न्यूटन का नियम और राजनैतिक स्थिरता – आशुतोष

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newtonयह स्थिरता भी गजब चीज है। न्यूटन ने बताया कि जो चीज स्थिर है वह तब तक स्थिर बनी रहती है जब तक बाहर से बल न लगाया जाय। 1687 में न्यूटन ने जब इस नियम को गढ़ा तो सोचा भी न होगा कि यह विज्ञान की सरहदें पार कर राजनीति जा घुसेगा और दो टांगों पर अपना बोझा ढोने वाले आदमी नामक जानवर की खून-पसीने की कमाई को चूस लेगा।

लेकिन होनी हो कर रहती है। न्यूटन ने नियम तो बना दिया, ठीक वैसे ही जै से पाकिस्तान ने अणुबम बना लिया, लेकिन उसकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं किये। सारी दुनियां इसी दहशत में जीती है कि कहीं यह बम लादेन के हाथ न लग जाये। ठीक वैसे ही तीन सौ साल पश्चिम की प्रयोगशाला की पोथियों में बंद रहने के बाद न्यूटन का यह फार्मूला भारत में माकपा के हाथ लग गया।

जो कांग्रेस पूरे रुपये पर दावा कर रही थी उसके हाथ सिर्फ अठन्नी लगी। रुपया पूरा करने की जुगत में उसने नामचीन अर्थशास्त्री का सहारा लिया। बहुत से प्रदेशों से चिल्लर बटोरी तो एक चवन्नी और हासिल हुई। आखिरी चवन्नी कांख में दबाये प्रकाश करात गति के नियमों को धता बताते हुए कुलांचे भर रहे थे। उन्हें भी मालूम था कि जब तक चवन्नी पर उनका कब्जा है तब तक डांवाडोल कांग्रेस स्थिरता को तरसती रहेगी।

तमाम मान-मनौवल के बाद करात इस शर्त पर चवन्नी का साझा करने क ो तैयार हुए कि वे जमावड़े में शामिल नहीं होंगे। माकपा, भाकपा, आर एस पी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने मिलकर वाम मोर्चा बनाया और माकपा महासचिव प्रकाश करात के नेतृत्व में राजनैतिक डांडिया शुरू कर दिया। न्यूटन के बताये नियम के अनुसार वे जब चाहते बाहर से बल लगा कर स्थिरता भंग कर देते। उनकी देखा-देखी भीतर वाले भी बाहर जाने की घुड़की देते रहते थे।

नानी की कहानी में जैसे राक्षस की जान तोते में बसती थी वैसे ही सरकार की जान बाजार में और बाजार के सांड़ की जान स्थिरता नाम के तोते में बसती है। करात के हाथ जब भी तोते की तरफ बढ़ते, शेयर बाजार घिघियाने लगता। सरकार की सांस रुकने लगती। अमेरिकी समझौते के नाम पर तो वाम दलों ने तोते के पंख ही नोंचने शुरू कर दिये। स्थिरता दम तोड़ने ही वाली थी कि धर्मनिरपेक्षता के पहरुए अमर सिंह साइकल पर तेजी से पैडल मारते हुए वहां आ पहुंचे और तोते की जान बच गयी। हालांकि इसके सदमे से न तो तोता उबर सका और न ही सांड़। अमर सिंह की हालत भी पतली ही रही।

शेयर बाजार का सांड़ जनता रूपी गाय को चूस कर ही अपनी सेहत बनाता है। गांव के लोग जानते हैं कि अगर गाय का बछड़ा मर जाय तो गाय दूध नहीं देती। लोग उस मरे हुए बछड़े की खाल में भुस भर कर गाय के पास खड़ा कर देते हैं और दूध की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते हैं। यही शेयर बाजार के शातिर दलाल करते हैं। वे जनता द्वारा मेहनत-मजदूरी कर बचाई गयी पाई-पाई को निवेश करने के लिये प्रेरित करते हैं और हर साल-दो साल बाद मंदी के नाम पर उसे निगल जाते हैं।

इन भस्मासुरों क ो दरकार होती है ऐसी सरकार की जो उन्हें संरक्षण दे। दुनियां के मुंह से निवाला छीन कर उसे भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उदर में पहुंचा देने इस खेल में तटस्थ ही नहीं बल्कि सहायक हो, ऐसी सत्ता उन्हें वांछित है। बाजार के इशारों पर स्वेच्छा से कठपुतलियों की तरह नाचे ऐसे नीति नियंता वे चाहते हैं। राष्ट्रवादी हों अथवा वामपंथी, अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबध्दताओं के कारण वे इस गोरखधंधे के स्वाभाविक सहयोगी नहीं हो सकते हैं।

इन दोनों ही शक्तियों को सत्ता से दूर कर अपनी राह आसान करने के लिये बाजार ने नये जुमले गढ़े। स्थिरता को राष्ट्रीय आकांक्षाओं से अधिक महत्वपूर्ण और एक हद तक पवित्र बना कर स्थापित करने की कोशिश की गयी। पच्चीस रुपये किलो प्याज होने पर भाजपा सरकार पलट देने वाली जनता ने सत्तर रुपये किलो दाल और बीस रुपये किलो आटा खा कर भी आह तक न भरी, मंहगाई कम हो रही है इस दावे पर भरोसा किया और किसानों की आत्महत्याओं की कीमत पर स्थिरता खरीदी।

हालिया चुनावों में वामपंथियों को उनके घर में ही धूल चटाने का पराक्रम कांग्रेस ने ममता के साथ मिलकर दिखाया तो बाजार के सितारों ने उसे हाथों-हाथ लिया। दक्षिणपंथी भाजपा को उस हद तक नुकसान तो नहीं पहुंचा किन्तु उसे भी एक कदम पीछे हटना पड़ा। कांग्रेस अपने कुनबे के साथ भी बहुमत तक नहीं पहुंच सकी, लेकिन उसकी इस सफलता पर ही बाजार झूम उठा है। अमेरिकी राजदूत के संदेशवाहक यहां-वहां तिकड़में लगाते घूमते रहे।

शेयरों के दामों में जबरदस्त उछाल आया है। बाजार खुश है। शेयरों के आढ़तिये बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह के दोबारा प्रधानमंत्री बनने की संभावना से ही बाजार गदगद है। जुम्मा-जुम्मा चार दिन पहले यही आढ़तिये सिसकियां भरते हुए मंदी को कोस रहे थे। डूबता सूचकांक निवेशकों की धड़कन बढ़ा रहा था। दुहाई दी जा रही थी कि वैश्विक मंदी की मार से भारत का शेयर बाजार हिला हुआ है। लेकिन अजब बात यह है कि जो बाजार वैश्विक मंदी के कारण डूबा वह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर बल्लियों उछलने लगा।

इक्कीसवीं सदी में लक्ष्मी का जीवंत रूप बाजार है जो सिर्फ सफेद या काले ही नहीं बल्कि इंद्रधनुषी रंगों के धन से पटा पड़ा है। जैसे पौराणिक काल में लक्ष्मी उल्लू पर बैठ कर विचरण किया करती थीं वैसे ही यह बाजार मीडिया के पंखों पर सवार हो कर विचरता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों ही नहीं बल्कि मीडिया के विविध रूपों का सहारा ले यह हमारे शयनकक्षों में आ धंसा है।

इसलिये जब चुनाव परिणामों के रुझान देख बाजार इठलाने लगा तो उसका वाहन मीडिया भी बल खाने लगा। तीन दिनों तक त्रिशंकु लोक सभा के आंकड़े परोसने के बाद अचानक मानो वह नींद से जागा और युवराज राहुल की वंदना शुरू कर दी।

एक बार यह अनुमान आते ही कि कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना है और लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं समाप्त हो गयी हैं, मीडिया के स्वर बदल गये। कल तक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हवाई चप्पलें पहन कर ढ़ाबे पर चाय की चुस्कियां लेते हुए पूंजीवाद को गरियाने वाले नौजवान पत्रकार जब इसी बाजार के हिस्से बन कर मोटे पैकेज पाने लगे तो शेयर बाजार की हर छलांग को अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की नीतियों में देश के भरोसे का प्रतीक बताने लगे।

बाजार की संचालक शक्तियां जानती हैं कि जब तक भारत अपनी आत्मा को जीवित रखने में सफल रहेगा, उनका रास्ता निष्कंटक नहीं हो सकेगा। इसलिये पिछली बार के मुकाबले भाजपा को बीस सीटें कम पाने को राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववादी शक्तियों की पराजय तथा धर्मनिरपेक्षता की जीत के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। बाजार के इस खेल में मीडिया औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। एग्जिट पोल के खोखलेपन के चलते अपनी विश्वसनीयता खो चुकी मीडिया की बाजार से बंधे होने की ओढ़ी हुई मजबूरी अंतत: उसकी तटस्थता को भी सवालों के घेरे में लायेगी।

2 COMMENTS

  1. बाज़ार ही सब कुछ है . सत्ता कभी बैलेट , कभी बुल्लेट से निकलती थी पर आज कल पूंजी से ही सत्ता अस्तित्व में आती है . हालिया चुनाव में स्विस बैंक के काले धन पर खूब चिल्लम चिल्ली मची . लेकिन किसी ने भी चुनाव प्रचार और वोट खरीदने में उडाये जा रहे बेहिसाब पैसों की चर्चा तक नहीं की . एक अनुमान के मुताबिक औसत हर सीट पर ४०-७० करोड रूपये पानी की तरह बहाए गए .

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