कविता:अपने ही कमरे मेँ– मोतीलाल

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एक विस्मृत

जर्जर कमरे मेँ

मै गिर जाता हूँ

और गुजरता हूँ

नम तंतुओँ के बीच से

नष्ट हो चुकी चीजोँ के बीच

जैसे मवेशियाँ

चरते होँ अपने चारागाह मेँ

 

मैँ इस तीखे माहौल मेँ

मरणासन्न गंधोँ की लहरोँ के सामने महसूसता हूँ

उन हरे पत्तोँ की सरसराहट

जो अंधेरे बरामदोँ मेँ कहीँ

किसी भी पतझड़ के विरुद्ध

लड़ने की ताकत रखता है

 

अपने रोके गये हाथोँ को

परित्यक्त जड़ता मेँ कहीँ

फिर से खामोश भीड़ के सामने

पूरी ताकत से लहरा उठता हूँ

जैसे आत्माओँ से भरी पड़ी राख

पूरे विश्व को ढंक लेता है

कि हरे पदार्थोँ की खोज

उद्गम विहिन विलाप के साथ

कहीँ ऐन बीच मेँ दम न तोड़ ले

 

कौन तोड़ रहा है

भाषायी चीखोँ को

धमनियोँ के शिथिल जल मेँ

कौन उछाल रहा है

इस चट्टानी आंत पर

उन विदाईयोँ को

जो विभाजित शब्दोँ मेँ

तंतुओँ के बीच से

मेरे कमरे मेँ गिर रहे हैँ ।

 

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