राष्ट्रहित सर्वोपरि की हो भावना

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

हम जब तक राष्ट्रबोध और शत्रुबोध को अच्छी तरह से जानेंगे और समझेंगे नहीं तब तक सम्भवतः हम अपनी राष्ट्रीय नीति और अन्तरराष्ट्रीय नीति को लेकर भ्रम के शिकार रहते हैं। एक राष्ट्र के नाते – हमारे मित्र वही हैं, जो अन्तरराष्ट्रीय जगत में भारत के साथ खड़े हैं।जो भारत के हितों के साथ हैं। ठीक इसके विपरीत जो भारत का विरोधी है वो हमारा शुभचिंतक तो नहीं ही है।हालांकि वैश्विक राजनीति में शत्रु और मित्र की अवधारण स्थायी नहीं होती है अपितु ये पारस्परिक संबंधों के आधार पर निर्धारित होती है। भारत एक राष्ट्र के नाते ना तो किसी के दबाव में आ सकता है और ना ही हम किसी के विरोधी हैं। बस हम अपने स्व की पताका थामे आगे बढ़ रहे हैं। भारत का जहां हित है हम उन नीतियों के अनुरुप आगे बढ़ेंगे। यही हमारी वसुधैव कुटुंबकम की नीति है। इसीलिए हम किसी भी धर्म , पंथ, सम्प्रदाय, विचार और दल से अपना जुड़ाव रखते हों। उनके अनुयायी हों। ये सब अपनी-अपनी जगह सही है। लेकिन एक राष्ट्र के नाते हमारे प्रत्येक नागरिक कर्त्तव्य, भावनाएं — यदि हमारी राष्ट्रीय दृष्टि को सुस्पष्ट नहीं करती हैं।ऐसे में हमें आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए।

सत्ताओं की आलोचना किन बिंदुओं पर करना सही है। ये तय करना अत्यावश्यक है। हम जिस समय में हैं वो परिदृश्य एक ‘ग्लोबल विलेज’ की आधुनिक संकल्पना पर आधारित है। अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर हमारी एक-एक अभिव्यक्ति, विचार राष्ट्र को अभिव्यक्त करती है। ऐसे में हमारे उत्तरदायित्व बड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि हम वर्तमान नेतृत्व को बिल्कुल पसंद नहीं करते हों। याकि हम नेतृत्वकर्ता की नीतियों के अनुसार चल रहे हो। लेकिन दोनों परिस्थितियों में ये ध्यान रखिए कि— यहां केन्द्र में राष्ट्र अर्थात् ‘भारत’ ही है। ऐसे में हम कौन सी बातें कहते, लिखते हैं। इन सब पर सतर्कता आवश्यक है। क्योंकि सत्ता परिवर्तनीय है — राष्ट्र नहीं। अतएव हमारे प्रत्येक कार्य और विचार राष्ट्र को समर्पित होने चाहिए।मुझे ध्यान नहीं है लेकिन शायद 5 से 9 वीं के मध्य किसी कक्षा में स्वामी रामतीर्थ जी से जुड़ी एक कहानी पढ़ी थी। जो हमें राष्ट्रबोध का पाठ पढ़ाती है। इसे पढ़िए और चिंतन कीजिए।

—–

यह उन दिनों की बात है, जब स्वामी रामतीर्थ जापान में थे। स्वामी जी रेल से एक शहर से दूसरे शहर घूम रहे थे। उन दिनों वह अन्न नहीं खाते थे, फलाहार ही करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वह गाड़ी से यात्रा कर रहे थे और उन्हें खोजने पर भी कहीं फल नहीं मिल सके। स्वामी जी को तेज भूख लग गई थी। गाड़ी एक स्टेशन पर ठहरी।

स्वामी जी ने इधर-उधर नजर दौड़ाई, मगर उन्हें फल न दिखाई दिए। सहसा उनके मुंह से निकल पड़ा, ‘लगता है, जापान फलों के मामले में बड़ा गरीब है।’ स्वामी जी के डिब्बे के सामने खड़े एक युवक ने उनकी यह बात सुन ली। वह अपनी पत्नी को गाड़ी में बिठाने आया था। यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा स्टेशन से बाहर गया और एक टोकरी फल लेकर स्वामी जी के पास आया और बोला, ‘ये लीजिए फल। आपको इनकी जरूरत है।’

स्वामी जी ने समझा, शायद यह कोई फल बेचने वाला है। उन्होंने फल ले लिए और पूछा, ‘इनका मूल्य कितना है?’ युवक ने कहा, ‘इनका कोई मूल्य नहीं है, ये आपके लिए हैं।’ स्वामी जी ने फिर पैसे लेने का आग्रह किया, तो युवक बोला, ‘आप फलों की कीमत देना ही चाहते हैं, तो आपसे प्रार्थना है कि अपने देश जाकर किसी से यह न कहें कि जापान फलों के मामले में गरीब देश है। बस यही इनका मूल्य है।’

रामतीर्थ उस जापानी युवक का उत्तर सुनकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मन ही मन सोचा कि जिस देश का हरेक नागरिक अपने देश के सम्मान का इतना ध्यान रखता है, वह देश सचमुच महान है।

—–

ये प्रसंग हमें क्या सीख देता? यही न कि हमारे एक-एक कार्य और विचार हमारे राष्ट्रीय चित्त को प्रकट करते हैं। एक नागरिक के तौर पर हम जैसे होंगे—हमारा राष्ट्र उसी दिशा में जाएगा। हम अधिकारों की ख़ूब बातें करते हैं लेकिन अपने कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं। हमारे पेशे अलग हो सकते हैं। लेकिन मूल‌ भावना नहीं।‌ हम सबके विचारों में राष्ट्र होना चाहिए । हम कहीं भी रहें, किसी संस्थान में रहें याकि अपने घर में- ये अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि- मेरा जीवन -मेरे राष्ट्र के लिए है। जब हम ये ठान लेंगे कि हम जो कुछ भी करने वाले हैं— उससे राष्ट्र पर प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में हम निश्चय ही सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्यों को भी निभाएंगे।साथ ही एक व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के तौर पर श्रेष्ठता के पर्याय बनेंगे। हम ये करके न केवल आत्मिक आनंद की अनुभूति करेंगे अपितु एक उत्तरदायी समाज के तौर पर भी नई पीढ़ी को एक श्रेष्ठ मार्ग दिखाएंगे। तय आपको करना है कि आप किस दिशा में जाना चाहते हैं। हम सत्ताओं की आलोचना करें, उनकी कमियों पर उनके कर्तव्य याद दिलाएं। लेकिन यह ध्यान रखें कि- क्या हमारी आलोचना – देश की छवि को तो नुकसान नहीं पहुंचा रही है?राष्ट्रहित सर्वोपरि की भावना केवल विचारों में ही नहीं अपितु हमारे जीवन मूल्यों, आचार-व्यवहार में प्रकट हो। ध्यान यह भी रखिए कि राष्ट्र — कभी भी शासन-सत्ताओं से नहीं चला है। राष्ट्र ने यदि प्रगति की है तो वो राष्ट्र के लिए समर्पित और असंदिग्ध श्रद्धा रखने वाले जनमानस के दृढ़संकल्पों के फलस्वरूप की है। राष्ट्र के केन्द्र में सत्ताएं नहीं अपितु ‘समाज’ रहा है। समाज ने ही सत्ताओं का निर्माण किया है। ऐसे में सबसे बड़ा दायित्व जन-जन पर है। सत्ताएं अपने ढंग से अपना काम करेंगी लेकिन हम क्या करेंगे? इसका भलीभांति विचार कर समाज जीवन में हमें आगे बढ़ना चाहिए।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,213 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress