होली की व्यापकता

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विनोद बंसल

भारतवर्ष त्योहारों का देश है। यूं तो भारतीय संस्कृति में हर त्योहार का अपना महत्व है किन्तु होली का त्योहार अनेक विशिष्टताओं को समेटे हुए है। यह भारतीय काल गणना यानि विक्रमी संवत् का अंतिम त्यौहार है। किसी भी प्रकार के ताम-झाम और तैयारियों के बिना मनाया जाने वाला यह त्यौहार न तो ज्यादा खर्चीला है और न ही किसी प्रकार की औपचारिकता लिए हुए है। किन्तु यदि इसके महत्व की बात करें तो अनगिनत हैं। बिछुड़ों को मिलाना, समता को बढाना, मन को जुडाना और हर प्रकार के भेदों को मिटाना इस त्यौहार की विशिष्टता है। छोटे-बडे, बूढे-जवान, स्त्री-पुरुष, संत-महात्मा, निर्बल-बलशाली, राजा-रंक, धनी-निर्धन होली के दिन सभी एक दूसरे को गले लगाकर आपसी भेद भुला देते हैं। होली के दिन ही सही अर्थों में सामाजिक समरसता के सच्चे दर्शन होते हैं।

फाल्गुनी पूर्णिमा को प्रज्ज्वलित होने वाली होली की आग को नवसस्येष्टी यज्ञ भी कहा जाता है। नवसंस्येष्टी यानि नई फसल पर किया जाने वाला यज्ञ। इस समय गेहूं, जौ व चने इत्यादि नये अन्न की बालियों को होम करते हुए चारों ओर अग्नि की परिक्रमा की जाती है। चने के अधभुने दाने को संस्कृत में ‘होलक’ तथा हिंदी में ‘होला’ कहा जाता है। इन्ही होलों को होली की आग में भून कर प्रसाद रूप में खाने का विधान है। अर्थात होली प्रभु को नई फसल के अर्पण का त्यौहार है।

यह त्यौहार अपने में अनेक विचित्रताएं समेटे हुए है। जहां एक ओर इसके प्रारम्भ में होलिका दहन यानि नवसस्येष्टी यज्ञ के द्वारा अग्नि को सभी कुछ समर्पण कर “इदन्नमम” यानि “यह मेरा नहीं है” का भाव जाग्रत होता है तो वहीं इस त्यौहार के समापन में दुश्मन को भी गले लगा लेने का भाव स्पष्ट दिखाई देता है। जिस प्रकार अग्नि हर कूड़ा-करकट व गंदगी को स्वाह कर वातावरण में ऊष्मा व ताजगी भर देती है, उसी प्रकार होली का त्यौहार आपसी मनमुटाव व राग-द्वेष भुला कर एक रंग करने में सहायक होता है। अनेक शत्रु भी इस दिन गले लग कर ‘बुरा न मानो होली है’ का जयघोष करते हैं। बडी से बडी शत्रुता भी होली के रंगों में स्वाह होती देखी गई है। यह त्यौहार रंग व उल्लास के साथ प्रेम और भाईचारे का संदेश देता है।

होली के साथ जुड़ी हिरण्य कश्यप व प्रह्लाद की कहानी में हिरण्य कश्यप की बहन – होलिका यानि अग्नि है। वह सिर्फ अशुभ को जला सकती है, शुद्ध तो उसमें और निखरता ही है। यही कारण था कि आग की गोद में बैठा प्रह्लाद अनजला बच गया और होलिका का दहन हो गया। पहले अपने मन का कचरा यथा बुरे विचार जलाओ और उसके बाद प्रेम रंग की बरसात करो, यही है होली का मूल मंत्र।

होली की व्यापकता की बात करें तो हम पाते हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में इस त्यौहार की गहरी पैठ है। चाहे चित्रकारिता हो या पत्रकारिता, थियेटर हो या फिल्में, संगीत हो या नृत्य, कहानी हो या कविता, कथा हो या प्रवचन होली के बिना सब अधूरे हैं। भगवान क्रष्ण के बरसाने की होली को देखने तो लोग दुनिया के न जाने किस-किस कोने से इस कलयुग में भी दौडे चले आते हैं। 60 व 70 के दशक में तो आधी से अधिक फिल्में किसी न किसी रूप में होली को ले ही आती थीं।

होली मनाने के अब तक के तौर तरीके समयानुसार बदलते रहे हैं। भाषा, प्रांत व लोक संस्कृति के अनुसार होली मनाने के तरीके तो बदलते रहे किंतु भाव एक रहा। वास्तव में सामूहिक रूप से नवसस्येष्टि अर्थात नई फसल को अग्नि में भोग लगाना ही होली का वैज्ञानिक तथा धार्मिक पक्ष रहा है। इसके अलावा गुलाब की पंखुडियों, गुलाब जल अथवा इत्र का आदान-प्रदान करना, माथे पर चंदन लगाना, बडों को चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेना तथा छोटों, निर्बलों और असहायों को गले लगा कर उनमें आत्मविश्वास व समानता का भाव जगाना ही इस त्योहार को मनाने की पद्यति रही है। किन्तु आज कुछ लोगों द्वारा तरह-तरह के अप्राक्रतिक रंग डालना, तेजाबी रंग या कीचड़ फेकना, मद्यपान करना, भांग का सेवन करना, वस्त्र फाड़ना, अश्लील हरकत करना या कानफोडू भोंडा फिल्मी संगीत बजाना इत्यादि क्रत्यों ने इस पवित्र त्यौहार का रूप बदरंग कर दिया है।

होली कैसे मनाएं – फाल्गुन सुदी चतुर्दशी तक घर की सफाई करके, गुझिया आदि का पकवान बनाकर रख लेने चाहिए। पूर्णिमा के दिन बृहत्त यज्ञ करना चाहिए। आवश्यकतानुसार चन्दन, इत्र, गुलाल आदि का आदान-प्रदान करें। गीत-संगीत, भजन-प्रवचन व हास्य-व्यंग तथा वीर रस के कवि सम्मेलनों या गोष्ठियों का आयोजन करें। होली का सामाजिक रूप भी बड़ा आकर्षक व लुभावना है। हृदय से हृदय मिलाकर ”जो होली सो होली, उसे भुला दे हम। मन में बसी हो ईर्ष्या, उसे मिटा दे हम” यही है होली का संदेश्। वास्तव में यह चारों वर्णों के संगतिकरण का एक अनूठा पर्व है। आपसी मतभेद दूर कर ऊंच नीच का भेद भुला कर हम सभी मस्ती में खोकर एकाकार हो जांए, यही है होली का सच्चा संदेश्।

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