आर्थिकी

60 साल की संसद, सड़ता अनाज और भूखे लोग

हिमकर श्याम

भारतीय संसद 60 साल की हो गयी है। हमारे पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है तो भविष्य को लेकर चिंताएं भी कम नहीं है। परिस्थितियां विकट हैं, और संकटमय हैं। राजनीतिक व्यवस्था चरमरायी हुई दिखाई देती है। पिछले दशकों में इस व्यवस्था में जो भयावह विसंगति पैदा हुई है उसने देश को यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि राजनीतिक, संवैधानिक व्यवस्था हमारी आवश्यकताओं-आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं? छह दशक पहले संसद के सामने जो चुनौतियां थीं, वह आज भी उसी रूप में खड़ी हैं। बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी की समस्या बड़ी चुनौती के रूप में बरकरार है। जिस देश में करोड़ों लोग पेट भर भोजन न कर पाते हों वहां सरकारी गोदामों में हजारों टन अन्न की बर्बादी शर्मसार करने वाली है।

किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गरीबी और भुखमरी सबसे त्रासद स्थिति है। जब तक पेट के लिए अनाज और हाथों के लिए काम नहीं मिलता तब तक देश की प्रगति और संसद के 60 साल पूरे होने का जश्न बेमानी है। भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के सरंक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। इसमें पर्याप्त पोषण, कपड़ा, सर पर छत और पढ़ने, लिखने एवं अपने को विविध रूप में अभिव्यक्त करने की सुविधाएं आती हैं। इन सबमें सबसे ऊपर है भोजन का अधिकार। खाद्यान्न की कमी के कारण कोई समस्या हो तो बात कुछ हद तक समझ में आती है लेकिन रिकार्ड पैदावार के बावजूद लोगों तक निवाला न पहुंचे यह बात समझ से परे है। यह कैसी व्यवस्था है कि गेहूं के रिकार्ड पैदावार के बावजूद लोगों को सस्ते दर पर गेहूं उपलब्ध नहीं हैं। कीमतें आसमान पर हैं। किसानों और उपभोक्ताओं को इसका उचित लाभ नहीं मिल रहा है। अनाज के अतिरिक्त भंडार के बावजूद गांवों और शहरों की झुग्गी-झोपडि़यों में रहनेवालों लाखों बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों को दो वक्त पेट भरने लायक पौष्टिक आहार नहीं मिलता। इसके लिए काफी हद तक सरकारी उदासीनता और अनाज प्रबंधन की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी जिम्मेदार है।

देश का अनाज प्रबंधन संकट में है। साल-दर-साल अनाज गोदामों में सड़ता रहता है, लेकिन अभी तक इसके भंडारण और वितरण के लिए कोई कायदे का तंत्र नहीं बन पाया है। पिछले कुछ वर्षो में खपत की तुलना में भारी स्टॉक एकत्रित हो गया है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में जगह की कमी, कोल्ड स्टोरेज नहीं होना, गोदामों का दूसरे कामों में उपयोग होना, उचित प्रबंधन ना होना सहित कई अन्य कारणों की वजह से अनाज सड़ रहा है या खराब हो रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों से अनाज सड़ने की खबरें आती रहती हैं। पिछले वर्षों के दौरान पंजाब जैसे राज्यों में अनाज सड़कों पर सड़ता रहा और जिन राज्यों में अनाज की आवश्यकता थी, वहां लोग भूख से मरते रहे। रांची के एक गोदाम में छह साल पहले सड़े हुए अनाज को नहीं हटाने से नए अनाज में कीड़े लगने की संभावना प्रबल हो गयी है। बीकानेर में सैकड़ों क्विंटल गेहूं पानी की वजह से खराब हो गया। भंडारण के अभाव में प्रत्येक साल लाखों टन अनाज सड़ जाता हैं। विगत तीन साल साल में देश में लगभग 58 हजार टन अनाज खराब हुआ है। देश में खाद्यान्न के भंडारण के लिए सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में गोदाम हैं और न ही भंडारण क्षमता बढ़ाने की कोई पुख्ता योजना। अनाजों की बर्बादी की बात सरकार भी मानती है। खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने राज्यसभा में बताया कि वित्तीय वर्ष 2011-12 के दौरान पंजाब में 76,762 टन और हरियाणा में 10,456 टन गेहूं सड़ गया।

देश में इस साल 25 करोड़ टन की रिकार्ड ऊंचाई पर पहुँच सकता है। उपलब्ध गोदामों में इतने अनाज का भंडारण संभव नहीं है। भारतीय खाद्य निगम के पास भंडारण की क्षमता नहीं है और उसके कुछ गोदामों में रखा हुआ गेहूं पहले से ही सड़ रहा है। कई जगह तो भंडारण के अभाव में अनाज खुले में ही पड़ा है। देश भर में एफसीआई के पांच क्षेत्रीय कार्यालय है। अखिल भारतीय स्तर पर करीब 1820 गोदाम है जिसमें खुद एफसीआई के तथा किराये के गोदाम शामिल हैं। इन गोदामों की भंडारण की क्षमता मांग के अनुरूप नहीं है। एफसीआई द्वारा तमाम कोशिशों के अनाज भंडारित करने की क्षमता विकसित हो पायी है। भंडारण क्षमता को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा योजना तो बनायी गयी लेकिन नतीजा सिफर रहा। अन्न भंडारण की जो क्षमता उपलब्ध है उसका इस्तेमाल सही ढ़ंग से नहीं हो पा रहा है। भंडारण की अच्छी व्यवस्था न होने से उत्पादन का बड़ा हिस्सा बरबाद हो जाता है। अन्न का कुछ भाग चूहों और कीड़ो आदि के चलते नष्ट हो जाते हैं और शेष का बड़ा भाग हम अपनी लापरवाही से बरबाद कर देते हैं।

खाद्यान्न के आपूर्ति के लिए जो राज्य भारतीय खाद्य निगम पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं, वहां उठाव एवं वितरण के कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। फलस्वरूप समय पर गरीब एवं कमजोर वर्ग के लोगों को अनाज उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिन राज्यों में भंडारण की समुचित व्यवस्था है और राज्य सरकार के पास बेहतर आधारभूत संरचना उपलब्ध है वहां कुछ हद तक अनाज का वितरण सही तरीके से हो रहा है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में यह व्यवस्था कमोबेश कारगर ढंग से काम करती रही है। छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने यह साबित किया है कि अगर राज्य चाहे, तो सस्ता अनाज सचमुच जनता तक पहुंचाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ ने इस क्षेत्र में उदाहरण प्रस्तुत किया है। अन्य राज्यों में काफी प्रयास के बाद भी छत्तीसगढ़ की वितरण व्यवस्था का अनुकरण संभव नहीं हो पा रहा है। बिहार और झारखंड की स्थिति काफी दयनीय है। यहां जनवितरण प्रणाली की हालत खराब है। सरकार गरीबों को सड़ा अनाज खिला रही है।

भारतीय खाद्य निगम के बंद या खुले गोदामों में सड़ रहा अनाज गरीबों में बांट देने की मांग समय-समय पर उठती रहती है लेकिन सरकार इस तरह मुफ्त अनाज बांटने के लिए तैयार नहीं होती है। पिछले साल देश की सर्वोच्च न्याय संस्था सर्वोच्च न्यायालय ने भूख से होने वाली मौत पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार को देश के सबसे गरीब 150 जिलों की आबादी के लिए अतिरिक्त 50 लाख टन अनाज आवंटित करने का आदेश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय व्यवस्था की विसंगति का संज्ञान लेकर जब आदेश देता है कि अनाज को सड़ाने की बजाए सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी मुफ्त आपूर्ति सुनिश्चित करे तो हर बार सरकार की तरफ से यहीं जवाब आता है कि गरीबों को मुफ्त में अनाज बांटने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करना संभव नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी समय-समय पर भूख से होनेवाली मौत पर चिंता जाहिर की जाती रही है। इन सबके बावजूद गरीबों तक निवाला नहीं पहुंच रहा है और भुखमरी अपनी जगह कायम है।

भंडारण की कमी किसानों की मेहनत ही नहीं करोड़ों भूखों से उनका निवाला भी छीन रही है। कृषि उत्पादन की लागत, खपत, परिवहन और भंडारण में निरंतर गिरावट से किसानों को हर साल आर्थिक नुकसान होता है। कृषि उपज का पर्याप्त समर्थन मूल्य नहीं मिलने की वजह से किसानों की कुल आय बहुत कम हो गयी है। समुचित भंडारण के अभाव में खुले में रखा अनाज जिस तरह से बर्बाद हो रहा है, वह वास्तव में एक चिंताजनक विषय है। एक तरफ भुखमरी से मरने वालों की तादाद में निरंतर वृद्धि हो रही है तो दूसरी तरफ ये बर्बादी भी बदस्तूर जारी है।

सरकार अन्न भंडारण के नाम पर अरबों रूपये उड़ा देती है, लेकिन निर्धनतम लोगों को मुफ्त या बहुत सस्ता अनाज देने को तैयार नहीं होती। एक गंभीर और चिंताजनक मुद्दे का राजनीतिकरण कर दिया गया है। समस्या को सुलझाने की बजाय केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराती रही हैं। इस विषम परिस्थिति के लिए व्यवस्था की खामियां ही जिम्मेदार हैं। कोई भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। अन्न के साथ खिलवाड़ या लापरवाही को हल्के में नहीं लेना चाहिए। अन्न की बर्बादी एक अपराध है। बढ़ती जनसंख्या तथा घटती जमीन को देखते हुए अन्न भंडारण किया जाना नितान्त आवश्यक है।

संसद देश की सबसे अहम संस्था है। हमारे संविधान ने संसद को सर्वोच्च स्थान दिया है। भारतीय संसद के 60 साल पूरे होने पर क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष, सभी सांसद भले ही खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हों लेकिन यह भी सच है कि इन वर्षों में अपने जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता के विश्वास में कमी आयी है। इस स्थिति के लिए हमारे जनप्रतिनिधि ही बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। जनप्रतिनिधियों का काम जनहित से जुड़े मुद्दों पर सदन में चर्चा करना है। जनकल्याण और विकास के लिए जनप्रतिनिधियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है लेकिन विसंगति है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। सियासत में आयी गिरावट ने संसद को उसके बुनियादी काम से ही भटका दिया है। यह विडंबना है की सदन में गरीबी, सूखा, बाढ़, बेराजगारी और ग्रामीण विकास जैसी बुनियादी मसलो को हमेशा रस्मी तौर पर उठाया जाता रहा है। देश की संसद अगर इस पर मंथन नहीं कर सकी तो देश की जनता इसका हिसाब अपने सांसदों से जरूर मांगेगी।