प्रकरण में एक बात तो बिल्कुल साफ नजर आती है कि नितिन गडकरी दिग्विजय सिंह पर जो प्रहार करना चाह रहे थे उसका मकसद वह कतई नहीं था जोकि उनके बोले हुए शब्दों से दिगविजय सिंह ने निकाला। गडकरी तो अपनी पार्टी की सोची समझी और सधी हुई रणनीति के तहत दिग्विजय सिंह तथा कांग्रेस पार्टी को मुसलमानों का हितैषी बताकर उसी प्रकार का राजनैतिक वार करना चाह रहे थे जो उनकी पार्टी का मुख्‍य एजेंडा है तथा भाजपा के नेता प्राय: यही करते रहते हैं। परंतु उनके साहित्यिक अल्पज्ञान के चलते दिग्विजय सिंह ने गडकरी के ही शब्द अस्त्र से उन्हें ऐसा घेरा कि अब साहित्यिक दृष्टिकोण से गडकरी के पास अपने बचाव का कोई रास्ता नजर नहीं आता। नितिन गडकरी इसके पूर्व भी लालू यादव तथा मुलायम सिंह यादव के संबंध में उन्हें यह कह चुके हैं कि वे कुत्ते की तरह जाकर सोनिया गांधी के तलवे चाटते हैं। यहां भी ‘तलवे चाटना’ तो एक मुहावरा है जिसे चाटुकारिता करने के संदर्भ में प्रयोग में लाया जाता है। परंतु ‘कुत्ते की तरह तलवे चाटना’ इसे मात्र साहित्यिक अल्पज्ञान के चलते की जाने वाली साहित्यिक त्रुटि कहा जा सकता है या फिर जोश में होश खो बैठने वाला उनके अमर्यादित भाषण का एक अंश।

केवल नितिन गडकरी ही नहीं बल्कि हमारे देश के बड़े से बड़े काबिल व ज्ञानी समझे जाने वाले लोगों द्वारा कभी-कभी इसी साहित्यिक अल्पज्ञान के चलते ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है जिसका अर्थ कुछ और निकलता है जबकि उन शब्दों को बोलने, लिखने व प्रयोग करनेवाला व्यक्ति कहना कुछ और चाहता है। उदाहरण के तौर पर आजकल अरबी भाषा का ही एक शब्दबहुत अधिक प्रयोग में लाया जाता है जिसे ‘खिलाफत’ कहते हैं। आमतौर पर यह देखा गया है कि खिलाफत शब्द का प्रयोग हिंदी के ‘विरोध’ शब्द के स्थान पर किया जाता है। परंतु साहित्यिक व शाब्दिक दृष्टिकोण से अरबी भाषा के ‘खिलाफत’ शब्द का हिंदी भाषा के विरोध शब्द से कोई लेना देना नहीं है। इन दोनों शब्दों के अर्थ एक दूसरे से कतई मेल तक नहीं खाते। अब आईए ‘खिलाफत’ शब्द की गहराई में भी झांक कर देखा जाए तथा अपने सुधी पाठकों, लेखकों को भी इस शब्द की व्या या से बाखबर किया जाए।

मुसलमानों के सुन्नी वर्ग की मान्यता के अनुसार हजरत मोहम्‍मद के देहांत के पश्चात इस्लाम धर्म में खलीफ़ाओं का दौर चला। और उस दौरान एक के बाद एक, चार खलीफ़ा हुए। अरबी भाषा में खलीफा का अर्थ उत्तराधिकारी तथा मुस्लिम राज्‍य की बड़ी पदवी के रूप में लिया जाता है। खलिफाओं के इसी दौर को ‘खिलाफत’ कहा गया। अर्थात् वह युग जो हजरत मोहम्‍मद के चारों उत्तराधिकारियों का युग था। यानि दौर-ए-खिलाफत। यहां यह साफ है कि खिलाफत, खलीफा से ही निकला हुआ एक शब्द है। अब देखिए कि हमारे वह महानुभाव जो ‘खिलाफत’ को विरोध शब्द के स्थान पर प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिए वास्तव में कौन सा शब्द उपयुक्त होगा अथवा वास्तव में वे कौन सा शब्द प्रयोग करना चाहते हैं। अरबी भाषा का ही एक शब्द है ‘खिलाफ’। ‘खिलाफ’ शब्द का अर्थ है विरुद्ध। इसी प्रकार ‘खिलाफ’ शब्द में अरबी के ही कुछ और शब्द निकलते हैं और वे हैं ‘मुखालिफ’ तथा ‘मुखालिफत’। यहां ‘मुखालिफ’ शब्द का अर्थ है विरोधी जबकि ‘मुखालिफत’ शब्द का अर्थ होता है विरोध। यानि आमतौर पर विरोध की जगह ‘खिलाफत’ शब्द का प्रयोग करने वाला कोई भी व्यक्ति दरअसल ‘मुखालिफत’ शब्द लिखना चाहता है। परंतु संभवत: इस शब्द का ज्ञान न होने के कारण अथवा ‘खिलाफत’ शब्द के विरोध शब्द के स्थान पर हो रहे अत्याधिक त्रुटिपूर्ण प्रचलन के कारण वह भी विरोध के स्थान पर ‘खिलाफत’ शब्द को लिख मारता है। जबकि हकीकत में ‘मुखालिफत’ की जगह खिलाफत शब्द के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है शायद गडकरी द्वारा प्रयोग किए गए ‘औलाद’ शब्द की ही तरह।

हमारे देश के प्रधानमंत्री रह चुके राजीव गांधी की योग्यता तथा उनकी सूझबूझ पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। उनकी सौम्‍यता, शालीनता तथा उनके मीठे बोल के सभी क़ायल थे। परंतु वे भी अपने साहित्यिक अल्पज्ञान के चलते शुभ अवसरों तथा पर्व आदि के अवसर पर आजीवन यह बोलते रहे कि- ‘मैं आपको ‘मुबारक’ देता हूं। ‘मुबारक’ फारसी भाषा का एक शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है शुभ अथवा मंगल। इसी से निकला दूसरा शब्द है ‘मुबारकबाद’ यानि बधाई। अब यदि हमें किसी को बधाई देनी हो तो हम या तो यह कहेंगे कि मैं आपको बधाई देता हूं अथवा यह कहा जाएगा कि मैं आपको ‘मुबारकबाद’ देता हूं। यह हरगिज नहीं कहा जाएगा कि मैं आपको मंगल देता हूं या मैं आपको शुभ देता हूं। परंतु राजीव गांधी अपनी मीठी बोली में लोगों को तमाम शुभ अवसरों पर हमेशा ‘मुबारक’ ही देते रहे। जाहिर है यहां उनका मंकसद वही होता था जो आम लोग समझते थे यानि कि वे किसी शुभ अवसर पर बधाई ही दे रहे हैं। परंतु जब भी मैंने उन्हें सुना उन्हें कभी भी ‘मुबारकबाद’ शब्द का प्रयोग करते नहीं देखा। कहना गलत नहीं होगा कि जिस प्रकार दिग्विजय सिंह को उनके सलाहकारों ने ‘औलाद’ शब्द की गहराई तथा व्या या बताकर उन्हें गडकरी के विरुद्ध पलटवार करने का हौसला दिया शायद राजीव गांधी को उनके द्वारा प्राय: प्रयोग किए जाने वाले ‘मुबारक’ शब्द को मुबारक बाद में बदलने की सलाह किसी ने नहीं दी होगी। और चूंकि मुबारक व मुबारकबाद शब्द में कोई बुनियादी अंतर्विरोध नहीं था तथा दोनों शब्दों के अर्थ लगभग आसपास ही थे इसलिए देश की जनता उनके मुबारक कहने को मुबारकबाद ही समझकर स्वीकार करती रही।

इसी प्रकार के अरबी, फ़ारसी तथा उर्दू भाषा के कई शब्‍द हैं जिनका हिंदी में समावेश हो चुका है। परंतु कभी-कभार उन शब्‍दों के साहित्यिक व शाब्दिक अर्थ का ज्ञान न होने के कारण बहुत से लोग कुछ शब्‍दों का प्रयोग हालांकि कुछ और सोचकर अपने वाक्‍यों में करते हैं परंतु उसका अर्थ कुछ और ही निकल आता है। इंसान वैसे तो ग़ल्‍ती का ही मुजस्‍समा कहा गया है।

लिहाज़ा ग़लती किसी भी इंसान से हो सकती है। परंतु साहित्यिक ग़लतियां कभी-कभी बात का बवंडर खड़ा कर देती हैं। अत: इनसे बचने का यही उपाय है कि या तो अपनी लेखनी या बोलने में उन शब्‍दों का प्रयोग किया जाए जिन पर लिखने या बोलने वाले की पूरी पकड़ हो या फिर अन्‍य भाषाओं के शब्‍दों को प्रयोग करने से पूर्व उसके अर्थ को गहराई से समझ लिया जाना चाहिए।