लोकपाल विधयेक और नैतिक शिक्षा

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विजय कुमार

पिछले एक साल से लोकपाल विधेयक पर बार-बार चर्चा हो रही है। कुछ लोग इसके समर्थक हैं और कुछ विरोधी। कुछ लोग अन्ना हजारे की टीम द्वारा बनाये गये प्रारूप को जस का तस स्वीकार करने के पक्षधर हैं, तो कुछ लोग कांग्रेस वाले प्रारूप को। अन्य दलों और संस्थाओं का भी इस बारे में अपना-अपना विचार है।

इस बीच कुछ राज्यों ने अपने हिसाब से लोकपाल विधेयक पारित कर दिये हैं। अन्ना हजारे ने उत्तराखंड के विधेयक को सर्वश्रेष्ठ बताया है; पर नयी कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही उसे बदल दिया। कर्नाटक का लोकपाल विधेयक भी बहुत अच्छा है। मजे की बात यह है कि इसे येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने ही बनाया था। भाजपा शासन ने वहां के लोकपाल को सर्वाधिक शक्तियां दीं; पर इसकी सबसे पहली गाज येदियुरप्पा पर ही गिरी और वे अर्श से फर्श पर आ गये। लोकपाल और उसके कारण कुछ नेताओं का जो हश्र हुआ है, इस कारण लम्बे विचार-विमर्श के बाद भी इस बारे में केन्द्रीय कानून नहीं बन पा रहा है।

पिछले दिनेां एक समारोह में पूर्व राष्ट्रपति डा0 कलाम ने कहा कि लोकपाल विधेयक पारित होने से जेल अवश्य भर जाएंगी; पर भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा। यदि भ्रष्टाचार मिटाना है, तो बच्चों को उनके पाठ्यक्रम में नैतिकता की शिक्षा दी जाए। यदि बच्चे प्रारम्भ से ही इस बारे में सीखेंगे, तो वे बड़े होकर भ्रष्टाचार नहीं करेंगे।

डा0 कलाम की छवि पूरे देश में बहुत ही अच्छी है। केवल बड़े ही नहीं, तो बच्चे और युवा वर्ग भी उनको अपना आदर्श मानता है। वैज्ञानिक तथा फिर राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल बहुत श्रेष्ठ रहा है। कई लोगों ने राष्ट्रपति भवन को अपने खानदान के ऐश आराम का अड्डा बनाकर रखा; पर डा0 कलाम इसके अपवाद ही रहे। अवकाश प्राप्ति के बाद राष्ट्रपति भवन के पर्दे ले जाने से लेकर, बच्चों के लिए डोसा मंगाने हेतु वायुसेना के विमान को बंगलौर भेजने तक के किस्से प्रचलित हैं; पर डा0 कलाम के आचरण पर कहीं कोई धब्बा नहीं है। उनका एक बहुत बड़ा उपकार भारत पर यह भी है कि उन्होंने एक विदेशी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया।

लेकिन पुस्तकों में नैतिक शिक्षा के पाठ पढ़ने से क्या सब बच्चों के जीवन में अनुशासन, आदर्शवाद और देशभक्ति आ जाएगी ? क्या वे भ्रष्ट आचरण से दूर हो जाएंगे ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो लोग विद्यालय नहीं गये हैं या जिनकी लौकिक शिक्षा बिल्कुल नहीं हुई, वे सब भ्रष्ट होंगे ?

पर हम सबका अनुभव तो यह है कि गांव का गरीब किसान, मजदूर और वे महिलाएं, जो एक भी दिन विद्यालय नहीं गये, उनका नैतिक आचरण सामान्यतः पढ़े-लिखे लोगों से अधिक अच्छा होता है। यदि किसी का सामान रिक्शा में छूट जाए, तो प्रायः अनपढ़ रिक्शावाला सवारी को ढूंढकर उसका सामान वापस देने का प्रयास करता है, जबकि सरकारी कार्यालयों में बैठे सुशिक्षित लोग आने वाले हर व्यक्ति का सही काम भी बिना रिश्वत लिये नहीं करते।

ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं। इन सबका निष्कर्ष एक ही है कि केवल पुस्तक या भाषण से नैतिकता नहीं आती। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि जीवन में नैतिकता के लिए पुस्तकों का महत्व नहीं है। हममें से बहुतों ने बचपन में गीता प्रेस, गोरखपुर की पुस्तकें पढ़ी होंगी। अच्छा कागज, अच्छी छपाई और बहुत कम मूल्य वाली उन पुस्तकों का प्रभाव मन-मस्तिष्क पर पड़ता ही है। 40-45 वर्ष पूर्व उनका मूल्य छह या आठ पैसे हुआ करता था, तो आज उनका मूल्य चार-पांच रुपये होता है। अनेक सामाजिक संस्थाएं भी ऐसा साहित्य बहुत कम मूल्य पर उपलब्ध कराती हैं।

लेकिन ऐसी पुस्तकों को पढ़ने के बाद यदि बालक देखता है कि उसके माता-पिता और अध्यापक स्वयं ही इसके विपरीत आचरण कर रहे हैं, तो उसके मन को झटका लगता है। वह छोटा होने के कारण कुछ बोल तो नहीं पाता; पर उसका नैतिकता के इस पाखंड से विश्वास उठ जाता है। बड़ा होने पर भी वे कहानियां तो उसे याद रहती हैं; पर उसका व्यवहार उनके अनुकूल नहीं होता।

अर्थात जीवन में नैतिकता लाने के लिए पुस्तकों से अधिक महत्व बड़ों के आचरण का है। गांधी जी ने भी लिखा है कि उनके एक अध्यापक ने जब उन्हें नकल करने का संकेत दिया, तो उनके मन को झटका लगा। आज से सौ साल पहले ऐसे लोग अपवाद थे; पर आज तो सब और भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। खाद्य सामग्री में मिलावट, कार्यालय में देर से जाकर जल्दी आना, कार्यालय की सामग्री का घरों में प्रयोग, अध्यापकों द्वारा कक्षा में पढ़ाई से अधिक ट्यूशन और कोचिंग पर ध्यान, क्रिकेट में मिलीभगत…. कितने उदाहरण दें ?

और फिर इससे भी बड़ी बात यह है कि ऐसे भ्रष्ट और चरित्रहीन लोगों का राजनीतिक और सामाजिक मंचों पर भरपूर सम्मान होता है। शैतान की आंत की तरह भ्रष्टाचार के मुकदमे जीवन भर चलते रहते हैं। रिश्वत के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति रिश्वत देकर ही छूट जाता है। यदि कभी उसे जेल जाना पड़े, तो चार-छह महीने बाद ही वह बाहर आ जाता है। जेल से आते ही उसके जातीय या क्षेत्रीय समर्थक उसे सिर पर बैठा लेते हैं। जनता भी भावावेश में बहकर उसे फिर चुन लेती है। ऐसे में नयी पीढ़ी से यह अपेक्षा करना आकाशकुसुम ही होगा कि वे पुस्तकों में पढ़ी या माता-पिता और अध्यापकों द्वारा बताई गयी कहानियों के आधार पर अपना आचरण ठीक रखेंगे।

इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कुछ और तरीके सोचने होंगे। जैसे अच्छा चिकित्सक सबसे पहले यह देखता है कि रोग का कारण क्या है ? वह दवा के साथ ही परहेज भी बताता है, जिससे रोग फिर न उभर सके। यही स्थिति भ्रष्टाचार की है।

इसे मिटाने के लिए जहां एक ओर नैतिकता की शिक्षा आवश्यक है, वहां बड़ों द्वारा नैतिक व्यवहार होना भी अपेक्षित है। कानून कठोर होने चाहिए; पर निर्णय प्रक्रिया भी ऐसी हो कि भ्रष्टाचारियों को शीघ्र और कठोर दंड मिल सके। भ्रष्ट लोगों का सामाजिक बहिष्कार हो। जिस चुनाव प्रणाली ने पिछले 60 साल में पूरे राजनीतिक तन्त्र को भ्रष्ट कर दिया है, उसे बदला जाए।

भ्रष्टाचार का रूप सहòपाद (कानखजूरे) जैसा है। जब तक उसके सब पांव एक साथ नहीं तोड़े जाएंगे, तब तक काम नहीं बनेगा; और इसके लिए कानून से अधिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

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