झूठे दुष्कर्म के मामलों में पिसता पुरुष समाज

राजेश कुमार पासी

जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था तो पूरे देश में महिलाओं से होने वाले दुष्कर्म के प्रति गुस्सा भर गया था और जनता सड़कों पर आ गई थी । इस कांड के बाद ही संसद ने ऐसे मामलों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाया था लेकिन ऐसे मामले रुक नहीं रहे हैं । दुष्कर्म विरोधी कानून बनने के बाद महिलाओं से होने वाली दरिंदगी रूकने की बजाये बढ़ गई है । निर्भया कांड से पहले वैसी बर्बरता बहुत कम देखने को मिलती थी लेकिन इस कानून के बाद ऐसी बर्बरता बार-बार हो रही है लेकिन अब जनता को गुस्सा नहीं आता है । ऐसा लगता  है कि समाज को ऐसी बर्बरता की आदत पड़ गई है । कोई भी यह विचार करने को तैयार नहीं है कि निर्भया कांड के बाद बने कानून का कोई अच्छा असर हुआ है या नहीं ।

देखने में आ रहा है कि इस कानून का अच्छा असर हुआ है या नहीं लेकिन बुरा असर जरूर हुआ है । कुछ महीने पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने सूरज प्रकाश नाम के एक व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर खारिज कर दी और कहा कि जिस प्रावधान के तहत एफआईआर दर्ज की गई है, वह महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों में से एक है । अदालत का कहना था कि पुरुषों को अनावश्यक रुप से परेशान करने के लिए यह एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है । एक ऐसे ही मामले में अदालत ने पाया कि एक 30 साल की महिला ने एक 20 साल के युवा पर यौन-शोषण का आरोप लगाया है जबकि वो उसके साथ पिछले चार सालों से लगातार संबंध बना रही थी । रिश्ता बिगड़ने पर उसने युवक पर दुष्कर्म करने का आरोप लगा दिया और उसके माता-पिता को भी सहआरोपी बना दिया । अदालत को युवक के माता-पिता को आरोपी बनाने पर महिला द्वारा लगाए गए आरोपों की सच्चाई पर शक हो गया । अदालत ने यह कहकर मामला खारिज कर दिया कि कोई युवा एक 30 साल की महिला का चार साल तक यौन शोषण कैसे कर सकता है ।

ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई है जिसमें महिलाएं अपने पुरुष साथी पर शादी का झूठा वादा करके यौन शोषण का आरोप लगा देती हैं और पुरुष वर्षों तक जेल में सड़ता रहता है । मामला झूठा साबित होने में भी कई साल लग जाते हैं और पुरुष तब तक जेल में सड़ता रहता है । वास्तव में आज पुलिस और अदालत इस कानून के दुरुपयोग से अच्छी तरह से परिचित हैं, इसलिए पुरुषों की बात भी सुनी जाने लगी है । समस्या यह है कि पुरुषों को निचली अदालतों से राहत नहीं मिल रही है । ज्यादातर  मामलों में पुरूषों को राहत उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जाकर ही मिलती है । इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट कई बार सवाल खड़े कर चुका है लेकिन निचली अदालतों पर ज्यादा असर नहीं हो रहा है ।

महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की दृष्टि से देखा जाए तो दुष्कर्म बेहद पीड़ादायक होता है और इससे महिलाओं का उबर पाना सहज नहीं होता है । यह न केवल शारीरिक पीड़ा देकर जाता है बल्कि जीवन भर के लिए मानसिक पीड़ा में तड़पने के लिए महिला को छोड़ जाता है । यही कारण है कि पुलिस-प्रशासन और अदालत ऐसे मामलों को बेहद गंभीरता से लेते हैं । जब कोई महिला किसी पुरुष पर दुष्कर्म का आरोप लगाती है तो उसके बयान को ही अंतिम सत्य मान लिया जाता है । देखा जाए तो दुष्कर्म के मामलों में पुलिस-प्रशासन और अदालतें पुरुषों के प्रति एक पूर्वाग्रह से भरी  रहती है कि दुष्कर्म का आरोप लगा है तो पुरुष  ही दोषी होगा । इसके कारण पुलिस और अदालतें पुरूषों के प्रति संवेदनहीन हो जाती हैं और सही तरीके से जांच भी नहीं होती है । पुलिस पर जल्दी से जल्दी आरोपपत्र दाखिल करने का दबाव होता है ताकि पुरुष को सजा सुनाई जा सके । अगर ऐसा मामला किसी गरीब व्यक्ति के खिलाफ दर्ज हो जाए तो उसकी सारी उम्र जेल  में बीत सकती है क्योंकि वो अपने लिए कोई अच्छा वकील भी नहीं कर सकता । सच यह है कि अगर किसी महिला के साथ दुष्कर्म होना बेहद  पीड़ादायक है तो किसी पुरुष के ऊपर झूठा दुष्कर्म का आरोप लगना उससे भी ज्यादा पीड़ादायक है । अगर दुष्कर्म महिला को शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाता है तो पुरुष को दुष्कर्म का झूठा केस उससे भी ज्यादा पीड़ा पहुंचाता है । 

                समस्या यह है कि पुरुष को झूठे मामले में भी निर्दोष साबित होने तक चार-पांच साल या इससे भी ज्यादा जेल में गुजारने पड़ते हैं और जेल से छूटने के बाद भी समाज उसको निर्दोष नहीं मानता  ।  पिछले कुछ वर्षों से शादी का झूठा वादा करके दुष्कर्म करने के आरोपों की बाढ़ आ गई हैं । ऐसे ज्यादातर मामलों में पीड़िता और आरोपी लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे होते हैं । जब किसी कारणवश शादी नहीं हो पाती है तो लड़कियां अपने प्रेमी पर शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाने के आरोप लगा देती है । कई मामलों में तो देखा जा रहा है कि लड़का-लड़की कई वर्षों तक साथ रहते हैं और जब उनका रिश्ता किसी कारणवश टूट जाता है तो लड़की बदला लेने के लिए लड़के पर शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाने का आरोप लगा देती है । कई मामलों में पुरूष विवाहित होता है तो कई बार दोनों विवाहित होते हैं. इसके बावजूद शादी के नाम पर दुष्कर्म का मामला दर्ज करवा दिया जाता है ।  शादी के वादे पर किसी के साथ संबंध बनाना दुष्कर्म कैसे हो सकता है लेकिन कानून इस मामले में महिलाओं के साथ है । अगर संबंध सहमति से बन रहे हैं तो फिर दुष्कर्म का केस क्यों दर्ज किया जाता है ।

 दुष्कर्म सिर्फ जबरन बनाए गए संबंधों को ही माना जाना चाहिए लेकिन कानून की परिभाषा अलग है । ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें महिला शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाती है तो उसके खिलाफ केस दर्ज किया जा सके । भारतीय संस्कृति शादी के बाद ही संबंध बनाने की बात करती है. अगर शादी के वादे पर संबंध बनाए जा रहे हैं तो दोनों ही बराबर के दोषी हैं । अब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों पर संज्ञान लेते हुए कहा है कि शादी के झूठे वादे पर संबंध बनाना,  दुष्कर्म तब ही माना जाएगा जब संबंध बनाने से पहले ही पुरुष की मंशा  शादी करने की न हो । अदालत  का कहना है कि हो सकता है कि  पुरुष शादी करना चाहता हो लेकिन कुछ समय बाद परिस्थितियां बदल  गई हों और वो शादी न कर पा रहा हो । अगर उसने कुटिलता से महिला को अपने प्रेम जाल में फंसाकर उसका यौन शोषण किया हो तो ऐसे मामलों में ही दुष्कर्म का केस दर्ज किया जाएगा । जिस मामले में यह दिखाई दे रहा हो कि पुरुष की मंशा तो शादी करने की थी लेकिन वो परिस्थितियों के कारण अपना वादा पूरा नहीं कर पा रहा है, उस मामले में पुरूष के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जाएगा । 

                दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर दो वयस्क  (चाहे उनमें से एक शादीशुदा ही क्यों न हो) आपसी सहमति से साथ रहते हैं या संबंध बनाते हैं तो उन्हें उसके परिणाम की जिम्मेदारी भी स्वीकारनी होगी । रिश्ता खराब होने के बाद उसे दुष्कर्म जैसे अपराध में बदलना ठीक नहीं है । अदालत ने नोट किया कि महिला शुरू से ही आरोपित की शादीशुदा स्थिति से वाकिफ थी, फिर भी दो वर्षों तक संबंध रखा । अदालत का कहना था कि किसी के शादीशुदा होने के बावजूद जब एक शिक्षित महिला अपनी मर्जी से किसी के साथ संबंध बनाती है तो उसे यह भी समझना चाहिए कि रिश्ता हमेशा विवाह में नहीं बदलता, कभी-कभी टूट भी सकता है । ऐसे मामलों में कानून का सहारा नहीं लेना चाहिए । वास्तव में महिलाएं बदला लेने के लिए दुष्कर्म के कानून का इस्तेमाल कर रही हैं ।

सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में सतर्कता बरतने के लिए चार कदम उठाने के निर्देश दिए हैं । हाई कोर्ट के सामने जब ऐसा मामला आएगा तो उसे आरोपी से उसकी बेगुनाही के सबूत मांगने होंगे । सबसे पहले यह देखना होगा कि आरोपी द्वारा पेश किए गये सबूत, गवाह और तर्क विश्वसनीय  और अच्छी गुणवत्ता के हैं । दूसरे कदम में हाई कोर्ट को देखना होगा कि इसके आधार पर आरोपी निर्दोष साबित होता है । तीसरे कदम में हाई कोर्ट को देखना होगा कि महिला उन सबूतों को नकारती है या नहीं । चौथे कदम के रूप में हाई कोर्ट को यह देखना होगा कि अगर मामला आगे बढ़ता है तो आरोपी निर्दोष साबित हो सकता है । अगर चारों कदम उठाने के बाद हाई कोर्ट को सकारात्मक जवाब मिलता है तो हाई कोर्ट अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मामले को खारिज कर सकता है । इससे न केवल एक निर्दोष व्यक्ति बेवजह जेल जाने से बच जाएगा बल्कि पुलिस और अदालत का वक्त भी  बर्बाद नहीं होगा ।

 मेरा मानना है कि यह काफी नहीं है । इस तरह के मामलों पर तब ही लगाम लगाई जा सकती है जब झूठे केस दर्ज करवाने वाली महिलाओं को भी सजा मिले । एक मामले में अदालत ने झूठा केस दर्ज करवाने के बदले में महिला को चार साल के लिए जेल भेज दिया था क्योंकि आरोपी को चार साल तक जेल में रहना पड़ा था । अगर अदालतें झूठे मामले दर्ज करवाने पर सजा देने लग जाएं तो ऐसे मामले आने बंद  हो जायेंगे । मेरा मानना है कि इस कानून में सुधार की बहुत जरूरत है । पुरूषों के खिलाफ कार्यवाही सिर्फ  महिला की शिकायत के आधार पर नहीं होनी चाहिए ।

राजेश कुमार पासी

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