राजनीति

कौन सुने वनवासियों की – सुरेन्द्र अग्निहोत्री

सोनभद्र के बाद ललितपुर, चित्रकूट, मिर्जापुर तथा बहराईच के लाखों के आदिवासी संघर्ष की राह पर सड़कों पर उतरने को तैयार है। पत्थर खदानों और वनों पर अपनी जीविका चलाने वाले आदिवासियों को उनके अधिकारों से मरहूम करने के लिये कुचक्र शुरू हो गया है।

भारतीय संविधान ने देश के सभी नागरिकों को निर्वाचन मेँ भाग लेने, निर्वाचित होने का अधिकार प्रदान किया है। लेकिन उत्तर प्रदेश के विपत्र आदिवासियों को संविधान में मिले अधिकारों का गला घोंटा जा रहा है। केन्द्र सरकार और मानवाधिकार आयोग एवं अन्य इकाईयों के जुबान पर ताला लगा हुआ हैं ।

लंबी जद्दोजहद के बाद केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली आदिवासियों की दस जातियों को जनजाति के रूप में मानते हुए इन्हें आरक्षण की सुविधा प्रदान किया ताकि उप्र में रहने वाले आदिवासियों को इसका लाभ मिल सके। केन्द्र सरकार के इस फैसले का स्वागत आन्दोलनकारियों ने किया। परन्तु दुखद पहलू उस समय सामने आया जब पिछले विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई तो इस क्षेत्र के आदिवासी नेताओं के हाथ के तोते उड़ गये कारण कि राबर्ट्सगंज लोकसभा और राबर्टसगंज दुद्धी, विधानसभा सीट सुरक्षति है और आदिवासी नेता चुनाव लड़कर विजयी होते रहे है परंतु जिन जातियों को जनजाति के श्रेणी में शामिल कर लिया गया उनका आरक्षण समाप्त हो गया जिसके कारण पिछले विधानसभा चुनाव में आरक्षति जातियों के लोग चुनाव नही लड़ पाये और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव और विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक नहीं लड़सके उप्र के उन आदिवासी जातियों को जनजाति के श्रेणी में सम्मिलित कर उन्हे आरक्षण का लाभ से वंछित कर दिया गया है। एक ओर अनुसूचितजाति का दर्जा खोचुके लोगों को जनजाति का आरक्षण न देकर भारतीय लोकतंत्र में क्रूर मजाक किया गया है। आदिवासी समाज निर्वाचित होने का अधिकार खो चुका है ।

ललितपुर जिले में बसने वाले सहरियाओं को अनुसूचित जाति से हटा कर अनुसूचित जनजाति में मर्ज तो कर दिया गया लेकिन पंचायत चुनाव में उन्हे इसका लाभ नहीं मिल सकेगा।

जंगलों में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले वनवासी आदिवासी सहरियाओं का अब तक राजनैतिक दल अपने हित के लिए इस्तेमाल करते रहे। कभी विकास के सब्जबाग दिखाकर तो कभी धन बल, बाहु बल के जरिए सहरियाओं के थोक वोटों पर नेता कब्जा जमाते रहे। पिछले पाच वर्षो से जिले के सहरियाओं ने अपने हक के लिए संघर्ष शुरू किया। पहले अन्याय के खिलाफ आवाज न उठाने वाले सहरिया अब अपने अधिकारों को लेकर एकजुट है और उनमें अधिकार पाना नहीं बल्कि छीनने का जज्बा नजर आ रहा है। कुछ समय पहले जिला मुख्यालय पर हुए प्रदर्शन में जिले के सहरिया अपनी ताकत का अहसास करा चुके है। उनकी माग है कि जब उन्हे भारतीय संविधान में संशोधन कर अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया है तो राज्य सरकार उसका पालन क्यों नहीं कर रही।

अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित होने से पूर्व सहरिया आदिवासी अनुसूचित जाति के अंतर्गत 32 सीटों पर चुनाव जीतकर बड़ी संख्या में पंचायतों के विभिन्न स्तर पर प्रतिनिधित्व करते रहे। उदाहरण के लिए जनपद की 32 पंचायतों में सरिया जाति के लोग प्रधान थे और क्षेत्र समिति, जिला पंचायत तक सहरिया आदिवासी चुनाव जीत कर पहुंचे। परन्तु वर्ष 2005 में हुए पंचायत चुनाव में जिले के सहरियाओं को अनुसूचित जाति का आरक्षण मिला नहीं और अनुसूचित जाति के तहत जमा किये गए नामाकन निरस्त कर दिये गए। जब उन्होंने जनजाति के लिए आरक्षण की माग की तो सरकार द्वारा बताया गया कि वर्ष 2001 की जनगणना में जनजाति की जनसंख्या शून्य होने के कारण उन्हे आरक्षण नहीं दिया जा सकता। अब पुन: पंचायत चुनाव की दुदुम्भी बज गयी है और फिर से सहरियाओं के अधिकारों को लेकर चर्चा शुरू हो गयी। वर्तमान चुनाव वर्ष 2001 में हुई जनगणना के आधार पर कराया जा रहा है। यदि सहरिया जाति के लोगों को नामाकन पत्र दाखिल करना है तो वह अनुसूचित जाति के प्रत्याशी के रूप में नामाकन कर सकते है। इसके लिए उन्हे अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र संलग्न् करना होगा। हालाकि वर्ष 2003 में हुए संशोधन के बाद सहरियाओं को अनुसूचित जनजाति के प्रमाण पत्र जारी कर दिये गए। ऐसी स्थिति में उन्हे वर्ष् 2001 में आरक्षण की स्थिति का उल्लेख करना होगा। वर्ष 2001 में सहरिया अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल थे।

यह बात तो पंचायत चुनाव की है। उनके मौलिक अधिकारों पर और भी कुठाराघात हो रहे। वर्ष 2006 में अनुसूचित जनजाति वन अधिकारों की मान्यता का अधिनियम संसद में पारित होने के पश्चात राष्ट्रपति की सहमति से सहरिया आदिवासियों को वन भूमि पर उनका खेती करने का अधिकार वैधानिक मानते हुए मान्यता प्रदान कर दी गई। जैसे-तैसे 2010 में शुरू हुई वन अधिकारों की मान्यता प्रक्रयिा नौकरशाहों के आगे दम तोड़ने लगी। अब तक इस कानून के अंतर्गत एक भी आदिवासी सहरिया को अधिकार प्राप्त नहीं हो सका। जबकि मिर्जापुर सोनभद्र के 3000 आदिवासियों को वनाधिकारों की मान्यता का प्रमाण पत्र दे दिया गया। एक लाख आबादी वाले जिले के सहरिया एक लाख हैक्टेयर भूमि वाले वन क्षेत्र के एक टुकडे में भी काबिज नहीं हो सके। हालात यह है कि आदिवासी अपने प्रार्थना पत्र देने के लिए दूसरों का सहारा ले रहे, परन्तु साक्ष्यों के जनजाल और दुर्भावनापूर्ण प्रक्रयिा की वजह से आदिवासियों को अब तक वन अधिकार नहीं मिल सके। भविष्य में आदिवासी साक्ष्य न दे सकें इसके लिए उन्हे वनों से खदेड़ा जा रहा। उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 122 के अंतर्गत जिन अनुसूचित जनजाति के भूमिहीन —षक मजदूरों का गाव सभा की जमीन पर कब्जा है उन्हे तुरन्त पट्टे देने का प्राविधान है परन्तु पिछले कई सालों से अनुसूचित जाति के हजारों लोग इस धारा के अंतर्गत लाभान्वित हुए परन्तु आदिवासी सहरियाओं को पट्टे आवंटित नहीं किये गए। जबकि वह आज भी हजारों एकड़ गाव सभा की भूमि पर काबिज होकर खेती कर रहे।

सहरिया अधिकारों को लेकर जारी संघर्ष की अगुवाई कर रहे मुरारी लाल जैन का कहना है कि सहरियाओं को अधिकारों से वंचित करने के लिए बडेघ् स्तर पर षडयंत्र रचा गया है ताकि जिले के सहरियाओं को आगे बढ़ने का मौका न मिल सके। उनका कहना है कि जब सहरियाओं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया है तो उन्हे उनके अधिकार भी मिलने चाहिए। पंचायत चुनाव में यदि उन्हे आरक्षण का लाभ मिलता तो सहरिया बाहुल्य क्षेत्रों में वही प्रधान व अन्य पदों पर चुने जाते। अधिकारों से वंचित सहरिया जाति के लोग बेवश नजरों से आश लगाये नेताओं व नौकरशाहों की ओर ताक रहे है।

चिंता की बात तो यह है कि जिस तरह से सहरियाओं का अधिकारों को लेकर आदोलन मुखर हो रहा है उससे जिले के विंध्याचल पर्वत पर हलचल दिखायी देने लगी है क्योंकि अधिकारों को लेकर शुरू हुई लड़ाई ने अब नक्सली और माओवाद का रूप अख्तियार कर खूनी क्रान्ति को अंजाम दे दिया है।

सदियों से शोषित, दमित और समाज के सबसे कमजोर वर्ग के सदस्य आदिवासियों को दलित की बेटी के शासनकाल में भी न्याय नहीं मिला और नही आशा की कोई किरण ही नजर आ रही है। सूबे के सोनभद्र, मीरजापुर, वाराणसी, देवरिया, बलिया, गाजीपुर, झांसी, ललितपुर, गोरखपुर व तीन अन्य जनपदों के आदिवासियों की 13 लाख जातियों की आबादी 18 लाख के लगभग है। इसमें 4 लाख 35 हजार गोड़, दो लाख खरवार, एक लाख सहरिया, एक लाख पनिका, बीस बजार भूईया, पचहत्तर हजार चेरो, चालीस हजार अगरिया व हजारों की संख्या मेँ अन्य जातिया निवासी करती हैं भारत सरकार द्वारा इन जातियों को अनु0जाति की श्रेणी मेँ रखा गया था और आरक्षण का लाभ इन जातियों को मिलता रहा। वर्ष 2003 में भारत सरकार आदिवासी नेताओं व संगठनों के नाम पर इन जातियों को जनजाति का दर्जा प्रदान कर दिया, जिसका लाभ सरकारी नौकरियों में मिलने लगा।

वर्ष 2005 में हुए पंचायती चुनाव में ये जातियां चुनाव मेँ भाग नहीं ले पायी थी, क्योकि तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार ने वर्ष 2001 की जनगणना पर आधारित चुनाव की घोषणा की थी लेकिन डा0 अम्बेडकर की दुहाई देने वाली मायावती सरकार भी मुलायम सरकार के नीतिगति निर्णयों की आड़ में शोषित वंचित आदीवासियों को पंचायत चुनाव प्रकि्रया से दूर रखने की साजिश कर चुकी है इस साजिश के पीछे जो मूख्य कारण माना जा रहा है। उसमें जानकार सूत्रों का कहना है कि जानबूझ कर जनगणना की आड़ में 2003 में आदीवासियों के रूप में दर्जा पाचुकी जातियों को संविधानप्रद्दत्त अधिकारों से मरहूम रखा जा रहा है। जबकि प्रदेश विधानपरिषद में दयाराम प्रजापति द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में समाज कल्याण मंत्री इंद्रजीज सरोज ने बताया कि ललितपुर, मिर्जापुर, इलाहाबाद, बांदा एवं वाराणसी की 13 जन जाजियां प्रदेश की अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल नही थी। भारत सरकार का राजपत्र दिनांक 07 जनवरी 2003 द्वारा गोँड, बैगा (चेरू) खरवार, सहरिया, परहिया, भुइया, पनिका, अगरिया, पठारी 9 जातियों को अनुसूचित जन जातियों में घोषित कर दिया गया हैं तथा इस के अतिरिक्त पंखा जाति को भी अनुसूचित जन जाति में सम्मलित किया गया है। इन सभी जातियों को राज्यसरकार एवं भारत सरकार से अनुसूचित जन जातियों को जो सुतिधायें प्रदत है। उन्हें दी जा रही है तथा शेष को अनुसूचित जाति की सुविधाये प्रदान की जा रही है। वही दूसरी ओर जो दृश्य उभर कर आ रहा है। उसमें स्प’ट हो रहा है कि एक फिर आदिवासी छले जा रहे है। जैसा कि कालान्तर में भी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव पिछले जनगणना के आधार पर होने के कारण ये जातियां चुने जाने के अधिकार से वंचित रही। दुद्धी विधानसभा के सात बार विधायक रह चुके पूर्व परिवार कल्याण मंत्री वियज सिंह गोड़ ने बताया कि यह आदिवासी जातियों के अधिकारों का शोषण है। भारतीय संविधान में आरक्षण के तहत आरक्षति सभी जातियों को चुनाव लड़ने का हक है। हमने अन्य प्रदेशों की तरह उप्र मेँ आदिवासी जातियों को जनजाति की श्रेणी में रखकर केन्द्र सरकार से वि”ोष सुविधा प्राप्त करने की कोशिश की लेकिन सरकार की लापरवाही से हमें कही का नही छोड़। हमारा अनुसूचित जाति का आरक्षण समाप्त हो गया जनजाति का आरक्षण तय ही नहीं किया गया। वर्ष 2010 के जनगणना में आशा थी कि हमेँ पंचायत चुनाव मेँ आरक्षण मिलेगा, परंतु आबादी के मुताबिक दो प्रतिशत का आरक्षण नही मिला। सूबे के प्रमुख सचिव पंचायती राज की घोषणा के अनुसार प्रदेश की कुल 51 हजार 916 ग्राम प्रधान और 812 ब्लाक प्रमुख सीटों में जनजातियों के ग्राम प्रधान के लिए 31 सीटेँ, ब्लाक प्रमुख के लिए महज एक सीट आरक्षति किया गया है। दो प्रतिश्त आरक्षण कोटे के हिसाब से 1050 सीटें आरक्षति किया जाना चाहिए।

कौन सुने वनवासियों की

राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात और नक्सली आन्दोलन के लिए कुख्यात सोनभद्र जनपद आज हिंसा की आग मेँ जल रहा हैं। राज्य सरकार, भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय संस्थओं द्वारा प्रतिवर्ष अरबों रूपये खर्च करने के बाद जनपद का आदिवासी भूखा, नंगा, गरीब क्यों है जबकि अंग्रेजों के शासनकाल मे इस क्षेत्र के आदिवासियों को शोषको से बचाने के उद्देश्य से दुद्धी क्षेत्र में सुपुरदारी भूमि व्यवस्था लागू करे उन्हेँ वनोपजों की उपयेाग उपभोग खेती बारी करने की छूट थी और आज आजादी के बाद वन पर कोई अधिकार नहीं है। आदिवासियों को वनों से खदेड़ा जा रहा है। ललितपुर के गांधीवादी रास्ते पर चलने वाले भोले भाले शहरिया आदिवासियों का लगातार तार शोषण हो रहा है। शोषण करने वालों मेँ एक नया वर्ग जीन्स पर खादी का कुर्ता पहनकर कन्धे पर थैला लटकाये जिसमें बिसलरी की बोतल का पानी रखे आदिवासियों को सामाजिक कार्यकर्ता बनके दिल्ली लखनऊ से उनके नाम पर मिलने वाली इमदाद लूटने लिए आ गया है। इनके आने से आदिवासियों की दिशा और दशा तो नही बदली लेकिन स्वयंसेवी संगठन के लोग जो कलतक एक जीन्स और एक कुर्ते मेँ आये थे। इन आदिवासी क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी भूखण्ड के मालिक बन गये और आयकर दाता हो गये जबकि उनका मात्र काम समाज सेवा है। क्याकोई समाज सेवा से करोड़पति लखपति बन सकता है? इस प्र”न का जवाब खोजे बिना आदिवासियों के साथ लूट का सिलसिला जारी रहेगा अभाव के बीच आदिवासी गाँव दर गाँव उजड़ते जायेगे। ललितपुर मेँ कभी बाँध के नाम पर कभी बिजली परियोजना के नाम पर तो कभी वनों के नाम पर 50 हजार से जादा परिवार बेघर किये जा चुके है। जिनमें से जादातर मुआवजे सिर छुपाने की जगह और रोजी के लिये अबतक मारे-मारे फिर रहे है।

7 लाख है प्रदेश में आदिवासी-वर्ष 2003 में दस जातियों को शामिल करने के बाद प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या छह लाख 67 हजार 445 आंकी गयी थी ओर माना जा रहा है कि अब यह सात लाख से ऊपर पहुंच गयी होगी। प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की सर्वाधिक दो लाख 87 हजार 652 लोग सोनभद्र मेँ निवास करते है। अलीगढ़ के किसानों की भूमि अधिग्रहण के मामले में हुये संघर्ष के बाद समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव जहां आरपार की लड़ाई में आगे आने के लिये ताल ठोक चुके है वहीं कांग्रेस भी किसी से पीछे रहने को तैयार नहीं है। डा0 रीता जोशी बहुगुणा किसानों के धरना स्थल पर पहुंचकर किसानों के साथ खड़ी नजर आयी है। लेकिन आदिवासियों को मुलायम सरकार ने और अब माया सरकार ने उनके अधिकारों से वंचित करने की साजिश को रोकने के लिये अभी तक कोई राजनैतिक दल सामने नही आता दिख रहा हैं। इस खामोशी या इस चुप्पी पर क्या कहा जाये.

पहल क्यों नहीं

आदिवासियों को पंचायत चुनाव मेँ आरक्षण देने के मामले में स्थानीय प्रशासन द्वारा 2001 की जनगणना को आधार बनाकर जिस तरह वंचित करने की साजिश रची जा रही है। उसे रोकने के प्रति प्रदेश के समाज कल्याण मंत्री इन्द्रजीत सरोज कब पहल करेंगे। जब राजनाथ सिंह सरकार ने अतिदलित और अतिपिछड़ों के लिये जातिगत सर्वे कराके उनका आकलन किया था तो उसी को आधार बनाकर आदिवासियों को आरक्षण का लाभ दिया जा सकता था। अथवा ललितपुर जनपद में 24 प्रतिश्त अनुसूचित जाति मेँ 9 प्रतिश्त आदिवासी 2001 की जनगणना में सामिल थे तो उसे भी आधार बनाया जा सकता था लेकिन आश्चर्य जनक बात यह है कि 2003 में अनुसूचित जाति से जनजाति के 9 प्रतिश्त अलग हो जाने के बावजूद भी स्थानीय प्रशासन 24 प्रतिश्त के आधार पर आरक्षण जारी रखने का जो खेल खेलरहा है। उसके प्रति कौन जुम्मेदार है.

खनन क्षेत्रों में बाहुबलियों का रहेगा दबदबा

जहां केन्द्र सरकार आदिवासियों को खनन क्षेत्रों मेँ 26 प्रतिश्त की भागीदारी देने का विचार कर रही है वहीं उत्तर प्रदेश में उल्टी गंगा बहती नजर आ रही है। प्रदेश सरकार ने खनन राजस्व को न्यूनतम लक्ष्य निर्धारित करे बाहुबलियों को सौपने की तैयारी कर ली है। क्रश्र उद्योग समूह के प्रदेश अध्यक्ष वी.के. शुल्का बताते है कि प्रदेश में 500 से अधिक खदानों पर अधारित क्रश्र प्लान्टों पर तीन लाख से अधिक लोग रोजगार से जुड़े हुये है। खनन राजस्व का प्रबंधन का निजी करण मे देने से माफियाओं और बाहुबलियों के आने से इस उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। 20 अगस्त से प्रदेश में राजस्व वसूली की नयी व्यवस्था लागू हो रही है।

 सुरेन्द्र अग्निहोत्री