डॉ घनश्याम बादल
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना एक्ट यानी ‘मनरेगा’ का नाम बदलकर ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण यानी संक्षेप में ‘जी राम जी’ कर देने के साथ ही एक बार फिर से विभिन्न योजनाओं के नाम बदलने से खड़ा होने वाला विवाद सुर्खियों में है । जहां सत्ता पक्ष इसे ज़रूरी बता रहा है वहीं विपक्ष इतिहास को पुनर्परिभाषित करने का षड्यंत्र तो कह ही रहा है, साथ ही साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी उपेक्षित करने का आरोप सत्ता पक्ष पर लगा रहा है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सरकारें आती-जाती रहती हैं किंतु शासन की निरंतरता योजनाओं के माध्यम से बनी रहती है। कहने के लिए तो इन योजनाओं का उद्देश्य आम नागरिक के जीवन में ठोस बदलाव लाना होता है परंतु पिछले दो दशकों में नई सरकारों द्वारा पुरानी सरकारों के द्वारा चलाई जा रही योजनाओं के नाम बदलकर उसका राजनीतिक श्रेय लेने का ‘खेल’ भी लगातार देखने में आ रहा है ।
ऐसा नहीं है कि यह ‘खेल’ केवल वर्तमान सरकार तक सीमित हो बल्कि यह भी एक तथ्य और सत्य है कि इससे पूर्व की सरकारें भी ऐसा करती रही हैं और जिस तरह के आरोप अब विपक्ष लगा रहा है. पहले भी वर्तमान सरकार के दल जब विपक्ष में थी, वें भी ऐसे ही आरोप लगाया करते थे मगर सत्ता में आने के बाद वे स्वयं इसी प्रवृत्ति एवं रास्ते पर चलते दिखाई दे रहे हैं।
प्रश्न यह नहीं है कि नाम बदले गए या नहीं बल्कि यह है कि क्या नाम परिवर्तन के साथ नीति, क्रियान्वयन और परिणाम भी बदले?
यदि पलटकर देखें तो नाम बदलने की शुरुआत आज की सरकार से ही नहीं हुई है अपितु 2004 के बाद यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी ऐसा खूब हुआ। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ‘ नरेगा’ का नाम बदलकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ‘मनरेगा’ किया गया। इसी प्रकार कई योजनाओं को तत्कालीन नेताओं या ऐतिहासिक व्यक्तित्वों से जोड़ा गया। उस समय यह तर्क दिया गया कि इससे योजनाओं को नैतिक प्रेरणा और पहचान मिलेगी।
वर्तमान सरकार के कार्यकाल में यह प्रवृत्ति कहीं अधिक व्यापक दिखाई देती है। इंदिरा आवास योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना को आयुष्मान भारत, निर्मल भारत अभियान को स्वच्छ भारत मिशन, जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन को अमृत योजना और मध्याह्न भोजन योजना को प्रधानमंत्री पोषण योजना में बदला गया। स्पष्ट है कि नाम परिवर्तन करना सत्ता परिवर्तन के साथ एक राजनीतिक श्रेय लेने एवं दूसरी सरकारों को उनके श्रेय से वंचित करने की प्रवृत्ति बन चुकी है और इस प्रवृत्ति के कीमत चुकानी पड़ती है देश को ।
इस संदर्भ में वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत स्पष्ट है। अधिकांश योजनाओं के नाम में “प्रधानमंत्री” या “मिशन” शब्द जोड़ा गया। सरकार का तर्क है कि इससे योजनाओं को राष्ट्रीय पहचान मिलती है, जवाबदेही बढ़ती है और लाभार्थियों को यह स्पष्ट होता है कि योजना केंद्र सरकार की है। सरकार कहती है कि नाम परिवर्तन केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि इन योजनाओं को अधिक व्यापक एवं लोक कल्याणकारी तथा समझने में आसान बनाना है। उदाहरण के लिए, आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत स्वास्थ्य बीमा की राशि को पहले की तुलना में बढ़ाया गया। पहले इस योजना के अंतर्गत केवल 30 से 40 हजार रुपए तक की सहायता मिल पाती थी जबकि अब यह सहायता ₹5 लाख तक बढ़ा दी गई है। प्रधानमंत्री आवास योजना में लक्ष्य और समय सीमा को स्पष्ट किया गया है । स्वच्छ भारत मिशन को केवल शौचालय निर्माण तक सीमित न रखकर व्यवहार परिवर्तन अभियान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
नाम परिवर्तन के संदर्भ में पूर्ववर्ती सरकारों का दृष्टिकोण योजनाओं को प्रायः नेताओं के नाम से जोड़कर एक वैचारिक संदेश देने का प्रयास होता था । इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे नामों के साथ योजनाएँ जोड़ना उस राजनीतिक धारा को मजबूत करता था जो स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद की नीतियों को अपनी वैधता का आधार मानती थी। हालांकि वर्तमान सरकार ने भी कई योजनाओं के नाम दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेई के नाम पर किए हैं, यानी जब जैसा सुविधाजनक लगे, राजनीतिक दल सरकार में आकर वैसा ही करने लगते हैं और यह प्रवृत्ति बहुत पहले से चली आ रही है।
पहले भी आलोचनाएँ हुईं कि योजनाओं के नाम में व्यक्तियों का अत्यधिक उपयोग योजनाओं को राजनीतिक रंग देता है। अंतर केवल इतना है कि तब आलोचना अपेक्षाकृत सीमित थी जबकि आज मल्टीमीडिया, इलेक्ट्रॉनिक एवं सोशल मीडिया की उपस्थिति व सक्रियता की वज़ह से यह एक बड़े राजनीतिक विमर्श का विषय बन रही है।
विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यह है कि नाम बदलने से ज़मीन पर हालात नहीं बदलते। पुरानी योजनाओं को नए नाम देकर प्रचारित किया जाता है और जनता को भ्रमित किया जाता है कि नई योजनाएँ शुरू की गई हैं। इसके साथ ही विज्ञापन और ब्रांडिंग पर भारी सरकारी खर्च का प्रश्न भी उठाया जाता है। विपक्ष यह भी मानता है कि सरकार भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा विकेंद्रीकरण को खत्म प्रयास कर रही है तथा व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रही है । इसके अतिरिक्त “प्रधानमंत्री-केंद्रित” नामकरण को संघीय ढांचे के विरुद्ध बताया जा रहा है क्योंकि योजनाओं के क्रियान्वयन में राज्यों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
यदि एक तुलनात्मक विश्लेषण ‘नाम बनाम परिणाम’ के आधार पर किया जाए और निष्पक्ष देखा जाए तो दोनों ही पक्षों में कुछ सच्चाई है। यह भी सच है कि कई योजनाओं में केवल नाम बदला गया, जबकि ढांचा लगभग वही रहा। वहीं यह भी तथ्य है कि कुछ योजनाओं में वास्तविक सुधार, बजट वृद्धि और दायरा विस्तार किया गया।
दरअसल समस्या तब पैदा होती है जब नाम परिवर्तन को ही उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यथार्थ और सत्य तो यही है कि विभिन्न योजनाओं का मूल्यांकन उनके नाम नहीं, परिणाम से होना चाहिए ।
अस्तु , कहा जा सकता है कि सरकारी योजनाओं का नाम बदलना न तो पूर्णतः ग़लत है और न ही पूर्णतः सही। यदि नाम परिवर्तन के साथ नीति में स्पष्ट सुधार, पारदर्शिता और परिणाम दिखाई दें, तो इसे सकारात्मक कदम माना जाना चाहिए किंतु यदि यह केवल राजनीतिक पहचान और श्रेय लेने का माध्यम बन जाए तो यह लोकतांत्रिक संसाधनों का दुरुपयोग है।
भारत जैसे देश में आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें नीति की निरंतरता बनाए रखें। योजनाएँ किसी सरकार या व्यक्ति की नहीं, बल्कि जनता की होती हैं। नाम चाहे जो हो, असली सवाल यह है कि क्या योजना गरीब, किसान, श्रमिक, महिला और बच्चे के जीवन में वास्तविक बदलाव ला रही है ?
एक तरह से कहा जा सकता है कि सरकारी योजनाओं के नाम बदलने की राजनीति दरअसल भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की परीक्षा है। यदि हम नामों से आगे बढ़कर परिणामों पर चर्चा करें, तो नीति विमर्श अधिक सार्थक होगा। सरकारें बदलेंगी, नाम भी बदल सकते हैं, यदि उद्देश्य जनकल्याण है तो उसे राजनीति से ऊपर रखा जाना चाहिए और यदि नाम केवल राजनीतिक विचारधारा को पुष्ट करने के लिए बदला जा रहा है तो फिर इसका विरोध भी जायज़ है।
डॉ घनश्याम बादल