राजनीति

कांग्रेस जीती नहीं, भाजपा हारी है !

congressत्वरित टिप्पणी:कर्नाटक चुनाव

राजेश कश्यप

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की स्पष्ट जीत हर किसी के लिए चौंकाने वाली है। कांग्रेस की यह जीत निःसंदेह भाजपा के लिए बहुत बड़ा सबक और गहरा सन्देश है। इसके साथ ही इन चुनावी परिणामों ने कई मिथकों और आम धारणाओं को भी तोड़ा है। यदि सैद्धान्तिक तौरपर देखा जाए तो यह कांग्रेस की जीत नहीं है, यह भाजपा की हार है। वर्तमान समीकरणों के तहत कांग्रेस नैतिक और सैद्धान्तिक तौरपर जीत की हकदार नहीं थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस तरह से काग्रेस महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी और बड़े-बड़े घोटालों में घिरी रही, जिस तरह से देशभर में अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के जन आन्दोलनों से यूपीए-दो सरकार की किरकिरी बनी रही और जिस तरह से देश में कांग्रेस विरोधी लहर बहती रही, उसे भाजपा भुनाने में बिल्कुल नाकाम रही है। कहीं न कहीं भाजपा उन पुरानी आम धारणाओं का शिकार है कि यदि देश में सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ हवा बनेगी तो उसका सीधा फायदा विपक्षी पार्टी को ही मिलेगा। इसके साथ ही आम तौरपर हर बार सत्ता में परिवर्तन होता था। भाजपा अब तक यह न तो स्वीकार नहीं कर पा रही है और न ही समझ पा रही है कि ये सब धारणाएं और आधारभूति सिद्धांत अपवाद बनकर रह गए हैं। यदि इन अपवादों को भाजपा समझ ले और आत्मसात कर ले तो काफी हद तक देश की चुनावी तस्वीर बदल सकती है।
कर्नाटक के चुनावी परिणामों को अन्यथा कदापि नहीं लिया जा सकता। कर्नाटक में भाजपा को हार का सामना क्यों करना पड़ा? कांग्रेस को विपरीत बयार के बीच जीत का हार कैसे नसीब हो गया? कर्नाटक का चुनाव का मूल आधार क्या रहा? इस तरह के अनेक ज्वलंत प्रश्न हैं, जिनपर बेहद गंभीर चिंतन-मंथन करने की आवश्यकता है। यदि क्षेत्रीय मुद्दों के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो इन चुनावों में भाजपा की अन्दरूनी फूट ने सबसे बड़ी अहम भूमिका निभाई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कर्नाटक में भाजपा सरकार भी भ्रष्टाचार जैसे दागों से नहीं बच पाई और स्वयं को पाक-साफ और भ्रष्टाचार विरोधी दर्शाने के लिए येद्दुरप्पा को भी किनारे करना पड़ा। इसके बावजूद आम आदमी के दिलों में भाजपा अपनी जगह को बरकरार नहीं रख पाई। यह भाजपा की सबसे बड़ी कूटनीतिक हार का विषय रही। कर्नाटक में मूल रूप से भाजपा बनाम भाजपा का ही चुनाव रहा। येद्दुरप्पा अपनी ही पार्टी के लिए भस्मासुर साबित हो गए। भाजपा नेताओं की आत्मघाती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने कर्नाटक चुनावों को एक अजीबो-गरीब मुकाम पर पहुँचा दिया।
यह कहना कदापि सार्थक नहीं होगा कि कांग्रेस कर्नाटक की जीत के लिए हकदार थी। इसके साथ ही यह भी नहीं कहा जा सकता कि इसके लिए पूर्णतः भाजपा ही जीत का हक रखती थी। वैसे इस समय सवाल सिर्फ जीत-हार का नहीं है। सबसे बड़ा सवाल है लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धान्तों का। यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि कर्नाटक चुनावों में सभी लोकतांत्रिक मूल्यों, मुद्दों और सिद्धान्तों पर कड़ा प्रहार हुआ है। कर्नाटक चुनावों में एक आम जनमानस को इस उलझन में डाल दिया है कि आखिर चुनाव का मूल आधार क्या रहा? क्या भ्रष्टाचार था? यदि हाँ तो फिर भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते भाजपा ने मुख्यमंत्री तक की बलि दे दी थी तो इसके बावजूद हार क्यों हुई और भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबी कांग्रेस को विजयी हार कैसे डला? यदि नहीं तो फिर क्या चुनावों के दौरान आम जनता भ्रष्टाचार को सिरे से ही नकार देती है और गरीबी, महंगाई, बेकारी और बेरोजगारी की असली जड़ भ्रष्टाचार को बिल्कुल भुला देती है? यदि ऐसा है तो फिर आम मतदाता किस सोच और समझ से मतदान करता है? क्या इस सन्दर्भ में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का कथन कि देश के 90 फीसदी लोग मूर्ख हैं और वे जाति, धर्म आदि को आधार बनाकर मतदान करते हैं, को एक बानगी के तौरपर देखा जाना चाहिए? यदि हाँ तो यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए कितने बड़े शर्म का विषय है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
कर्नाटक चुनावों ने स्टार प्रचारकों के मिथकों को भी ध्वस्त किया है। कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा की तरफ से गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों में शामिल नरेन्द्र मोदी ने कर्नाटक में स्टार प्रचारकांे की बड़ी अहम जिम्मेदारी निभाई। कमाल की बात यह रही कि इन चुनावों में दोनों धुरन्धर नेताओं के फैक्टर को आम आदमी ने नकार दिया। राहुल गांधी जिन 60 विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार करने पहुंचे, उनमें से मात्र 26 विधानसभा क्षेत्रों में ही कांग्रेस पार्टी को फायदा मिला। इसका मतलब आधे से अधिक मतदाताओं ने राहुल गांधी को भी नकार दिया। इससे भी बुरा हाल भाजपा के स्टार प्रचारक नरेन्द्र मोदी का रहा। वे 37 विधानसभा क्षेत्रों में पहुंचे थे और उनमें से मात्र 13 क्षेत्रों में ही पार्टी को कुछ लाभ मिल पाया। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि यदि राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के फैक्टर को आधे से अधिक मतदाता नकार रहे हैं तो फिर उनके स्टार प्रचारक होने का क्या औचित्य है? यदि पार्टी स्तर पर इन दोनों प्रचारकों को हाशिए पर डाल दिया जाये तो फिर देश के समक्ष विकल्प क्या है? निश्चित तौरपर यह बेहद गंभीर और अजीबो-गरीब परिस्थिति है। इन समीकरणों को देखते हुए देश की राजनीतिक पार्टियों को नए सिरे से आत्म-मन्थन करने की सख्त आवश्यकता है।