केंद्रीय ट्रेड यूनियंस व उनके सहयोगी संगठनों द्वारा आहूत ‘भारत बंद’ के मायने

कमलेश पांडेय

देश भर की 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और उनके सहयोगी संगठनों ने भाजपा नीत राजग के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की कथित ‘मजदूर विरोधी, किसान विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक’ नीतियों के खिलाफ 9 जुलाई दिन बुद्धवार को जो देशव्यापी हड़ताल बुलाई थी और स्पष्ट रूप से भारत बंद का जो ऐलान किया था, वह एक हद तक विफल भी रहा। इसलिए उसके सियासी मायने स्पष्ट हैं क्योंकि विपक्षी दलों के किसान-मजदूर-कामगार संगठनों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया लेकिन उन्हें जनसमर्थन नहीं मिला। लिहाजा, अपनी छिटपुट सफलता के बावजूद यह भारत बंद कामगारों के हित में कितना अनुकूल रहेगा और लाभदायक साबित होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

कहना न होगा कि इससे पहले भी साल 2020, 2022 और 2024 में भी भारत की सड़कों पर ये ट्रेड यूनियंस उतर चुकी हैं लेकिन अभी तक मनोनुकूल परिणाम नहीं मिल पाया है। लगता भी नहीं कि मोदी सरकार इन्हें तवज्जो देगी। यही वजह है कि साल 2025 में एक फिर से इन्होंने जोर आजमाइश की कोशिश की है। ट्रेड यूनियन से जुड़े लोगों ने बताया कि यह पहली बार नहीं है जब इतने बड़े पैमाने पर आंदोलन किया जा रहा है बल्कि इससे पहले भी ट्रेड यूनियनों ने 26 नवंबर 2020, 28-29 मार्च 2022 और पिछले साल 16 फरवरी 2024 को इसी तरह की देशव्यापी हड़ताल की थी जिसमें लाखों कर्मचारी सड़कों पर उतरे थे और श्रम समर्थक नीतियों और विवादास्पद आर्थिक सुधारों को वापस लेने की मांगें उठाईं थी लेकिन केंद्र सरकार हमेशा इनकी अनदेखी करती आई है।

बताया जाता है कि इस आंदोलन से बैंकिंग, डाक सेवाएं, कोयला खनन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और सरकारी कामकाज भी प्रभावित हुए हैं। कहीं ट्रेनें लेट होने, और कहीं बिजली आपूर्ति में रुकावटें भी आई हैं। फिर भी सरकार की कानों पर जूं रेंगती हुई नहीं प्रतीत हुई क्योंकि वह 1990 के दशक से ही देश में लागू नई आर्थिक नीतियों के मुताबिक कानून बनाने और उसे अमल में लाने के लिए प्रतिबद्ध है ताकि देश में विदेशी निवेश बढ़े और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों-राष्ट्रीय कम्पनियों को कामकाज में सुविधा और सस्ते श्रमिक मिल सकें।

ऐसे में सरकार की मंशा तो स्पष्ट लगती है लेकिन सीधा सवाल है कि तब केंद्रीय ट्रेड यूनियनें और उनके आनुषंगिक संगठन क्या चाहते हैं? आखिर लेबर कोड पर क्या दिक्कतें और क्या डिमांड्स हैं? बताया जाता है कि ट्रेड यूनियन को चार लेबर कोड पर सबसे ज्यादा आपत्ति है। यूनियंस कहती हैं कि नए लेबर कोड हड़ताल के अधिकार को कमजोर करते हैं। ये काम के घंटे बढ़ाते हैं। नियोक्ताओं को सजा से बचाते हैं। ट्रेड यूनियनों की शक्ति छीनते हैं। इसलिए कर्मचारियों के हक छीनने वाले चारों लेबर कोड खत्म किए जाएं। दरअसल, यूनियंस का कहना है कि चार नए लेबर कोड लागू करने से यूनियंस कमजोर होंगी और काम के घंटे बढ़ेंगे? क्या सरकार संविदा नौकरियों और निजीकरण को बढ़ावा दे रही है? क्या पब्लिक सेक्टर में ज्यादा भर्ती और सैलरी बढ़ोतरी की मांगों को नजरअंदाज किया जा रहा है? क्या युवा बेरोजगारी से निपटे बिना ही कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने की पेशकश की जा रही है?

ट्रेड यूनियनों ने बिजली कंपनियों के निजीकरण के मुद्दे को भी गरमा दिया है। उन का आरोप है कि बिजली वितरण और उत्पादन को निजी हाथों में देने से नौकरियों की सुरक्षा, वेतन और स्थायित्व खत्म हो जाएगा जिसका सीधा असर कर्मचारियों और उपभोक्ताओं दोनों पर पड़ेगा। वहीं, प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा भी गर्माया हुआ है। खासकर श्रमिक उत्पादक राज्य बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण को लेकर आरोप है कि प्रवासी मजदूरों के मताधिकार को सीमित किया जा रहा है, जिससे उनका राजनीतिक हक छीना जा रहा है।

अब तो यूनियनें कह रही हैं कि सरकार की नीतियां मजदूरों को कमजोर कर रही हैं। किसानों को हाशिए पर डाल रही हैं और कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचा रही हैं। सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में कटौती, मजदूरी में गिरावट और रोजगार संकट ने हालात बदतर कर दिए हैं। वहीं, बेरोजगारी और महंगाई पर भी बड़ी चिंता जताई जा रही है। सरकार पर नई भर्तियों को रोकने, रिटायर्ड लोगों की दोबारा तैनाती और युवाओं को रोजगार न देने के आरोप हैं। साथ ही जरूरी वस्तुओं की कीमतें और सामाजिक असमानता बढ़ी है। लिहाजा, यूनियनें न्यूनतम वेतन ₹26,000 मासिक तय करने और पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग कर रही हैं। साथ ही एमएसपी की कानूनी गारंटी और कर्जमाफी भी इनके प्रमुख मुद्दे हैं।

वहीं, इन यूनियनों की मांग है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती शुरू हो और निजीकरण, आउटसोर्सिंग और ठेकाकरण पर रोक लगे। इसके अलावा, मजदूर विरोधी और मजदूर संगठन विरोधी चारों लेबर कोड रद्द हों। मनरेगा की मजदूरी और दिन बढ़ें। शहरी बेरोजगारों के लिए योजना बने। शिक्षा, स्वास्थ्य और राशन पर खर्च बढ़े। साथ ही न्यूनतम वेतन और पेंशन पर भी जोर दिया जा रहा है। जबकि

यूनियन के पदाधिकारियों ने दो टूक शब्दों में बताया है कि किसान और ग्रामीण मजदूर भी इस बार देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए, क्योंकि केंद्र सरकार ने हमारी 17 सूत्री मांगों को नजरअंदाज किया है। 

हैरत की बात तो यह भी है कि पिछले 10 सालों में वार्षिक मजदूर सम्मेलन भी नहीं बुलाया है। इतना ही नहीं, सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग कर जन आंदोलनों को अपराधी घोषित कर दिया है, जैसे महाराष्ट्र में पब्लिक सिक्योरिटी बिल और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में भी इसी तरह के कानून से पाबंदी लगाई जा रही है। कहीं कहीं पर सरकार ने नागरिकों से नागरिकता छीनने की भी कोशिश की है। यही वजह है कि 17 सूत्रीय मांगें लेकर देशभर में हड़ताल की गई। इस विरोध प्रदर्शन में लगभग 25 करोड़ श्रमिक भारत बंद में हिस्सा लिए।

बता दें कि हड़ताली ट्रेड यूनियंस में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र, हिंद मजदूर सभा, अखिल भारतीय संयुक्त ट्रेड यूनियन केंद्र, ट्रेड यूनियन कोऑर्डिनेशन केंद्र, स्व-रोजगार महिला एसोसिएशन, अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियन परिषद, लेबर प्रोग्रेसिव फेडरेशन, यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस जैसे संगठन शामिल हैं। इन्होंने ही इस बंद का नेतृत्व किया है। इनके साथ संयुक्त किसान मोर्चा और ग्रामीण श्रमिक संगठन भी खड़े हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि केंद्र सरकार यदि इनकी 17 सूत्री मांगें दरकिनार करती है तो आने वाले वर्षों में सरकार और ट्रेड यूनियंस आमने-सामने होंगे। किसान-मजदूर-कामगार संगठन अपने अपने तरीके से दबाव बनाएंगे, जिससे आमचुनाव 2029 से पहले सरकार झुक भी सकती है। ऐसा इसलिए कि विपक्षी गठबंधन इंडी गठबंधन से इन संगठनों का महत्वपूर्ण रिश्ता है जो केंद्र सरकार को परेशानी में डालने के लिए चरणबद्ध आंदोलन चलाते रहते हैं। जो आगे भी जारी रहेंगे, ब्रेक के बाद, ऐसे आसार प्रबल हैं।

कमलेश पांडेय

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