भारत के राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक इतिहास में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ऐसे महापुरुष के रूप में लिया जाता है, जिन्होंने भारतीय चिंतन की जड़ों से जुड़कर आधुनिक युग के लिए एक नई दिशा प्रस्तुत की। उनका जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा जनपद के नगला चंद्रभान ग्राम (उत्तर प्रदेश) में हुआ। अल्पायु में ही माता-पिता का साया सिर से उठ गया, लेकिन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने शिक्षा और साधना के बल पर स्वयं को ऊँचे वैचारिक स्तर तक पहुँचाया। आज उनकी 109वीं जयंती पर उनके जीवन, कार्य और विचारों को स्मरण करना अत्यंत प्रासंगिक है।
वैचारिक पृष्ठभूमि
दीनदयाल जी साधारण परिस्थितियों से आए व्यक्ति थे, परंतु उनकी सोच असाधारण थी। उन्होंने राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का साधन न मानकर, समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक सेवा और विकास पहुँचाने का माध्यम माना। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के रूप में समाज जीवन का आरंभ किया और बाद में भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। परंतु उनका योगदान केवल राजनीतिक दायरे तक सीमित नहीं रहा; वे मूलतः एक दार्शनिक, चिंतक और समाज सुधारक थे।
एकात्म मानववाद
20वीं शताब्दी में जहाँ पूँजीवाद और साम्यवाद की विचारधाराएँ दुनिया को बाँट रही थीं, वहीं दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ का विचार रखा। उनका मानना था कि भारतीय समाज की समस्याओं का समाधान पश्चिमी विचारधाराओं की नकल से नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक परंपराओं और जीवन-मूल्यों पर आधारित नीति से होगा।
एकात्म मानववाद का केंद्रीय संदेश था – व्यक्ति और समाज का संतुलित विकास। इसमें न व्यक्ति को समाज से ऊपर रखा गया और न ही समाज को व्यक्ति से बड़ा बनाया गया। उनका मत था कि मनुष्य केवल शरीर या बुद्धि मात्र नहीं है, बल्कि उसमें आत्मा भी है। अतः विकास केवल भौतिक स्तर तक सीमित न होकर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक स्तर पर भी होना चाहिए।
अंत्योदय का सिद्धांत
दीनदयाल जी ने “अंत्योदय” की अवधारणा रखी – अर्थात समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास और सुविधा पहुँचाना। उनका विश्वास था कि किसी भी राष्ट्र का वास्तविक उत्थान तभी संभव है जब गरीब से गरीब व्यक्ति भी सम्मान और अवसर पा सके। यह विचार आज भी भारत सरकार की अनेक नीतियों और योजनाओं की प्रेरणा का स्रोत है। “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” का नारा मूलतः अंत्योदय की ही आधुनिक अभिव्यक्ति है।
संगठन और नेतृत्व
भारतीय जनसंघ के संगठनकर्ता के रूप में दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी राजनीति की मजबूत नींव रखी। उनका जीवन त्याग, तपस्या और निष्ठा का प्रतीक था। वे सुविधा और पद की राजनीति से दूर रहते हुए केवल राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते थे। उनका विचार था कि राजनीति में नैतिकता और चरित्र की प्रधानता होनी चाहिए, तभी लोकतंत्र सही अर्थों में जीवित रह सकता है।
अकाल मृत्यु और अपूर्ण स्वप्न
11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर उनकी रहस्यमयी मृत्यु हो गई। यह क्षण भारतीय राजनीति के लिए गहरा आघात था, क्योंकि उनका जीवनकाल राष्ट्र के लिए अनेक योजनाओं और विचारों का आधार बन रहा था। यदि वे लंबे समय तक जीवित रहते तो संभवतः भारतीय राजनीति और समाज में वैचारिक पुनर्जागरण और भी गहराई तक पहुँचता।
वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता
आज जब दुनिया पुनः आर्थिक असमानता, भौतिकवाद और पर्यावरण संकट जैसी चुनौतियों से जूझ रही है, तब दीनदयाल उपाध्याय का “एकात्म मानववाद” अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है। उनका यह संदेश कि विकास का केंद्रबिंदु मनुष्य हो, और हर व्यक्ति का समुचित उत्थान हो, 21वीं सदी में भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना 20वीं सदी में था।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दर्शन हमें यह सिखाता है कि राजनीति केवल सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि जनसेवा का माध्यम है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को आधार बनाकर एक ऐसी विचारधारा दी, जिसमें समग्र विकास, नैतिकता और मानवीय संवेदना निहित है। उनकी जयंती पर हमें उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए, ताकि अंत्योदय का उनका सपना – “समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास और अवसर पहुँचाना” – वास्तविकता बन सके।
– सुरेश गोयल धूप वाला