न्याय की धीमी गति पर सवालिया निशान

Supreme-Courtसिद्धार्थ मिश्र स्वतंत्र

 

बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में लालू समेत ३७ दोषियों को सजा मिलने के साथ लोकतंत्र का एक बहुचर्चित काला अध्याय आज अपने पटाक्षेप के नजदीक पहुंच गया है । हांलाकि ये मामला अभी भी न्या्यिक तंत्र के गलियारों में घूमेगा क्योंकि इस मामले पर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय आने शेष हैं । जहां तक इस निर्णय का प्रश्न है तो इसे भी आने में लगभग १७ वर्ष लग गये । इतने सालों के दौरान गंगा-जमुना में न जाने कितना पानी बह गया होगा । कम नहीं होते सत्रह वर्ष वो भी तब जब सभी को पता है कि दोषी कौन है । सब कुछ जानते हुए इतना विलंबित निर्णय कहीं न कहीं हमारी न्याय प्रणाली की अक्षमता को दर्शाता है । कहावतों के अनुसार, justice delayed is justice denied. यदि इस कहावत को स्मरण रखें तो कहीं न कहीं इस निर्णय की खुशी से ज्यादा दुख इस विलंब के लिए होता है । हांलाकि आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब भ्रष्टाचार के किसी मामले पर एक ही साथ दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को सजा सुनाई गयी है । बावजूद इसके न्याय की धीमी गति  हमारी कार्यक्षमता पर सवालिया निशान लगाती है ।

इन सत्रह वर्षों में क्या-क्या हुआ ये तो आप सभी को पता ही है लेकिन एक संक्षिप्त चर्चा तो की जा सकती है । इन वर्षों में भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं के आरोपों के बावजूद लालू जी मुख्यमंत्री एवं केंद्रिय मंत्री पद पर शोभायमान रहे । इस काली करतूत के बावजूद भी लालू जी की सियासत में हनक बरकरार रही । इस हनक को बरकरार रखने के लिए मोलभाव से भी इनकार नहीं किया जा सकता । स्मरण रहे कि साझा सरकारों के दौर में लालू जी मंत्री पद की मलाई काटते रहे हैं । उन्हे पता था कि केंद्र की सत्ता चलाने के लिए कांग्रेस को संसद में समर्थन चाहीये । इसलिए सीबीआई के पर कतरे जाना तो अवश्यसंभावी है । ऐसे में सीबीआई से कितनी निष्पक्ष जांच की आशा की जा सकती थी । अपने इसी सियासी गठजोड़ की बदौलत लालू जी ने इस मामले को दफनाने का हरसंभव प्रयत्न किया । १९९५ में कैग की रिपोर्ट को विधानसभा में खारिज किया गया तो कई ईमानदार अधिकारियों के तबादले और प्रताड़ना का खेल भी खेला गया । बतौर मुख्यमंत्री लालू जी ने इस मामले को सीबीआई जांच से दूर रखने का भरसक प्रयास किया । इस मामले का सबसे नाटकीय मोड़ तब आया जब हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिये । इसके बाद केंद्र का दागी बचाओ बिल और आखिरकार ये निर्णय । तो ये पूरा घटनाक्रम शुरू से अंत तक बेहद नाटकीय रहा जहां अधिकांश समय तक आरोपियों ने सीधे तौर पर पूरी व्य्वस्था को प्रभावित किया । वजह स्पष्ट है न्याय की धीमी प्रक्रिया ।

हांलाकि आय से अधिक संपत्ति का ये कोई पहला मामला नहीं है । इसके पूर्व भी असंख्यों ऐसे मामले सामने आते रहे हैं । कहीं सीबीआई ने क्लीनचिट दे दी तो कुछ मामले दबा दिये गये लेकिन इस बीच राष्ट्रीय क्षति तो हो ही रही है । इस मामले में लालू जी को ही देखीये । अपने आरंभ काल में बेहद ही सशक्त नेता माने जाने वाले लालू जी आज एक निस्तेंज नेता हो चुके हैं । अर्थात अब किसी भी बड़े दल को उनके जनाधार को लेकर कोई संशय नहीं है तो कोई भी लंगड़े घोड़े पर दांव क्यों लगायेगा ? और आखिरकार सबने लालू से मुंह मोड़ लिया । ये पूरी घटना सियासत के मायाजाल का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण जहां कदम कदम पर न्याय की विवशता दिखायी देती है । क्या ऐसा नहीं है ? अंत में जब हमने लालू को सजा भी दी तो वो सियासी रूप से मर चुके हैं । यही है हमारा न्यायतंत्र । इस बात को कसाब के परिप्रेक्ष्य में भी देख लीजीये । अपने देश से हिन्‍दुस्‍तान में कत्लेआम मचाने की नीयत से आया कसाब तो तब ही मर चुका था जब वो जेहादी बना । उस प्रेतात्मा ने अपना तांडव पूरी शिद्दत के साथ मचाया और एक हम थे जो चार साल मृतक की खातिरदारी में जुटे रहे । चार साल में अरबों खर्च करके हमने उसे फांसी दे भी दी तो इससे लोकतंत्र का क्यां लाभ हुआ । जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रूपये तो आतंकी की खातिर में लुट गये न्याय के दिखावे के नाम पर । अब आप ही बताइये ये कैसा न्याय है ? इस ताजा मामले में लालू या राजद का भविष्य चाहे जो भी हो किंतु इस तल्ख हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होने विगत १७ वर्षों में पूरे तंत्र का अपने लाभ के लिये इस्तेमाल भी किया होगा। अंत में यही कहना चाहूंगा कि न्याय में देरी निसंदेह न्याय के उद्देश्यों को प्रभावित करती है । इसलिये यदि हम भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिये कटिबद्ध हैं तो निश्चित तौर पर हमारी न्यायपालिका को अभी और भी अधिक कठोर फैसले लेने होंगे ।

 

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