स्वास्थ्य के मानकों पर लड़ाई हारते आदिवासी

-राखी रघुवंशी

खुली अर्थव्यवस्था, बाजारवाद और नव उपभोक्तावाद की चकाचौंध में कई मूलभूत समस्याएं सरकारी फाइलों में, नेताओं के झूठे वादों में और समाज के बदलते दृष्टिकोण के चलते दबकर रह जाती हैं। गरीबी, बदतर स्वास्थ्य सेवाएं और अशिक्षा के साथ-साथ बच्चों का बढ़ता कुपोषण भारत में एक बड़ी समस्या है जिसका निदान कहीं नहीं दिखता। हाल में ही यूनिसेफ द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट में जो चित्र सामने आया है, वह भयावह है और सभी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए।

देश के कुल नवजात मृत्यू दर और बाल मृत्यू दर में मध्यप्रदेश सबसे बड़े योगदानकर्ता प्रदेशों में से एक है। एनएफएचएस-3 की सर्वेक्षण रिपोर्ट में मध्यप्रदेश के बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल की चिंताजनक तस्वीर साफ तौर पर देखी जा सकती है। खसकर जाति आधारित बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी स्थिति की रिपोर्ट से पता चलता है कि हर बच्चे के जीने के अधिकार की रक्षा के लिए अभी बहुत गंभीर प्रयास किए जाने की जरूरत है। प्रदेश के पिछड़े तबके तथा आदिवासी अभिभावकों के लिए उनके बच्चों का बेहतर स्वास्थ्य अभी भी दिन में सपने देखने जैसा ही है। प्रदेश की आदिवासी समुदाय में जन्म लेने वाले प्रति हजार जीवित शिशुओं में से 56.5 शिशु अपने शुरूआती 28 दिनों में ही प्राण त्याग देते हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति के प्रति हजार जीवित नवजात शिशुओं में से 50.2 प्रतिशत शिशु अपने जीवन का एक माह भी पूरा नहीं कर पाते हैं।

हाल ही में जारी की गई ‘एनएफएचएस-3(राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण)’की मध्यप्रदेश केन्द्रित रिपोर्ट में जो चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की गई है, उससे पता चलता है कि प्रदेश का आदिवासी समुदाय तमाम स्वास्थ्य मानकों की लड़ाई हारने की कगार पर खड़ा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासी समुदाय के हर 1000 जीवित जन्म लेने वाले बच्चों में से 140 बच्चे दम तोड़ देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आदिवासियों में 14 फीसदी बच्चे अपना 5वां जन्मदिन मनाने के लिए जीवित ही नहीं बचते। यह मध्यप्रदेश की जन्म के पांच वर्ष के भीतर होने वाली शिशुओं की औसत बाल मृत्यू दर 94.2 प्रति हजार से बहुत ज्यादा है।

मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिला दें तो ये प्रदेश की कुल आबादी का 34.44 प्रतिशत हिस्सा होते हैं, लेकिन यह बेहद चिंता और अफसोस की बात है कि समाज के इस वर्ग को इस बात का कोई भरोसा नहीं है कि उनके बच्चे कल का सूरज देख पांएगे या नहीं । प्रदेश के प्रति हजार जीवित जन्म लेने वाले बच्चों में पांच वर्ष के भीतर दम तोड़ देने वाले 94.2 बच्चों की तुलना में अनुसूचित जाति के बच्चों में पांच वर्ष के भीतर दम तोड़ने वाले बच्चों की संख्या 110 प्रति हजार तथा अनुसूचित जनजाति में ऐसे बच्चों की संख्या 140 प्रति हजार है। प्रदेश के अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों में नवजात, शिशु व बाल मृत्यू दर की इस बढ़ी हुई संख्या के पीछे के कारणों पर अगर गौर किया जाए तो हम पाते हैं कि इस वर्ग के बच्चों में कुपोषण तथा एनीमिया की अधिकता, स्तनपान की कमी के अलावा किसी भी तरह के टीकाकरण का न होना ही मुख्य प्रभावी कारण हैं।

मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के बच्चे स्वास्थ्य सूचकांक के सभी पैमानों पर लगभग असुरक्षित हैं। आदिवासी बच्चों के जीवित रह पाने के अवसर बेहद सीमित हैं, इनमें 71.4 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, 82.5 प्रतिशत बच्चे विभिन्न स्तरों की एनीमिया से पीडित हैं। वहीं बीते पांच वर्षों में ऐसे आदिवासी बच्चों की संख्या महज 11.7 प्रतिशत थी जो जन्म के एक घंटे की अवधि के भीतर स्तनपान कर सके थे। वहीं प्रदेश में ऐसे बच्चों की संख्या 15.9 प्रतिशत थी। इसी तरह आदिवासियों में महज 23.3 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे हैं जिन्हें सभी बुनियादी टीके लगाए जा सकें हों।

अगर अन्य पिछड़ी जातियों के बच्चों की अनुसूचित जाति के बच्चें से तुलना की जाए तो हम देखते हैं कि एनीमिया, स्तनपान तथा कुपोषण जैसे मामलों में अनुसूचित जाति के बच्चों से अन्य पिछड़ी जातियों के बच्चों की स्थिति थोड़ी बेहतर है। अनुसूचित जाति के बच्चों में जहां 75.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं, वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग के 70.6 प्रतिशत बच्चे ही एनीमिया से पीड़ित पाए गए। इसी तरह अगर कुपोषण के मामले को देखें तो हम पाते हैं कि राज्य के बच्चों में औसत 60.3 प्रतिशत कुपोषण की तुलना में अनुसूचित जनजाति के बच्चों में जहां 62.3 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हें, वहीं पिछड़े वर्ग के 57.4 प्रतिशत बच्चों में कुपोषण पाया जाता है अगर हम समग्र तौर पर देखें तो साफ तौर पर कहा जा सकता है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के बच्चे निश्चित तौर पर स्वास्थ्य और जिंदगी की लड़ाई में खतरे की ओर हैं।

सबसे चिंताजनक विषय तो यह है कि शिशु और बाल मृत्यू दर के बेहद ज्यादा होने के बावजृद प्रदेश में आदिवासियों में हर एक हजार बच्चों में 56 बच्चे जन्म लेने के 28 दिनों के भीतर ही दम तोड़ देते हें। वहीं प्रति हजार में 44.9 बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते ह, जबकि राज्य में यह औसत 69.5 का है। जाहिर बात है कि मध्यप्रदेश के आदिवासी समुदाय में बच्चों की जिंदगी चिंता का एक बड़ा विषय हैं।

इसी तरह आदिवासी बच्चों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है। अगर राज्य के स्वास्थ्य आंकड़ों पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि आदिवासियों के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, लेकिन एनएफएचएस-3 की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासी समुदाय के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के दंश के साथ जीवन बिता रहे हैं।

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