सरकारी नौकरी के लिए वैवाहिक रिश्ते दांव पर


अमरपाल सिंह वर्मा


हमारा समाज रिश्तों और विश्वास की नींव पर खड़ा है। हम विवाह को एक संस्था और वैवाहिक बंधन को सात जन्मों का बंधन मानते हैं लेकिन अब विवाह का यह बंधन लालच की सीढ़ी बन रहा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी नौकरी पाने के लिए लोग कागजों पर शादी और कागजों पर तलाक का खेल खेल रहे हैं। कभी सामाजिक असुरक्षा और दर्द के प्रतीक माने जाने वाले तलाक को अब नौकरी पाने का साधन बना दिया गया है। यह प्रवृत्ति सिर्क कानून का उल्लंघन नहीं बल्कि समाज के चरमराते ढांचे का भी संकेत है।


पहले नौकरी के लिए फर्जी खेल और दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाने के मामले सामने आते थे मगर हैरानी की बात है कि राजस्थान में नौकरी पाने के लिए तलाक तक ले लिया जाता है।  जिस रिश्ते को हम सात जन्मों का बंधन मानते आए हैं, उसे लोग आज दो फीसदी आरक्षण पाने की सीढ़ी बना रहे हैं।


राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड के पास इस आशय की दो दर्जन से ज्यादा शिकायतें पहुंच चुकी हैं। दरअसल, तलाकशुदा महिला कोटे में उम्मीदवारों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं होती जिससे प्रतिस्पर्धा कम रहती है और कटऑफ भी अन्य श्रेणियों की तुलना में काफी नीचे आ जाती है। इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए कुछ महिलाओं ने केवल कागजों पर शादी और तलाक का खेल रच लिया है। कुछ मामलों में दलालों की मदद से भर्ती निकलने से दो-तीन साल पहले जल्दबाजी में शादी कर ली गई, फिर कागजों पर तलाक लिया गया और नौकरी के लिए आवेदन कर दिया गया। दूसरी तरफ कई विवाहित महिलाओं ने सरकारी नौकरी की लालसा में कोर्ट से तलाक की डिक्री हासिल कर ली लेकिन जैसे ही नौकरी लगी, वे फिर अपने पति के साथ रहने लगीं। इन दोनों ही स्थितियों में कागजों पर वे तलाकशुदा हैं लेकिन हकीकत में उनकी जिंदगी वैवाहिक ही रही है। यह सब कुछ कागजों में तो कानूनी है, मगर असलियत में धोखा है।
शिकायतें मिलने के बाद कर्मचारी चयन बोर्ड ने पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप को जांच के लिए कहा है। जांच के बाद संभव है कि नौकरियां छिन जाए, मुकदमे भी हों लेकिन बड़ा सवाल यह है कि हमारी सोच कब बदलेगी?


इस मामले में वास्तविक चिंता सामाजिक मूल्यों में गिरावट की है। क्या नौकरी का लालच इतना बड़ा हो गया है कि लोग रिश्तों को ही खिलौना बनाकर खेलने लगे हैं? विवाह समाज की मजबूत व्यवस्था है। यह परिवार की बुनियाद और विश्वास का प्रतीक है लेकिन जब लोग इसे नौकरी पाने का शॉर्टकट बनाने लगें तो हमारी सामाजिक सोच पर प्रश्न उठाने स्वाभाविक हैं।
इस तरह से नौकरी हासिल कर फर्जीवाड़ा तो किया ही गया है, साथ ही पात्र महिलाओं का हक भी छीन लिया गया है। तलाकशुदा महिलाओं के लिए 2 फीसदी आरक्षण इसलिए रखा गया है ताकि जो पति से तलाक होने के बाद बेसहारा हो गई हैं, उन्हें नौकरी के जरिये जीवन-यापन में थोड़ी आसानी हो सके। ऐसे मामलों के कारण सबसे ज्यादा नुकसान उन असली तलाकशुदा महिलाओं का हुआ है, जिनके लिए यह तलाकशुदा कोटा बनाया गया था। जो महिलाएं सचमुच संघर्ष कर रही हैं, उन्हें मौका ही नहीं मिल पा रहा क्योंकि कतार में आगे तो वे लोग आ गए हैं जिन्होंने रिश्तों को कागजों पर बेच डाला है।

  
 यह मामला बेहद गंभीर है। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए एहतियात उपाय करने बहुत जरूरी हैं। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दस्तावेजों से आगे जाकर जांच की व्यवस्था हो। केवल तलाक की डिक्री को पर्याप्त न माना जाए बल्कि आवेदक महिलाओं का सामाजिक स्तर पर सत्यापन, निवास संबंधी प्रमाण और बैंक लेन-देन जैसे साक्ष्यों के आधार पर यह देखा जाना चाहिए कि वह महिला वास्तव में अकेली रह रही है या नहीं। दोषी पाए जाने पर नौकरी छीनने के साथ-साथ आर्थिक दंड और कड़ी सजा का भी प्रावधान किया जाना चाहिए।
यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर समाज को भी आत्म मंथन करना चाहिए। बड़ा सवाल है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं, जहां सरकारी नौकरी की लालसा रिश्तों और संस्कारों से भी बड़ी हो गई है? फर्जी सर्टिफिकेट और फर्जी तलाक के मामले हमें चेता रहे हैं। अगर हम अब भी नहीं चेते और समय रहते अंकुश नहीं लगाया तो आने वाली पीढिय़ां रिश्तों और मूल्यों पर भरोसा करना छोड़ देंगी। यह सही है कि सरकारी नौकरी जीवन की स्थिरता देती है लेकिन समाज का विश्वास और रिश्तों की गरिमा इससे भी जरूरी है।

 अमरपाल सिंह वर्मा

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