शम्भू शरण सत्यार्थी
पचास वर्षीय बसन्ती देवी पेट के दर्द से कराहते रहती थी. उसके पति रामनाथ उसे दिखाने के लिए पटना के एक प्राइवेट अस्पताल में ले जाते हैं. डॉक्टर जाँच के बाद बताता है कि पेट के अंदर गाँठ बन गया है. कैंसर की संभावना है. 15 दिन बाद फिर आइएगा .अन्य जाँच के साथ कैंसर का भी जाँच होगा. 15 दिन के बाद पुनः उसे अस्पताल ले जाते हैं. जाँच के बाद कुछ दिनों के बाद बताया जाता है कि इसे कैंसर है .इसका सही इलाज मुम्बई कैंसर संस्थान में होगा.रामनाथ के पास न तो पैसे हैं न ही वह कभी मुम्बई गया है.वह थक हारकर इलाज कराना छोड़ देता है.तीन महीने में बसन्ती की मौत ईलाज के अभाव में हो जाता है.यह घटना सिर्फ अकेली बसन्ती की नहीं बल्कि देश के करोड़ों लोगों की है जो पैसे के अभाव में अपना इलाज नहीं करा पा रहे है और मजबूर होकर दम तोड़ दे रहे हैं.
इस देश में स्वास्थ्य सेवाएँ हमेशा से एक बड़ी चुनौती रही है.यहाँ पर करोड़ों लोग गाँवों और कस्बों में रहते हैं, जहाँ बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ तक ठीक से उपलब्ध नहीं हैं. शहरों में आधुनिक अस्पताल तो हैं, लेकिन वहाँ इलाज इतना महँगा है कि गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए यह सिर्फ एक सपना ही बनकर रह जाता है. हाल ही में आई एक रिपोर्ट ने इस स्थिति की भयावहता को उजागर कर दिया है कि देश में लगभग 42 प्रतिशत मरीज आर्थिक तंगी के कारण इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं और इनमें से 35 प्रतिशत मरीज महज़ छह महीनों के भीतर मौत का शिकार हो जाते हैं. यह आँकड़ा न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि हमारी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था पर एक गहरा प्रश्नचिह्न भी है.
बीमारी इंसान के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी होती है. स्वस्थ शरीर ही खुशहाल जीवन की नींव है, लेकिन जब बीमारी आती है तो वह न केवल शरीर को कमजोर करती है, बल्कि परिवार की आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति को भी हिला देती है. किसी भी परिवार के लिए यह सबसे कठिन स्थिति होती है जब उन्हें अपने ही प्रियजन के जीवन और पैसों के बीच चुनाव करना पड़े. इलाज चल रहा हो, लेकिन पैसे खत्म हो जाएँ और डॉक्टर या अस्पताल वाला कहे कि अब बिल चुकाए बिना इलाज आगे नहीं बढ़ सकता, तब मजबूर परिवारों को मरीज को बीच रास्ते से घर ले जाना पड़ता है.यही वह दर्दनाक क्षण है जो हजारों परिवार हर साल झेलते हैं.
सबसे कठिन स्थिति ट्रॉमा यानी दुर्घटना के शिकार मरीजों की होती है. सड़क हादसे, गंभीर चोट या फैक्ट्री में लगी कोई दुर्घटना ये सब ऐसी घटनाएँ हैं जिनमें मरीज को तुरंत इलाज की ज़रूरत होती है और अक्सर महीनों तक आईसीयू, ऑपरेशन और निगरानी में रहना पड़ता है.निजी अस्पतालों में इसका खर्च लाखों से बढ़कर करोड़ों तक पहुँच सकता है. एक मध्यमवर्गीय या गरीब परिवार कुछ ही दिनों में टूट जाता है और मजबूरी में मरीज को डिस्चार्ज करवा देता है. आँकड़े बताते हैं कि निजी ट्रॉमा सेंटर्स में भर्ती 42 प्रतिशत मरीज आर्थिक तंगी के चलते बीच में ही इलाज छोड़ देते हैं और इनमें से एक तिहाई से अधिक की मौत छह महीनों के भीतर हो जाती है. यह केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि उस परिवार की चीख है जिसे अपनी असमर्थता के कारण अपने ही परिजन की मौत को आँखों के सामने देखना पड़ता है.
बीच में इलाज छोड़ देने से मौत का खतरा तीन गुना तक बढ़ जाता है. यह वैसे ही है जैसे कोई किसान आधे खेत की ही सिंचाई करे और बाकी खेत को सूखने के लिए छोड़ दे. अधूरा इलाज मरीज के लिए और भी खतरनाक साबित होता है, क्योंकि शरीर बीमारी से लड़ने की स्थिति में नहीं रह जाता और संक्रमण या दूसरी जटिलताओं का शिकार हो जाता है. यह स्थिति बताती है कि पैसा न होने की वजह से मरीज को सिर्फ बीमारी ही नहीं मारती, बल्कि गरीबी भी उसकी जान ले लेती है.
गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार इस त्रासदी के सबसे बड़े शिकार हैं.अमीरों के पास इतना पैसा होता है कि वे किसी भी अस्पताल का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन गरीब परिवारों के पास अक्सर ऐसा कोई सहारा नहीं होता. कभी जमीन बेचनी पड़ती है, कभी कर्ज लेना पड़ता है, कभी रिश्तेदारों से मदद माँगी जाती है. कई बार तो लोग कर्ज के बोझ से आत्महत्या तक कर लेते हैं.एक मरीज की बीमारी पूरे परिवार के लिए अभिशाप बन जाती है. वह परिवार न केवल आर्थिक रूप से टूटता है बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी बिखर जाता है.
यह स्थिति बताती है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएँ अमीर और गरीब के बीच बाँट दी गई हैं.अमीरों के लिए आधुनिक तकनीक और सुविधाओं से लैस निजी अस्पताल हैं, जबकि गरीब और मध्यम वर्गीय लोग सरकारी अस्पतालों की भीड़ में अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं. सरकारी अस्पताल अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं, लेकिन वहाँ भी समस्याएँ कम नहीं लंबी कतारें, डॉक्टरों की कमी, दवाइयों और मशीनों का अभाव. इस वजह से समय पर इलाज नहीं मिल पाता और मरीज की स्थिति बिगड़ती चली जाती है.
सरकार ने आयुष्मान भारत जैसी योजनाएँ शुरू की हैं ताकि गरीबों को पाँच लाख रुपये तक का बीमा कवर मिल सके. लेकिन वास्तविकता यह है कि निजी अस्पताल अक्सर इन योजनाओं को मानते ही नहीं या फिर मरीज को योजना के नाम पर टाल देते हैं. बीमा कंपनियाँ भी कई शर्तों और नियमों के नाम पर पूरा पैसा देने से बचती हैं. ऐसे में आम आदमी को बीमा होने के बावजूद पूरा लाभ नहीं मिल पाता.
बीमारी का बोझ सिर्फ जेब पर नहीं पड़ता, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है. परिवार के लोग अपराधबोध से घिर जाते हैं कि वे अपने ही प्रियजन को बचा नहीं पाए. आर्थिक बोझ और सामाजिक दबाव उन्हें और भी तोड़ देता है. कई बार मरीज के साथ-साथ पूरा परिवार अवसाद और निराशा का शिकार हो जाता है.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि इलाज अधूरा छोड़ना आत्मघाती कदम है.खासकर ट्रॉमा या गंभीर बीमारियों में अधूरा इलाज जानलेवा साबित होता है. विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करना चाहिए, निजी अस्पतालों को गरीब और मध्यम वर्गीय मरीजों के लिए रियायती सुविधाएँ देनी चाहिए और बीमा योजनाओं को सही तरीके से लागू करना चाहिए.
इस समस्या के कई मूल कारण हैं. भारत में स्वास्थ्य पर जीडीपी का बेहद छोटा हिस्सा ही खर्च होता है, जबकि जरूरत इससे कहीं अधिक है. निजी क्षेत्र का वर्चस्व बढ़ चुका है और आधुनिक सुविधाएँ उसी के पास हैं. गरीबी और बेरोजगारी के कारण लोगों की आय इतनी नहीं है कि वे महंगे इलाज का बोझ उठा सकें.स्वास्थ्य बीमा का कवरेज भी सीमित है.
इस स्थिति से निकलने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं.सबसे पहले, स्वास्थ्य बजट को बढ़ाना जरूरी है ताकि सरकारी अस्पतालों में आधुनिक सुविधाएँ और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो सकें. दूसरी बात, निजी अस्पतालों पर नियंत्रण के लिए कठोर कानून बनाए जाएँ ताकि वे इलाज के नाम पर मनमाना पैसा न वसूल सकें. तीसरी बात, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का विस्तार किया जाए और हर नागरिक को इसका लाभ सुनिश्चित हो. चौथी बात, हर जिले में अत्याधुनिक ट्रॉमा सेंटर बनाए जाएँ ताकि दुर्घटना के शिकार मरीजों को तुरंत और सही इलाज मिल सके. पाँचवीं बात, जेनेरिक दवाओं की दुकानों का विस्तार किया जाए ताकि दवाएँ आम आदमी की पहुँच में हों.
दुनिया के कई देशों ने स्वास्थ्य सेवाओं को सबकी पहुँच में लाने के लिए बड़े कदम उठाए हैं.ब्रिटेन में नेशनल हेल्थ सर्विस हर नागरिक को मुफ्त इलाज देती है. कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में स्वास्थ्य सेवा करों से संचालित होती है. वहाँ कोई भी नागरिक सिर्फ पैसे की कमी के कारण इलाज अधूरा नहीं छोड़ता.भारत को भी इसी दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे.
यह कहा जा सकता है कि बीमारी और दुर्घटना किसी भी इंसान के जीवन में अचानक आ सकती है, लेकिन इलाज सिर्फ पैसों के कारण रुक जाना हमारे समाज की सबसे बड़ी विफलता है.जब तक हर नागरिक को बिना भेदभाव के सस्ती, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा नहीं मिलेगी, तब तक विकास के सारे दावे अधूरे रहेंगे. इलाज अधूरा छोड़ने की मजबूरी सिर्फ एक मरीज की मौत नहीं है, यह हमारे पूरे स्वास्थ्य ढांचे की कमजोरी का सबूत है. यह स्थिति हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सचमुच एक संवेदनशील और समानता आधारित समाज की ओर बढ़ रहे हैं, या फिर स्वास्थ्य सेवाओं को भी अमीर और गरीब की सीमा रेखा में बाँट रहे हैं.
शम्भू शरण सत्यार्थी