रक्षाबंधन और सनातन संस्कृति

 डॉ शिवानी कटारा

सनातन संस्कृति में ‘रक्षा’ और ‘बंधन’ दोनों ही अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। ‘रक्षा’ का अर्थ केवल शारीरिक सुरक्षा नहीं, बल्कि भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रक्षा भी है। वहीं ‘बंधन’ किसी को बाधित करने वाला नहीं, बल्कि प्रेम, विश्वास और मर्यादा से जुड़ा आत्मिक संबंध है। रक्षाबंधन का मूल बहुत प्राचीन है । इसका सबसे प्रारंभिक उल्लेख वेदों में “रक्षासूत्र” के रूप में मिलता है। यजुर्वेद में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा यज्ञ या धार्मिक अनुष्ठानों के समय राजा या यजमान की कलाई में रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा थी, जिससे उसकी रक्षा दैविक  शक्तियों के द्वारा हो सके। मंत्र था:
“येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वाम् प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥” यह रक्षासूत्र केवल बहन-भाई के रिश्ते का प्रतीक नहीं था, बल्कि धर्म, शक्ति और रक्षा का सूचक था। रक्षासूत्रों का उपयोग सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हुआ। उदाहरण के लिए, भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा तब की जब उसने उन्हें रक्षासूत्र बाँधा था। भागवत पुराण में आता है कि जब देवासुर संग्राम में इंद्र परेशान थे, तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने उनके हाथ में रक्षासूत्र बाँधा। उसी दिन श्रावण पूर्णिमा थी, और तभी से इस दिन को “रक्षा बंधन” का पर्व माना गया। राजनीतिक संदर्भ में रानी कर्णावती ने मुगल सम्राट हुमायूं को रक्षासूत्र भेजकर अपने राज्य की रक्षा का अनुरोध किया था। यह एक ऐसा पर्व है जो कर्तव्यबोध, नारी सम्मान, सामाजिक समरसता और पारिवारिक एकता को प्रेरित करता है और धर्म, समाज और आत्मीयता के बीच पुल का कार्य करता है। आज जब समाज में आत्मीय रिश्ते कमजोर पड़ते जा रहे हैं, तब रक्षाबंधन हमें स्मरण कराता है कि रक्षा का  अर्थ केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि सम्मान, विश्वास और स्नेह  का संवाहन है।   रक्षाबंधन भारत का एक पारंपरिक पर्व है, लेकिन इसका प्रभाव और महत्त्व अब केवल भारत तक सीमित नहीं रह गया है। प्रवासी भारतीयों की बढती संख्या के कारण यह पर्व अब सांस्कृतिक कूटनीति, वैश्विक भाईचारे और मानवीय संबंधों के प्रतीक के रूप में उभर रहा है और अब  एक  सांस्कृतिक आदान-प्रदान का माध्यम बन रहा है। सांस्कृतिक संगठनों, भारतीय दूतावासों और विश्वविद्यालयों के माध्यम से भी इसे मनाया जाता है। भारत सरकार के इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस (ICCR) जैसे संस्थान रक्षाबंधन जैसे पर्वों को विदेशी धरती पर मनाकर भारत की “soft power” को सशक्त करते हैं। वैश्विक मानवीय मूल्यों से साम्यता होने के कारण कई अंतरराष्ट्रीय संगठन और स्कूल इसे Brotherhood Day या Universal Bond Day की तरह मनाने लगे हैं। कई मुस्लिम, सिख और ईसाई परिवार भी इस पर्व को मानवीय रिश्तों के प्रतीक के रूप में अपनाते हैं। रक्षाबंधन  धर्मनिरपेक्ष सौहार्द का एक सुंदर उदाहरण है जिसे कि भारत की सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage)  के  रूप में भी देखा जाता  है। योग,  आयुर्वेद, और दीपावली की तरह यह त्योहार भी विश्व पटल पर भारत की पहचान बनता जा रहा है। आज की युवा पीढ़ी, जो तकनीक, वैश्वीकरण और आधुनिक जीवनशैली के बीच बड़ी हो रही है, उसके लिए रक्षाबंधन एक संभावना और चुनौती  दोनों बन चुका है — संभावनाएं अपनी जड़ों से जुड़ने की, और चुनौती इन परंपराओं को अपने व्यस्त जीवन में सहेजने की। भले ही कई बार व्यस्त जीवन और दूरी के कारण भाई-बहन एक-दूसरे से दूर होते हैं, लेकिन रक्षाबंधन के दिन डिजिटल माध्यमों से, वीडियो कॉल पर, या ऑनलाइन उपहार भेजकर इस पर्व को मनाने की भावना अब भी जीवित है। आज की पीढ़ी रक्षाबंधन को केवल भाई द्वारा बहन की रक्षा की जिम्मेदारी के रूप में नहीं देखती, बल्कि वह इसे बराबरी और परस्पर सम्मान के रूप में देखती है। युवा वर्ग अब इस त्योहार को सामाजिक सीमा से ऊपर उठाकर मित्रों, गुरुओं, और यहाँ तक कि सैनिकों तक भी फैला रहा है। इससे यह पर्व केवल पारिवारिक बंधन तक सीमित न रहकर एक व्यापक सामाजिक भावना का प्रतीक बन चुका है। रक्षाबंधन का असली संदेश – “रक्षा, विश्वास और प्रेम” – आज भी उतना ही प्रासंगिक है, चाहे वह पारंपरिक धागे में बंधा हो या डिजिटल संदेश में। रक्षाबंधन अब केवल एक पारिवारिक या धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि वैश्विक समाज को जोड़ने वाला एक अद्भुत सांस्कृतिक सूत्र बन चुका है। यही सनातन संस्कृति की विशेषता है — “वसुधैव कुटुंबकम्”  (सारी पृथ्वी एक परिवार)।

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