चर्च द्वारा संपोषित है मुस्लिम जगत का जनतंत्र समर्थक आन्दोलन

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गौतम चौधरी

मध्य पूरब एवं उत्तरी अफ्रिकी मुस्लिम और साम्यवाद प्रभाव वाले देशों में जनआन्दोलन का गुब्बार अब शांत होने लगा है। इस पूरे एपिसोड के कितने पहलू हो सकते हैं इस पर टिप्पणी के लिए थोडा वक्त चाहिए लेकिन दुनिया के चार-पांच देशों में इस प्रकरण का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। आन्दोलन का इपीसेंटर टयूनेशिया को मान लेना चाहिए। हालांकि इस आन्दोलन के दौरान ही सुड्डान को विभाजित कर एक नये ईयाई देश की स्थापना की गयी है। जिससे यह साबित होता है कि मामले को एक खास मकसद से तूल दिया जा रहा है।

टयूनेशिया में सत्ता का हस्तानांतरण बताया जाता है। मिश्र का शासक हुस्नेमुबारक नेपथ्य में चले गये, गोया म्यामा में लोकतंत्र की हवा चलने लगी है। सबसे चौकाने वाली बात लीबिया में हुई। इधर आन्दोलन न खडा हुआ कि उधर अमेरिकी नेतृत्व वाला उत्तर अटलांटिक व्यापार संघ की सेना ने लीबिया पर आक्रमण कर दिया। वह भी लांकतंत्र की स्थापना के नाम पर। याद रहे स्वोबोदन मिलोशेविच को भी अमेरिका ने इसी प्रकार ठिकाने लगाया था। कुल मिलाकर जिस लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन की हम चर्चा कर रहे हैं उसपर पश्चिम समर्थक समाचार माध्यम के दृष्टिकोण से इतर भी एक दृष्टिकोण बनाने की जरूरत है।

अफ्रिका के मुस्लिम बाहुल्य वाले देशों के जनआन्दोलन की हवा साम्यवादी देश चीन तक को प्रभावित कर रहा है, ऐसा समाचार माध्यम का पश्चिम खेमा प्रचारित कर रहा है। भारत के साम्यवादी लेखक, विचारक, चिंतक और कार्यकर्ता इस पूरे आन्दोलन को अमेरिका विरोधी घोषित करने पर तुले हैं। अमेरिका खुद इसे लोकतंत्र से जोड़कर देख रहा है और चीन मामले पर चुपी साधे हुए है। सच पुछिये तो हालिया कथित लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन को हर कोई अपने अपने ढंग से प्रचारित करने में लगा है लेकिन इस आन्दोलन पर अभी तक कोई तटस्थ विचार नहीं बन पाया है। यह आन्दोलन समाजवाद के खिलाफ है या पूंजीवाद के खिलाफ, यह आन्दोलन इस्लाम के खिलाफ है या अरब देषों में बढ रहे ईसाई वर्चस्व के खिलाफ। आन्दोलन स्थानीय शसन के खिलाफ या भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ है, इसपर अभी मिमांषा बांकी है, लेकिन आन्दोलन के तौर तरीके और मीडिया कवरेज को देखकर ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा आन्दोलन एक खास मकसद के लिए प्रायोजित है। जिस दिशा में हम विचार कर रहे हैं उसमें शत प्रतिशत सत्यता के दावे नहीं किये जा सकते हैं लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि पूरे आन्दोलन में एक खास गुट को फायदा हो रहा है जो किसी न किसी रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके गिरोह को लगातार फायदा पहुंचा रहा है। ऐसा इसलिए भी कि, यह आन्दोलन सउदी अरब में नहीं हुआ, न ही यह आन्दोलन ओमान, यमन, कुवैत अथवा संयुक्त अरब अमिरात में हुआ है। लोकतंत्र की लडाई उसी देशों में लड़ी जा रही है जो देश किसी जमाने में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दिया करता था। अरब और उत्तरी अफ्रिका के मुस्लिम देषों में मिश्र प्रभावषाली देश माना जाता है। इतिहास के पन्नों पर झांकें तो मिश्र के बारे में बडे रोचक तथ्य सामने आएंगे। ऑटोमन साम्राज्य का विस्तार आधे यूरोप तक था। ईसाइयों के द्वारा इस्लाम के खिलाफ संयुक्त युद्ध घोषणा जिसे इतिहास में क्रुसेट के नाम से भी जाना जाता है ऑटोमन के सामने नहीं टिका और अरब ने कुस्तुतूनिया पर आक्रमण कर एक सभ्यता को ही विनष्ट कर दिया। कई शताब्दी तक अरब जीतता रहा लेकिन फ्रांस के शासक नेपोलियन बोनापार्ट ने कई शताब्दियों के बाद मिश्र को हराकर अरब पर फतह का इतिहास रचा। फिर बाद में स्वेज नहर के मामले पर एक बार फिर से अरब और युरोप में तलबारें खिच गयी जिसका अरब की ओर से मिश्र और यूरोप की ओर से इंग्लैंड ने मोर्चा सम्हाला। स्वेज नहर पर हुई लड़ाई में युरोप को पीछे हटना पडा और स्वेज नहर पर मिश्र का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस हार को यूरोक्रिश्चिन समूह अभी तक पचा नहीं पाया है। हाल की लडाई को इस इतिहासिक तथ्य से जोडकर देखने से बातें अच्छी तरह समझ में आएगी। असली लडाई स्वेज पर अरब को मात देने की है। वर्तमान में यूरोईसाई समूह का अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका है। फिर बेटिकन के पोप यूरोप, अमेरिका और अफ्रिका पर फतह के बाद एशिया को अपना गुलाम बनाना चाह रहे हैं। इसकी घोषणा पोप जानपॉल ने भारत में आगमन के दैरान कर चुके हैं। इसका प्रभाव भी दिखने लगा है। भारत में ईसाई जनसंख्या बढोतरी की दर 70 प्रतिषत के करीब है। पाकिस्तान जैसे कट्टर इस्लामी देश में ईसाई जनसंख्या बढ रही है। एक चौथाई श्रीलंकाई तमिल ईसाई हो चुके हैं। श्रीलंका की वर्तमान सरकार ईसाई गिरफ्त बताई जाती है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यामार, लाओस, वितनाम, कंबोडिया, हिन्देशिया, मलेशिया आदि देशों में लगातार ईसाई प्रभाव बढ रहा है। चीन और अपने को आर्थिक शक्ति कहने वाला जापान भी ईसाइयत के आक्रमण से सन्न है। चीन में देखते ही देखते ईसाई जनसंख्या 20 करोड पर पहुंच गयी है। दक्षिण कोरिया, ताईवान, हांकांग, सिंगापोर आदि देशों में 80 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या ईसाइयों की है। ईसाई मिशनरी केवल ईसाई देशों में ही नहीं दुनिया भर में सक्रिय हैं। इनको खुले तौर पर अमेरिका एवं यूरोपीये देशों का समर्थन प्राप्त है। इसके पीछे का कारण भी स्पष्ट है। अमेरिका और पष्चिम के देष अब समझ गये हैं कि दुनिया को सैनिकों के द्वारा गुलाम नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने दुनिया को गुलाम बनाने के लिए दो हथियार गढे हैं। एक का नाम ईसाइयत है तो दूसरे का नाम साम्यवाद। दुनिया में आर्थिक साम्राज्य अस्थापित करने के लिए अमेरिका ने दो और हथियार तैयार किये हैं। जिसे लोकतंत्र और मानवाधिकार का नाम दिया गया है। ये सारे हथियार दुनिया को सुंदर बनाने के लिए नहीं गुलाम बनाने के लिए गढा गया है, जिसमें कहीं न कहीं ईसाई हित भी छुप हुआ है।

मध्य पूरब और उत्तरी अफ्रिकी मुस्लिम देशों का हालिया जनआन्दोलन संभवत: तीन कारणों से प्रायोजित हो सकता है। पहला अमेरिका एवं उसके गिरोह के देशों का प्राकृतिक तेल बाहुल्य वाले मुस्लिम देशों पर पकड़ के लिए, दूसरा अमेरिकी और नाटो सेना द्वारा किये गये कुकृत्यों को ढकने के लिए और तीसरा अमेरिका के गुट से कन्नी काटने वालों को धमकाने के लिए यह आन्दोलन किया गया है। ऐसे इस आन्दोलन से ईसाई जगत को बहुत फायदा होता दिख रहा है। इसलिए इस आन्दोलन के प्रयोजन में उनकी भूमिका को भी नकारा नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार इस आन्दोलन को जो लोग ऐसा वैसा बता रहे हैं, हो सकता है वे भी सही हों लेकिन इस आन्दोलन से जिसे फायदा होता दिख रहा है उस आधार पर तो यही कहा जाना चाहिए कि आन्दोलन अमेरिका और चर्च द्वारा संपोषित आन्दोलन है।

 

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