कविता

कविता – उसे चुनना है

मैं अंतरिक्ष में भटक रहा हूँ

पिंजरे में कैद मात्र शून्य की तरह लचीली रेखा भी मेरे साथ घुम रही है

मैं आश्वस्त हूँ सभी बंद रास्तों के बावजूद

महाशून्य मेरी आंखों में नहीं उतरा है ।

 

मेरे समझ से मैं

उस काल में अस्त हो रहा हूँ

जहाँ दिशाएं निर्वाण की तरह

लटकने को आतुर है ।

 

मेरा वादा था उन फूलों से

जो ढंक लेती थी मेरे सारे उमस को

उन नदियों से

जो पाट देती थी मेरे सारे खेतों को

उन हवाओं से

जो सुखा देती थी मेरे सारे पसीनों को

कि अखबार की सुर्खियां नहीं बनने दूंगा

चाहूंगा कि मेरा आंगन खिले

पूरी की पूरी जिजीविशा के संग ।

 

बावजूद उन वादों के पन्नों में

मैं अपने आपको देख लेता हूँ

जैसे किसी ने मुझे देखी है

भ्रम व भय के जाल से

ताकि होने के वादे पर मैं होता हूँ

उन कुमार्गों में न जिसे मैंने चुना था

न जिसने मुझे चुना था ।

 

न जाने क्यों मुझे उठना चाहिए

और मन के गुलाब में

कोई कांटा उगा लेना चाहिए ।

 

हाँ वे गलियां अभी बंद नहीं है

तभी तो फूल. नदी. हवा

मेरी सांसों में बस गयी है

और शून्य के परतों को

मैं बुहारने में लगा हूँ ।

मोतीलाल