कविता

भगवान की तलास में इंसान

ढूंढ रहा है जंगल जंगल,मृग अपनी कस्तूरी को।
देख पाया न अपनी नाभि,छिपी हुई कस्तूरी को।।

ढूंढ रहा है मंदिर मंदिर,भक्त अपने भगवान को।
मिल न पाया भगवान उसे इस भोले इंसान को।।

बढ़ चुका है विज्ञान काफी,पाया न भगवान को।
सारी सृष्टि में समाया ,फिर भी ढूंढे भगवान को।।

खुद से दूर चला गया इंसान,क्या ढूंढेगा भगवान को।
पहले खुद को तुम ढूंढो,फिर ढूंढना उस भगवान को।।

हर जगह ढूंढ लिया उसे,कही मिला न भगवान है।
मत ढूंढ बंदे तू उसे वह तो कण कण में विद्यमान है।।

न रखा कुछ तीर्थो में,न रखा कुछ चारो धामों में।
कर्म की पूजा करता रह,व्यस्त रख सुकामों में।।

भीतर शून्य है बाहर शून्य है शून्य चारो और है।
मुझ में नही तुझ में नही,फिर भी मैं का शोर है।।

आर के रस्तोगी