कविता साहित्‍य

मानसिक पतन

mental

उपहास और उलाहना समाज में साथ दौड़ते रहते हैं,
जैसे कोई पतंगा भोजन की तलाश में भागता है।

एक चौराहे के मानिंद मानता है समग्र शक्ति को,
जहाँ कल्पित जिंदगी का नाम गुजर भर जाना है।

शहर की भाषा में आधी आबादी एक गहरा तंज है,
आदमी स्त्री को गहरे चिंतन में भी शक से देखता है।

इस शहर की मानसिक आत्मा को क्या हो गया है,
हर रंग में स्त्री को केवल उलाहना से ही नवाजता है।

हर लिबास में नारी उसे प्रेयसी ही क्यूँ नजर आती है?
शायद माँ का आँचल उसके मानस से उतर गया है।

शायद सभ्यताओं का यह शहर अब खोखला हो गया है,
दृष्टा में वाद -संवाद की भाषा भी कामुक-सी हो गई है।

दैहिक लाश को ही जीवन का अर्थ मानने वाला शहर,
चकाचोंध में तम का व्याकरण भी विचलित है ‘अवि’,

भाषा के आवरण में भी शहर के संस्कार मर चुके हैं,
तभी तो नारी दिवालिये शहर में शोषण से पोषित है।