जरूरी दवाओं को सरकारी मूल्य से ज्यादा पर बिक्री


संजय स्वदेश
कोई बीमारी जब जानलेवा हो जाती है तो लोग इलाज के लिए क्या कुछ नहीं दांव पर लगा देते हैं। क्या अमीर क्या गरीब। ऐसे हालात में वे मोलभाव नहीं करते हैं। इस नाजुक स्थिति को भुनाने में दवा उत्पादक कंपनियों ने मोटी कमाई का बेहतरीन अवसर समझ लिया है। सरकारी नियमों को खुलेआम धत्ता बता कर दवा कंपनियां जरूरी दवाइयों की मनमानी कीमत वसूल रही हैं। कंपनियों की इस मनमानी पर सरकार की नकेल नाकाम है। दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने अपने हालिया रिपोर्ट में कहा है कि सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैब्स और रैनबैक्सी जैसी प्रमुख बड़ी दवा कंपनियों ने ग्राहकों से तय मूल्य से ज्यादा में दवाएं बेचीं। रिपोर्ट के अनुसार बेहतरीन उत्पादकों की सूची में शामिल इन कंपनियों ने कई जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले विभिन्न राज्यों उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। इनमें से कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। ऐसे मामलों में कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं। तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। जनता की जेब कटती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है।
सरकार एनपीपीए के माध्यम से ही देश में दवाओं का मूल्य निर्धारित करती है। वर्तमान समय में एनपीपीए ने 74 आवश्यक दवाओं के मूल्य निर्धारित कर रखा है। नियम है कि जब दवा की कीमत में बदलाव करना हो तो कंपनियों को एनपीपीए से संपर्क जरूरी है। लेकिन देखा गया है कि कई बार कंपनियां औपचारिक रूप से आवेदन तो करती हंै पर दवा का मूल्य मनमाने ढंग से बढ़ा देती हैं। निर्धारित मूल्यों की सूचीबद्ध दवाओं से बाहर की दवाओं के कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए भी एनपीपीए से मंजूरी अनिवार्य है। इसमें एनपीए अधिकतम दस प्रतिशत सालाना वृद्धि की ही मंजूरी देता है। लेकिन अनेक दवा कंपनियों ने मनमाने तरीके से दाम बढ़ाये हैं।
दवा कंपनियों के इस मुनाफे की मलाई में दवा विक्रेताओं को भी अच्छा खासा लाभ मिलता है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की एक रिपोर्ट ने इस बात का खुलासा किया कि दवा कंपनियां केवल अधिक कीमत वसूल की ही अपनी जेब नहीं भरती है, बल्कि वे सरकारी कर बचाने एवं अपने ज्यादा उत्पाद को खापने के लिए खुदरा और थोक दवा विक्रेताओं को भी मुनाफे का खूब अवसर उपलब्ध कराती हैं। जिसके बारे में आम जनता के साथ-साथ सरकार भी बेखबर है। कंपनियां दवा विक्रेताओं को दवाओं का बोनस देती है। मतलब एक केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग एक स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को कर नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां दवा विक्रेताओं को अच्छा खासा मुनाफा कमाने का मौका दे देती है। वे निष्ठा से उसके उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचने की कोशिश करते हैं। दवा विक्रेताओं ने अपना संघ बना रखा है। ये अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से कम पर दवा नहीं बेचते हैं। ग्राहक की दयनीयता से इनका दिल भी नहीं पसीजता है। दवा कंपनियां के इस खेल का एक बनागी ऐसे समझिए। मैन काइंड कंपनी की निर्मित अनवांटेड किट भी स्त्रीरोग में उपयोग लाया जाता है। इसकी एमआरपी 499 रुपए प्रति किट है। खुदरा विक्रेता को यह थोक रेट में 384.20 रुपए में उपलब्ध होता है। लेकिन कंपनी खुदरा विक्रेताओं को एक किट के रेट में ही 6 किट बिना कीमत लिए मतलब नि:शुल्क देती है। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से खुदरा विक्रेता को यह एक किट 54.80 रुपए का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर खुदरा विक्रेता को 444 रुपये यानी 907.27 प्रतिशत का मुनाफा होता है। हालांकि कुछ विवादों के चलते कुछ प्रदेशों में यह दवा अभी खुलेआम नहीं बिक रही है।
मर्ज मिटाने की दवा में मोटी कमाई के खेल को समझने के लिए और और उदाहरण सुनिए।  सिप्रोफ्लाक्सासिन 500 एम.जी और टिनिडाजोल 600 एम.जी नमक से निर्मित दवा है। जिसे सिपला, सिपलॉक्स टी जेड के नाम से बेचती है। लूज मोसन (दस्त) में यह बहुत की कारगर दवा है। सरकार ने जिन 74 दवाइयों को मूल्य नियंत्रण श्रेणी में रखा है। इस दवा की सरकार द्वार तय बिक्री मूल्य 25.70 पैसा प्रति 10 टैबलेट बताई गई है। मगर देश की सबसे बड़ी कंपनी का दावा करने वाली सिपला इस दवा को पूरे देश में 100 रुपए से ज्यादा में बेच रही हैं। यानी हर 10 टैबलेट वह 75-80 रुपए ज्यादा वसूल कर रही है।
मजबूत अधिकार और मानव संसाधानों की कमी के कारण ही दवाओं के मूल्य निर्धारण करने के लिए ही बनी एनपीपीए बिना दांत का शेर साबित हो रहा है। जनता में इस बात को लेकर किसी तरह का जागरूकता नहीं होने से इसकी खिलाफत नहीं होती है। चूंकि मामला जान से जुड़ा होता है, इसलिए हर कीमत पर दवा लेकर लोग जान बचाने की ही सोचते हैं। ऐसी विषम स्थिति में भला कोई दवा विक्रेता से मोल भाव क्यों करे? नियम तो यह है कि केमिस्ट दुकानों में दवा के मूल्य सूची प्रर्दशित होना जरूरी है। लेकिन किसी भी दवा दुकान में झांक लें, इस नियम का पालन नहीं दिखेगा। जो दवा मिलेगी उसपर कोई मोलभाव नहीं। खरीदने की छमता नहीं तो कही भी गुहार पर तत्काल राहत की कोई गुंजाइश नहीं। नियम की दृढ़ता से लागू हो इसके लिए सरकार के पास पर्याप्त निरीक्षक भी नहीं है। जनता गुहार भी लगाना चाहे तो कहां जाए? सीधे एनपपीपीए में लिखित शिकायत की जा सकती है, लेकिन यह प्रक्रिया लंबी है। जनता को तो दवा खरीदते वक्त तत्काल राहत चाहिए। हर किसी को दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के बारे में जानकारी भी नहीं है। जिन्हें जानकारी हैं, वे शिकायत भी नहीं करते हैं।

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संजय स्‍वदेश
बिहार के गोपालगंज में हथुआ के मूल निवासी। किरोड़ीमल कॉलेज से स्नातकोत्तर। केंद्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केंद्र से पत्रकारिता एवं अनुवाद में डिप्लोमा। अध्ययन काल से ही स्वतंत्र लेखन के साथ कैरियर की शुरूआत। आकाशवाणी के रिसर्च केंद्र में स्वतंत्र कार्य। अमर उजाला में प्रशिक्षु पत्रकार। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक महामेधा से नौकरी। सहारा समय, हिन्दुस्तान, नवभारत टाईम्स के साथ कार्यअनुभव। 2006 में दैनिक भास्कर नागपुर से जुड़े। इन दिनों नागपुर से सच भी और साहस के साथ एक आंदोलन, बौद्धिक आजादी का दावा करने वाले सामाचार पत्र दैनिक १८५७ के मुख्य संवाददाता की भूमिका निभाने के साथ स्थानीय जनअभियानों से जुड़ाव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ लेखन कार्य।

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