– योगेश कुमार गोयल
भारत की रेल पटरियां देश की धमनियां कही जाती हैं, जो प्रतिदिन करोड़ों लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती हैं, जो अर्थव्यवस्था का इंजन चलाती हैं, जो इस विशाल देश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक हैं लेकिन जब इन्हीं पटरियों पर बार-बार मौत की चीखें गूंजती हैं तो सवाल केवल हादसों का नहीं रहता बल्कि उस पूरे तंत्र की आत्मा पर उठता है, जिसने सुरक्षा को केवल एक चुनावी ‘घोषणापत्र’ सरीखा बनाकर रख दिया है। बिलासपुर के लालखदान में हुआ हालिया रेल हादसा इसी गहरी लापरवाही का ताजा उदाहरण है, जहां एक मेमू ट्रेन मालगाड़ी से टकरा गई, 11 यात्रियों की मौत हो गई और 25 से ज्यादा घायल हो गए। इंजन मालगाड़ी के गार्ड केबिन पर चढ़ गया और वह मंजर किसी युद्धस्थल से कम नहीं था।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की यह दुर्घटना देश के लिए महज एक और संख्या नहीं है बल्कि इस बात की प्रतीक है कि भारत के रेल तंत्र में तकनीक, सतर्कता और जवाबदेही का घोर अभाव है। बिलासपुर कलेक्टर के अनुसार, ट्रेन कोरबा से बिलासपुर के लिए रवाना हुई थी और गतौरा-बिलासपुर के बीच मालगाड़ी से टकरा गई। इस टक्कर ने एक बार फिर यह उजागर कर दिया कि देश में रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था आज भी ‘कागज पर कवच’ से ज्यादा कुछ नहीं है। इस हादसे की भयावहता के साथ ही जब हम इसी साल के कुछ अन्य रेल हादसों पर नजर डालते हैं, तो एक सिहरन सी उठती है। महाराष्ट्र के ठाणे में जून 2025 में चार यात्रियों की मौत केवल इसलिए हुई थी क्योंकि भीड़भाड़ वाली दो लोकल ट्रेनों में पायदान पर लटकते यात्रियों के बैग आपस में टकरा गए थे। बिहार के कटिहार में जून 2025 में अवध असम एक्सप्रेस रेलवे ट्रॉली से टकरा गई, जिससे एक ट्रॉलीमैन की मौत और चार कर्मचारी गंभीर घायल हुए। मार्च में ओडिशा के कटक जिले में बेंगलुरू-कामाख्या सुपरफास्ट एक्सप्रेस के 11 डिब्बे पटरी से उतर गए थे। अप्रैल 2025 में झारखंड के साहेबगंज में दो मालगाड़ियों की टक्कर में दो लोगों की मौत हुई। जुलाई 2025 में उसी जिले के बरहड़वा में बिना लोको पायलट की 14 बोगियां तेज रफ्तार से दौड़ती हुई दूसरी मालगाड़ी से जा टकराईं।
बिलासपुर का हादसा तो इस साल का सबसे बड़ी रेल दुर्घटना बन चुका है। यह स्पष्ट संकेत है कि हादसे अब अपवाद नहीं बल्कि एक भयानक पैटर्न बन चुके हैं। हर बार रेल मंत्रालय बयान देता है, ‘दोषियों पर कार्रवाई होगी’, ‘मुआवजा दिया जाएगा’, ‘जांच समिति गठित की गई है’, और फिर कुछ ही दिनों में सब भुला दिया जाता है। सवाल है कि क्या रेलवे अब केवल ‘प्रतिक्रिया देने वाला तंत्र’ बन गया है, जहां कार्रवाई केवल तभी होती है, जब हादसा हो चुका होता है? भारत में रेल हादसों का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी रेल सेवा स्वयं। भारत में हर साल बहुत बड़ी संख्या में होने वाले रेल हादसों में से करीब 70 प्रतिशत हादसे मानव त्रुटि के कारण होते हैं यानी कि या तो सिग्नलिंग सिस्टम में गलती या ट्रैक निरीक्षण में लापरवाही या फिर ट्रेन संचालन में मानवीय भूल। शेष हादसे तकनीकी खराबी, पुरानी पटरियों, रखरखाव की कमी और ओवरलोडिंग के कारण होते हैं।
इन तथ्यों से यह साफ हो जाता है कि भारत की रेल प्रणाली में सुरक्षा संस्कृति का अभाव है। यहां तकनीक पर निवेश से अधिक जोर घोषणाओं पर है। बीते वर्षों से ‘कवच’ सिस्टम को लेकर खूब प्रचार किया गया, कहा गया कि यह एक ऐसा स्वदेशी एंटी-कोलिजन सिस्टम है, जो दो ट्रेनों को टकराने से बचाएगा लेकिन आज की हकीकत यह है कि देश के केवल 4 प्रतिशत रेल नेटवर्क पर ही कवच लागू हुआ है, बाकी 96 प्रतिशत ट्रैक आज भी मानव सतर्कता पर निर्भर हैं और यही सबसे बड़ा खतरा है। रेल प्रशासन का रवैया भी उतना ही असंवेदनशील है। हादसे के बाद मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने की घोषणा कर दी जाती है लेकिन यह मुआवजा न किसी बच्चे को उसका पिता लौटा सकता है, न किसी पत्नी को उसका पति, न किसी मां को उसका बेटा। जरूरत मुआवजे की नहीं, जवाबदेही की है।
यह दुर्भाग्य है कि जिस भारतीय रेलवे को ‘विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेल व्यवस्था’ कहा जाता है, वहां अब भी अधिकांश ट्रैक ब्रिटिश कालीन तकनीक पर चल रहे हैं। ट्रेन ड्राइवरों को 8 से 12 घंटे तक बिना विश्राम रेल चलाने की मजबूरी, सिग्नलिंग उपकरणों की खराबी और निरीक्षण प्रणाली की औपचारिकता, ये सब मिलकर दुर्घटना की जमीन तैयार करते हैं। ऐसी किसी भी घटनां के बाद हर बार राजनीतिक बयानबाजी शुरू होती है, रेल मंत्री हादसे की उच्चस्तरीय जांच का ऐलान करते हैं और कुछ हफ्तों बाद कोई नई परियोजना या वंदे भारत उद्घाटन के बीच वह घटना जनता की स्मृति से मिट जाती है लेकिन जो परिवार अपनों को खो चुके होते हैं, उनके लिए वह हादसा जीवनभर की सजा बन जाता है।
भारत में आज रेलवे की सबसे बड़ी आवश्यकता है सुरक्षा का वास्तविक आधुनिकीकरण। केवल कवच सिस्टम ही नहीं बल्कि ट्रैक मॉनिटरिंग के लिए ड्रोन सर्वे, स्वचालित सिग्नलिंग, लोको पायलट के थकान-निगरानी उपकरण और रीयल-टाइम संचार प्रणाली की अनिवार्यता। 2024 में रेलवे ने दावा किया था कि 2027 तक 50,000 किलोमीटर नेटवर्क कवच से लैस होगा लेकिन आज की प्रगति देखकर यह लक्ष्य किसी दिवास्वप्न जैसा लगता है। नवंबर 2024 तक कवच सिस्टम लगभग 1,548 किलोमीटर ट्रैक पर लागू हो चुका था और उसके बाद से धीमी गति से इसका विस्तार जारी है। ऐसे में 2027 तक 50,000 किलोमीटर कवच से लैस करने का लक्ष्य प्राप्त करना अभी बहुत चुनौतीपूर्ण दिख रहा है और लक्ष्य से काफी पीछे है। विस्तृत कवच नेटवर्क के लिए काफी संसाधन और समय की आवश्यकता है। सवाल यह भी है कि जब देश अंतरिक्ष में चंद्रयान उतार सकता है तो पटरियों पर सुरक्षित यात्रा क्यों नहीं सुनिश्चित कर सकता? यह केवल तकनीक का नहीं, प्राथमिकता का प्रश्न है। जब तक सुरक्षा को मुनाफे से ऊपर नहीं रखा जाएगा, जब तक रेल बजट में सुरक्षा खंड को लागत नहीं बल्कि निवेश नहीं माना जाएगा, तब तक यह रक्तरंजित यात्रा जारी रहेगी।
बहरहाल, अब समय आ गया है, जब रेल हादसों को मात्र दुर्घटनाएं कहकर टाला नहीं जा सकता क्योंकि ये घटनाएं अब प्रशासनिक अपराधों का रूप ले चुकी हैं। हर साल निर्दोष नागरिकों की जानें जाती हैं और जिम्मेदारी जांच रिपोर्टों की धूल में दबी रह जाती है। देश को अब उस मानसिकता से बाहर निकलना होगा, जहां ‘हादसे के बाद कार्रवाई’ ही नीति बन चुकी है। आवश्यकता है ऐसी व्यवस्था की, जो दुर्घटनाओं से पहले सतर्कता और रोकथाम सुनिश्चित करे। यात्रियों की सुरक्षा कोई दया नहीं, उनका संवैधानिक अधिकार है, जो केवल कागज पर नहीं, पटरियों पर भी सुरक्षित होना चाहिए। जब तक हर ट्रेन यात्रा भय से नहीं, विश्वास से शुरू और समाप्त नहीं होती, तब तक भारतीय रेल प्रगति की नहीं, असंवेदनशीलता की प्रतीक बनी रहेगी। सच्चा विकास तभी होगा, जब हर गंतव्य तक पहुंचने वाली ट्रेन हर यात्री को सुरक्षित जीवन की गारंटी दे सके।