समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है साहित्य

कहते हैं कि साहित्य ही समाज का असली दर्पण होता है। समाज में जो भी घटित होता है, मतलब कि समाज में जो भी गतिविधियां होतीं हैं, लेखक उनसे कहीं न कहीं प्रभावित होता है और वह अक्सर उन्हीं चीजों, घटनाओं, गतिविधियों को अपने साहित्य में अपनी कलम के माध्यम से काग़ज़ के कैनवास पर उतारता है और समाज को अपने विचारों के माध्यम से दर्शाता है। यह साहित्य ही होता है जो किसी भी समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक साहित्यकार समाज का अभिन अंग होता है और वह साहित्य की रचना भी समाज के माध्यम से ही करता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह साहित्यिक रचना ही होती है जो समाज के नवनिर्माण में पथप्रदर्शक की भूमिका निभाती है।कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करने का कार्य करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। हाल ही में प्रख्यात साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को वर्ष 2024 के लिए 59 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। श्री शुक्ल को हिंदी साहित्य में उनके अद्वितीय योगदान, सृजनात्मकता और विशिष्ट लेखन शैली के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि वे हिंदी के 12वें साहित्यकार हैं, जिन्हें यह पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है। श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ के ऐसे पहले लेखक हैं, जिन्हें यह सम्मान मिलने जा रहा है। विकीपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को भारत के राज्य छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में हुआ और आज वे 88 वर्ष के हैं। उन्होंने प्राध्यापन को रोज़गार के रूप में चुनकर पूरा ध्यान साहित्य सृजन में लगाया। गौरतलब है कि श्री शुक्ल ने उपन्यास एवं कविता विधाओं में खूब साहित्य सृजन किया है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘ मैं बच्चों के लिए छोटा-छोटा लिखता हूं और मुझे आसान सा आधार मिल गया है कि मैं इस तरह के छोटे-छोटे काम करता रहूं।बच्चों के लिए लिखना मुझे बड़ा अच्छा लगता है।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि उनके लेखन में जहां एक ओर सरलता का प्रादुर्भाव है, तो वहीं पर दूसरी ओर उनकी लेखन शैली संवेदनशील होने के साथ ही बहुत ही अद्वितीय भी है।उनकी भाषिक बनावट अद्भुत है तथा उन्होंने समकालीन हिंदी कविता को अपने मौलिक कृतित्व से सम्पन्नतर बनाया है और इसके लिए वे पूरे भारतीय काव्य परिदृश्य में अलग से पहचाने जाते हैं। मुख्य रूप से वे हिंदी साहित्य में अपने प्रयोगधर्मी लेखन के लिये प्रसिद्ध हैं। उन्हें ‘जादुई-यथार्थ’ के आसपास की शैली के रूप में महसूस किया जा सकता है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि उनका पहला कविता संग्रह 1971 में लगभग जय हिन्द नाम से प्रकाशित हुआ। उनके अन्य कविता संग्रहों में क्रमशः ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’ (वर्ष 1981), ‘सब कुछ होना बचा रहेगा'(वर्ष 1992), ‘अतिरिक्त नहीं'(वर्ष 2000),’कविता से लंबी कविता'(वर्ष 2001),’आकाश धरती को खटखटाता है’ (वर्ष 2006), ‘पचास कविताएँ’ (वर्ष 2011),’कभी के बाद अभी’ (वर्ष 2012),’कवि ने कहा’ तथा ‘चुनी हुई कविताएँ'( वर्ष 2012) व ‘प्रतिनिधि कविताएँ'( वर्ष 2013) शामिल हैं। उनके उपन्यासों में क्रमशः ‘नौकर की कमीज’ (1979), ‘खिलेगा तो देखेंगे'(वर्ष 1996),’दीवार में एक खिड़की रहती थी’ (वर्ष 1997), ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ (वर्ष 2011),’यासि रासा त’ (वर्ष 2017) तथा 

‘एक चुप्पी जगह’ (वर्ष 2018) शामिल हैं। उनके कहानी संग्रहों में क्रमशः ‘पेड़ पर कमरा’ (वर्ष 1988),’महाविद्यालय'(वर्ष 1996),’एक कहानी'( वर्ष 2021) तथा ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ'( वर्ष 2021) शामिल हैं। इतना ही नहीं, उनकी कृतियों के अनुवाद भी हुए हैं। गौरतलब है कि श्री शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर प्रसिद्ध फिल्मकार मणि कौल ने वर्ष 1999 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनाई थी। पाठकों को बताता चलूं कि श्री शुक्ल को इससे पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा भी कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। पुरस्कारों में क्रमशः गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप ‘ (म.प्र. शासन), रज़ा पुरस्कार ‘ (मध्यप्रदेश कला परिषद), शिखर सम्मान (म.प्र. शासन),राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (म.प्र. शासन), दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान’ (मोदी फाउंडेशन),साहित्य अकादमी पुरस्कार (भारत सरकार),हिन्दी गौरव सम्मान (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, उ.प्र. शासन), मातृभूमि पुरस्कार, वर्ष 2020 (अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘ब्ल्यू इज लाइक ब्ल्यू’ के लिए), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्य’ सम्मान (वर्ष 2021) शामिल हैं। बहरहाल, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा की है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है और भारत का कोई भी नागरिक जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त  22 भाषाओं में से किसी भाषा में उत्कृष्ट लेखन कार्य करता हो, इस पुरस्कार के योग्य है।इस पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। गौरतलब है कि वर्ष 1961 में स्थापित प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार वर्ष 1965 में मलयालम लेखक जी. शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार उन्हें उनके काव्य संग्रह ‘ओडक्कुझल’ के लिए प्रदान किया गया था। जिस समय शंकर कुरुप को यह पुरस्कार प्रदान किया गया था, उस समय पुरस्कार की धनराशि एक लाख रुपए थी तथा 1982 तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था, लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। हाल फिलहाल पाठकों को बताता चलूं कि विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे जाने की बात पर उन्होंने कहा है कि ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार से जिम्मेदारी का अहसास होता है।’ उन्होंने कहा है कि  ‘मैंने बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सुना, बहुत कुछ महसूस किया, लेकिन उसका केवल एक अंश ही लिख सका।’ पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि वे भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले राज्य छत्तीसगढ़ के पहले लेखक भी हैं। साहित्य के प्रति उनका कितना लगाव है,यह इस बात से स्पष्ट होता है कि उन्होंने हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार जीतने के बाद यह बात कही है कि ‘मैं अपनी जिंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूं।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि शुक्ल जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना एक ओर जहां पर हिंदी साहित्य जगत के लिए गौरव का विषय है वहीं  दूसरी ओर यह उनकी  असाधारण रचनात्मकता, मौलिक लेखन शैली और साहित्य के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता,रूचि को दर्शाता है। वे संवेदनाओं को बहुत ही गहराई से काग़ज़ के कैनवास पर उकेरते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि उनकी रचनाओं की विशेषता यह है कि वे अत्यंत सरल, सहज और आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई होती हैं, लेकिन उनमें गहरी दार्शनिकता और मानवीय संवेदनाएं निहित होतीं हैं। वे जीवन के हर पहलू को गहराई से अध्ययन करते हैं और उसे काग़ज़ पर सहजता और सरलता से पिरो देते हैं। शुक्ल जी जीवन की साधारण से साधारण घटनाओं, अनुभवों को असाधारण रूप से बहुत ही सूक्ष्मता से सही दृष्टिकोण और संवेदनशीलता से  प्रस्तुत करते हैं।कहना ग़लत नहीं होगा कि श्री शुक्ल जी का लेखन हिंदी साहित्य में एक अलग व अनूठी पहचान बनाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद साहित्य के क्षेत्र में उनकी पहुंच दूर-दूर तक हो सकेगी, जिससे भारतीय साहित्य का समृद्ध भंडार और विस्तृत हो सकेगा। आज साहित्य पर बाजारवाद और दिखावे का बड़ा प्रभाव है। साहित्यकार कलिष्टता की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। साहित्य चोरी तो जैसे आम बात सी हो चली है। साहित्य से संवेदनशीलता, मौलिकता और सरलता तथा सहजता जैसे गायब सी है। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि साहित्य कोई भी उसमें मौलिकता बहुत ही महत्वपूर्ण और जरूरी है। बिना मौलिकता और संवेदनशीलता के कोई भी साहित्य निष्प्राण ही कहलाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि साहित्य में सच्चाई प्रकट होनी चाहिए और उसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित, और सुंदर होनी चाहिए।एक अच्छे साहित्य में दिलो-दिमाग पर असर डालने के गुण होने चाहिए।एक अच्छा साहित्य हमें मानवीय करुणा, संवेदनशीलता, सद्भाव, एकात्म, भाषायी ज्ञान, सांस्कृतिक ज्ञान, संयम, सौहार्द प्रदान करता है और श्री शुक्ल जी के साहित्य में यह सबकुछ है।श्री शुक्ल जी ने अपने लेखन के माध्यम से यह बखूबी दर्शाया है कि साहित्य क्लिष्ट व कठिन शब्दों का खेल मात्र नहीं है, बल्कि साहित्य इससे कहीं ऊपर है। वास्तव में,उन्होंने अपने लेखन से यह दर्शाया है कि साधारण जीवन की छोटी-छोटी बातों में भी असाधारण सुंदरता निहित हो सकती है।सच तो यह है कि संवेदना ही एक ऐसा भाव है, जो साहित्य और समाज को जोड़ता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि संवेदनहीन साहित्य समाज को कभी प्रभावित नहीं कर सकता और वह मात्र मनोरंजन कर सकता है। साहित्य समाज को संस्कारित करने के साथ-साथ जीवन मूल्यों की भी शिक्षा देता है एवं कालखंड की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज को संदेश प्रेषित करता है, जिससे समाज में सुधार आता है और सामाजिक विकास को गति मिलती है। अंत में यही कहूंगा कि श्री शुक्ल जी का साहित्य साधारण जीवन के साधारण व छोटे-छोटे अनुभवों की सच्ची अभिव्यक्ति है। कहना चाहूंगा कि उनके साहित्य से नव-लेखकों, साहित्यकारों, शोधार्थियों को सदैव नवीन ऊर्जा, सकारात्मकता व प्रोत्साहन मिलता रहेगा। उनके शानदार, जानदार लेखन को यह लेखक नमन करता है। जय-जय।

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