रामस्वरूप रावतसरे
मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन ने कानूनी तर्कों के साथ हिंदू समुदाय के इस प्राचीन अनुष्ठान को हरी झंडी दिखाई लेकिन डीएमके के नेतृत्व में आईएनडीआई गठबंधन ने इसे ‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण’ का हथियार बताते हुए जज के खिलाफ महाभियोग का नोटिस दिया है। 9 दिसंबर 2025 को लोकसभा स्पीकर को सौंपे गए इस नोटिस पर प्रियंका गाँधी, अखिलेश यादव समेत 120 सांसदों के हस्ताक्षर हैं। तमिलनाडु की पवित्र थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी पर कार्तिगई दीपम की लौ जलाने का पारंपरिक अधिकार अब एक संवैधानिक संकट में बदल चुका है।
यह महज एक फैसले का मामला नहीं बल्कि एंटी-हिंदू ताकतों की लंबी साजिश का हिस्सा है, जहाँ डीएमके, कॉन्ग्रेस, वामपंथी दल और इस्लामी कट्टरपंथी मिलकर न्यायपालिका को भी अपने निशाने पर ले रहे हैं। हिंदू परंपराओं को कुचलने के लिए संवैधानिक संस्थाओं पर हमला बोलना इनकी पुरानी आदत है, और यह पहला मौका नहीं जब किसी जज को हिंदुओं के हक में सही फैसला देने के लिए बदनाम किया गया हो।
जानकारों के अनुसार कार्तिगई दीपम तमिलनाडु का एक प्रमुख हिंदू त्योहार है जो कार्तिगई मास की पूर्णिमा पर मनाया जाता है। यह प्रकाश की विजय का प्रतीक है, जहां दीपक जलाकर अंधकार पर अच्छाई की जीत का उत्सव होता है। छठी शताब्दी में पांड्य राजाओं द्वारा निर्मित थिरुपरनकुंद्रम सुब्रमण्या स्वामी मंदिर भगवान मुरुगन के छह प्रमुख निवासों में से पहला है। ये कार्तिगई दीपम उत्सव का केंद्र रहा है। पहाड़ी को काटकर तराशा गया यह मंदिर रोजाना तीन बार पूजा-अभिषेक और दीप आराधना का साक्षी है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस्लामी कट्टरपंथी तत्व पहाड़ी पर कब्जे की कोशिश कर रहे हैं।
मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने यहाँ नमाज की माँग की, नाम बदलने की साजिश रची, और अब दीपम जलाने की परंपरा को ही चुनौती दे रहे हैं। पहाड़ी की चोटी पर स्थित ‘दीपथून’ (दीपस्तंभ) पर पारंपरिक रूप से दीपक जलाया जाता रहा है लेकिन सिकंदर बादूशा दरगाह के निकट होने के कारण डीएमके सरकार ने इसे ‘संवेदनशील’ बताकर रोक लगा दी है।
जस्टिस स्वामीनाथन की सिंगल बेंच ने 4 दिसंबर 2025 को शाम 6 बजे तक दीपक जलाने की अनुमति दी। उन्होंने साल 1923 के पुराने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि इससे मुस्लिम समुदाय के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे बल्कि दीप न जलाने से मंदिर की भूमि पर मालिकाना हक कमजोर हो सकता है। उन्होंने दरगाह प्रबंधन की अनधिकृत कब्जे की कोशिशों पर चेतावनी दी और कहा कि मंदिर प्रशासन को सतर्क रहना होगा। उन्होंने मुख्य सचिव को समन जारी किया और ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ पर सवाल उठाया। जज स्वामीनाथन के आदेश के खिलाफ डीएमके सरकार ने मद्रास हाई कोर्ट की डबल बेंच (जस्टिस जयचंद्रन और के.के. रामकृष्णन) में अपील की, लेकिन डबल बेंच ने भी सिंगल बेंच के आदेश को सही ठहराया, कहा कि इसमें कोई नियम उल्लंघन नहीं है। सीआईएसएफ की सुरक्षा का आदेश पुलिस की नाकामी के कारण दिया गया था।
जानकारों के अनुसार डीएमके का यह कदम महज संयोग नहीं बल्कि सुनियोजित साजिश है। पार्टी ने आरोप लगाया कि जज का फैसला 2017 की खंडपीठ के फैसले के खिलाफ है और चुनाव से पहले सांप्रदायिक तनाव फैला रहा है। नेता टीआर बालू ने लोकसभा में कहा, “भाजपा तमिलनाडु में दंगे भड़काने की कोशिश कर रही है। दीप सरकारी अधिकारी जलाएँगे न कि अदालत के आदेश पर कुछ लोग।” लेकिन सच्चाई यह है कि डीएमके की यह प्रतिक्रिया अल्पसंख्यक वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित है। 2026 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों से पहले हिंदू परंपराओं को कुचलकर मुस्लिम तुष्टिकरण का कार्ड खेला जा रहा है।
कॉन्ग्रेस की प्रियंका गाँधी और सपा के अखिलेश यादव जैसे नेता हस्ताक्षर देकर इस साजिश में शरीक हो गए हैं जो आईएनडीआई गठबंधन की एंटी-हिंदू छवि को और मजबूत करता है। कॉन्ग्रेस का इतिहास ही गवाह है इंदिरा गांधी काल से लेकर सोनिया-राहुल तक, हर बार हिंदू धरोहर (जैसे अयोध्या, काशी) पर हमला बोला गया। अब मद्रास हाईकोर्ट को निशाना बनाकर वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रहार कर रहे हैं।
जानकारों की माने तो यह पहला मौका नहीं है जब एंटी-हिंदू ताकतें जजों को हिंदू पक्ष में फैसला देने के लिए निशाना बना रही हैं। 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कई जजों को ‘हिंदूवादी’ बताकर बदनाम किया गया। 2019 में सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या फैसले पर कॉन्ग्रेस-वीकेपी ने ‘न्यायिक पक्षपात’ का शोर मचाया जबकि फैसला कानूनी तर्कों पर आधारित था। केरल में सबरीमाला मंदिर केस में जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने हिंदू परंपराओं का बचाव किया तो वामपंथी-कॉन्ग्रेस गठबंधन ने उन्हें ‘संघी’ करार दिया।
डीएमके और इंडी गठबंधन की दोगली राजनीति को इसी बात से समझा जा सकता है कि जब विद्वान जज स्वामीनाथन ने ‘उनकी विचारधारा के लोगों’ के पक्ष में फैसले दिए थे, तब यही लोग उनकी वाहवाही कर रहे थे। जैसे तमिलनाडु में साल 2022 के ‘सवुक्य’ शंकर केस में जस्टिस स्वामीनाथन ने अवमानना पर जेल का आदेश दिया था लेकिन बाद में उन्होंने उसे जमानत भी दे दी। तब तो उनके फैसले का विरोध नहीं हुआ। यही नहीं, उन्होंने ही तब्लीगी जमात केस (2020) में मुस्लिम समुदाय को सहानुभूति देकर रिहाई का आदेश दिया था। तब भी उनका कोई विरोध नहीं किया गया लेकिन जैसे ही उन्होंने हिंदू अधिकारों की रक्षा की तो डीएमके-इंडी ने महाभियोग का हथियार उठा लिया।
जनकारों के अनुसार इस्लामी कट्टरपंथियों की भूमिका भी कम नहीं। थिरुपरनकुंद्रम में दरगाह प्रबंधन ने 1923 के फैसले के बावजूद अनधिकृत कब्जे की कोशिश की जो ‘लैंड जिहाद’ का हिस्सा है। वो इस विवाद के केंद्र में हैं। मुस्लिम समुदाय द्वारा पूरे भारत में मंदिरों पर कब्जे की घटनाएँ काशी विश्वनाथ से ज्ञानवापी, मथुरा से लेकर तमिलनाडु के छोटे मंदिरों तक इसकी गवाही देती हैं और द्रविड़ आंदोलन की आड़ में इस्लामी वोट बैंक पर निर्भर डीएमके इन कट्टरपंथियों को खुला संरक्षण दे रही है।
वैसे, कॉन्ग्रेस के बारे में पूरा देश जानता है कि कॉन्ग्रेस का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ सिर्फ दिखावा है। असल में वो हमेशा अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति करती रही है। जज स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर प्रियंका गांधी का हस्ताक्षर इसकी पुष्टि करता है। एक तरह कॉन्ग्रेस की टॉप लीडरशिप उत्तर प्रदेश में हिंदू वोट के लिए राम मंदिर जाती है तो दूसरी तरफ तमिलनाडु में हिंदू परंपरा के खिलाफ खड़ी हो जाती है। यह दोहरा चरित्र एंटी-हिंदू गठबंधन की पहचान है।
सीपीआई(एम) और सीपीआई ने हमेशा हिंदू त्योहारों को ‘फासीवादी’ बताकर विरोध किया। एक तरफ वो केरल में सबरीमाला पर महिलाओं को प्रवेश दिलवाने के नाम पर हिंदू परंपराओं को तोड़ रही है तो दूसरी तरफ तमिलनाडु में कार्तिगई दीपम को ‘पितृसत्तात्मक’ करार दे रही है। उसकी वैचारिक लड़ाई धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू-विरोधी है। अब आईएनडीआई गठबंधन में शामिल होकर वो भी महाभियोग का समर्थन कर रही है।
कुल मिलाकर इंडी गठबंधन द्वारा जज स्वामीनाथन के खिलाफ लाया गया महाभियोग प्रस्ताव न्यायपालिका पर सीधा हमला है। कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं, “महाभियोग हाईकोर्ट जज के लिए असंभव सा है। उसके लिए दो-तिहाई बहुमत चाहिए लेकिन यह दबाव बनाने का हथियार है।” फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में डीएमके की अपील लंबित है लेकिन संसद में मोर्चा खोलकर वे जजों को डराना चाहते हैं। यह 1993 के हाईकोर्ट जजों के महाभियोग प्रयासों की याद दिलाता है जब कॉन्ग्रेस ने राजनीतिक फैसलों पर जजों को निशाना बनाया था।
जानकारों के अनुसार इस पूरे प्रकरण से साफ है कि डीएमके-कॉन्ग्रेस-वामपंथी-इस्लामी कट्टरपंथी गठजोड़ हिंदू धरोहर को मिटाने पर तुला है। थिरुपरनकुंद्रम की तरह ही तमिलनाडु के अन्य मंदिरों तिरुवन्नामलाई के महा दीपम से लेकर रामनाथस्वामी तक पर कब्जे की साजिश चल रही है। 1923 का फैसला साफ कहता है कि दीपथून मंदिर की संपत्ति है लेकिन डीएमके सरकार ने इसे नजरअंदाज किया। विपक्ष का तर्क ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ का है लेकिन असल में वे हिंदू को ‘आक्रामक’ दिखाकर मुस्लिम वोट एकत्र कर रहे हैं।
यह साजिश सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं, यह पूरे भारत की राजनीति को प्रभावित करेगी। 2026 चुनावों में डीएमके हिंदू-विरोधी कार्ड खेलेगी लेकिन जनता जाग चुकी है। सोशल मीडिया पर लाखों हिंदू जज स्वामीनाथन का समर्थन कर रहे हैं।
बहरहाल, कार्तिगई दीपम की यह लौ हिंदू प्रतिरोध की प्रतीक बनेगी। डीएमके-इंडी का यह गठजोड़ असफल होगा क्योंकि संविधान न्यायपालिका की रक्षा करता है लेकिन सवाल यह है कि कब तक हिंदू परंपराओं को तुष्टिकरण की भेंट चढ़ाया जाएगा? वैसे, एंटी-हिंदू ताकतों को याद रखना चाहिए कि प्रकाश की लौ कभी बुझती नहीं, वह तो अंधेरे को ही निगल जाती है। और इसमें भी यही होता लग रहा है।
रामस्वरूप रावतसरे