राजनीति

रामसेतु

हाल ही में भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर कहा है कि चूँकि “सेतु समुद्रम परियोजना” पर 829 करोड़, 32 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं, इसलिए अब इसे बन्द नहीं किया जायेगा। कुछ समय पहले भारत सरकार ने अपने एक हलफनामे में रामजी को “काल्पनिक” बताया था। एक हलफनामे में यह भी कहा था कि रामायण के अनुसार चूँकि रामजी ने खुद ही इस पुल को तोड़ दिया था, इसलिए इसे तुड़वाने में कोई हर्ज नहीं है।

कितनी आश्चर्यजनक बात है! कहाँ तो भारत सरकार को इस पुल को “विश्व धरोहर” में शामिल करने के लिए यूनेस्को में अपील करनी चाहिए और कहाँ सरकार इसे नष्ट करने पर तुली है! ध्यान रहे कि सरकार द्वारा ही गठित ‘पचौरी समिति’ ने इस परियोजना पर आगे न बढ़ने की सलाह दे रखी है- क्योंकि यह फायदेमन्द साबित नहीं होगी!

इस परियोजना के तहत भारत-श्रीलंका के बीच (धनुषकोडि और तलईमन्नार के बीच) पानी में डूबा हुआ जो पुल है, उसे तोड़कर जलजहाजों के आवागमन के लिए कुल 89 किलोमीटर लम्बी दो नहरें बनायी जानी हैं। यह चूना-पत्थर की चट्टानों से बना प्रायः 30 किलोमीटर लम्बा पुल है। इसे “एडम्स ब्रिज” (बाबा आदम के जमाने का पुल) भी कहा जाता है। इन नहरों के बन जाने पर भारत के पूर्वी व पश्चिमी तटों के बीच आने-जाने वाले जलजहाजों के करीबन 30 घण्टे और 780 किलोमीटर बचेंगे, जो आज श्रीलंका का चक्कर लगाने में खर्च होते हैं।

इसी पुल के बारे में मान्यता है कि श्रीरामचन्द्र जी ने इसे श्रीलंका पर चढ़ाई करने के लिए बनाया था और रावण को हराकर, सीता को लेकर भारत लौटने के बाद इसे तोड़ भी दिया था। इस प्रकार, इस पुल के साथ भारतीयों की आस्था बहुत ही गहरे रुप से जुड़ी हुई है।

मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और वहाँ बड़ी-बड़ी बहस, बड़े-बड़े तर्क-वितर्क हो रहे है। यहाँ हम एक सामान्य भारतीय के नजरिये से पूरे मामले को देखने की कोशिश करते हैं।

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सबसे पहले हम “पूर्वाग्रहों से रहित होकर” सोच-विचार करते हैं। ऐसा करने पर हम पायेंगे कि “रामसेतु” एक “प्राकृतिक” संरचना ही होनी चाहिए। हजारों साल पहले जब समुद्र का जलस्तर कुछ मीटर नीचा रहा होगा, तब इस संरचना का बड़ा हिस्सा जल से बाहर रहा होगा। फिर भी, एक अच्छा-खासा बड़ा हिस्सा जल में डूबा हुआ होगा।

श्रीरामचन्द्रजी की सेना ने इन्हीं “डूबे हुए” हिस्सों पर पत्थरों को कायदे से जमाकर तथा कुछ खास तरीकों से बाँधकर इस प्राकृतिक संरचना के ऊपर एक प्रशस्त “पुल” तैयार किया होगा, जिससे होकर एक बड़ी सेना गुजर सके।

जब नल और नील-जैसे इंजीनियरों की देख-रेख में सैनिक या मजदूर सही जगह पर पत्थरों को डाल रहे होंगे, तब ये पत्थर समुद्र की अतल गहराईयों में डूब नहीं जाते होंगे, बल्कि जल के नीचे की प्राकृतिक संरचना के ऊपर टिक जाते होंगे। इस प्रकार, पत्थरों की पहली, दूसरी, तीसरी, या चौथी परत डलते ही वे जल के ऊपर नजर आने लगते होंगे। आम सैनिकों या मजदूरों को यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगता होगा कि पत्थर समुद्र की अतल गहराई में डूब नहीं रहे हैं। तभी से “पत्थरों के तैरने” की किंवदन्ति प्रचलित हो गयी होगी।

हजारों वर्षों बाद लहरों के आघात से “जमे-जमाये और बँधे हुए” ये पत्थर अपनी जगह से खिसक कर गहराई में डूब गये होंगे, जबकि मूल प्राकृतिक संरचना ज्यों की त्यों बनी रही होगी। समय के साथ समुद्र का जलस्तर भी बढ़ गया होगा। तब से इस प्राकृतिक संरचना का ज्यादातर हिस्सा जल के नीचे ही है।

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अब हम प्रचलित मान्यताओं की बात करते हैं। सर्वाधिक प्रचलित मान्यता के अनुसार रामजी आज से 17 लाख, 50 हजार साल पहले हुए थे। संयोगवश, इस सेतु की आयु भी 17 लाख, 50 हजार साल ही आंकी गयी है। इस मान्यता के तहत पूरे सेतु को ही “मानव निर्मित” बताया जाता है। अर्थात्, रामजी की सेना ने इस पुल को बनाया था।

हालाँकि रामजी के समय को लेकर बहुत सारी मान्यतायें हैं। “मनुस्मृति” में दी गयी जानकारी (24 वें महायुग के त्रेतायुग के समाप्त होने में जब लगभग 1041 वर्ष शेष थे, तब श्रीरामजी का जन्म हुआ था) के आधार पर शोध करने पर पाया जाता है कि आज (विक्रम संवत् 2070) से लगभग 1 करोड़, 81 लाख, 50 हजार, 155 वर्ष पूर्व रामजी का जन्म हुआ था।

एक आधुनिक मान्यता इधर कुछ समय से प्रचलित हो रही है, जिसके परिणाम ऊपर वर्णित “पूर्वाग्रह-रहित” विचारों से मेल खाते हैं। ‘इंस्टीच्यूट ऑव साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदाज’ (संक्षेप में “I-SERVE”, वेबसाइट- https://serveveda.org) के वैज्ञानिकों ने आदिकवि बाल्मिकी द्वारा रामायण में वर्णित रामजी के जन्म के समय के ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति (भगवान राम के जन्म के समय सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र तथा शनि उच्चस्थ थे और अपनी-अपनी उच्च राशि क्रमशः मेष, मकर, कर्क, मीन और तुला में विराजमान थे।) को “प्लेनेटेरियम गोल्ड” नामक सॉफ्टवेयर में डालकर देखा, तो पाया कि कप्म्यूटर 10 जनवरी, 5114 ईसा पूर्व की तिथि तथा अयोध्या का स्थान बता रहा है। यानि रामचन्द्र जी का जन्म आज से 7,127 साल पहले अयोध्या में हुआ था- 10 जनवरी को। ध्यान रहे- यह “सौर कैलेण्डर” की तिथि है। इस तिथि को एक दूसरे सॉफ्टवेयर की मदद से “चन्द्र कैलेण्डर” में बदला गया, तो तारीख निकली- चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष का नौवाँ दिन और समय निकला- दोपहर 12 से 1 के बीच। यह वही तारीख है, जब भारत में “रामनवमी” मनायी जाती है!

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नेशनल इंस्टीच्यूट ऑव ओस्नोग्राफी, गोआ के वैज्ञानिक डॉ. राजीव निगम कहते हैं कि 7000-7200 साल पहले समुद्र का जलस्तर आज के मुकाबले 3 मीटर नीचा था। संयोग से, आज इस पुल का ज्यादातर हिस्सा समुद्र की सतह से तीन मीटर ही नीचे है। यानि रामजी के जन्म की 5114 ईस्वी पूर्व वाली तारीख अगर सही है, तो रामजी ने जब श्रीलंका पर चढ़ाई की होगी, तब इस पुल का ज्यादातर हिस्सा पानी से ऊपर ही रहा होगा- कुछ डूबे हुए हिस्सों पर ही पत्थरों को जमाकर प्रशस्त पुल तैयार किया गया होगा।

जियोलॉजिकल सर्वे ऑव इण्डिया के पूर्व निदेशक डॉ. बद्रीनारायण (जिनके नेतृत्व में ‘सेतुसमुद्रम शिपिंग चैनल प्रोजेक्ट’ के भूगर्भशास्त्रीय पक्षों का अध्ययन किया गया था) के अनुसार, रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना है, जिसका ऊपरी हिस्सा मानव-निर्मित है, क्योंकि समुद्री बालू के बीच में पत्थर, मूंगे की चट्टानें और बोल्डर पाये गये। इस अध्ययन में न केवल पुल के दोनों किनारों को अपेक्षाकृत ऊँचा पाया गया था, बल्कि यहाँ मेसोलिथिक-माइकोलिथिक उपकरण भी पाये गये थे, जिससे पता चलता है कि 8000-9000 साल पहले इस पुल से होकर सघन यातायात होता था। 4,000 साल पहले तक, यानि रामजी के लौटने के बाद भी 3,000 वर्षों तक इस पुल से होकर आवागमन होता था- ऐसे सबूत पाये गये।

कहा तो यहाँ तक जाता है कि 15 वीं सदी तक इस पुल पर चलना सम्भव था और सन 1480 ईस्वी में आये एक भयानक तूफान में यह पुल तहस-नहस हुआ।

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अब बात पर्यावरण की। चूँकि यह एक प्राकृतिक संरचना है और लाखों साल पुरानी है, इसलिए जाहिर है कि इसके आस-पास पलने वाले समुद्री जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों इत्यादि ने खुद को यहाँ की खास स्थिति के हिसाब से ढाल लिया है। यहाँ के मूँगे खास तौर पर प्रसिद्ध हैं। ऐसे में, इस संरचना में यदि तोड़-फोड़ की जाती है और यहाँ से जलजहाजों का आवागमन शुरु होता है, तो यहाँ पाये जाने वाले जीव-जन्तुओं, मूँगों तथा वनस्पतियों के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगेगा- इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, आस-पास के लाखों मछुआरों का जीवन-यापन भी प्रभावित होगा।

यह भी कहा जाता है कि यह संरचना ‘सुनामी’ की लहरों को रोकती हैं।

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कहने का तात्पर्य यह है कि रामजी को एक काल्पनिक चरित्र मानते हुए या रामजी द्वारा इस सेतु को बनाने, या प्राकृतिक संरचना पर सेतु बाँधने की बात को माइथोलॉजी बताते हुए सिर्फ जलजहाजों के आवागमन के लिए एक “शॉर्टकट” बनाने के उद्देश्य से करोड़ों भारतीयों की भावना को ठेस पहुँचाना कोई बुद्धिमानी नहीं है। न ही पर्यावरण की दृष्टि से लाखों साल पुरानी इस संरचना में तोड़ना उचित माना जायेगा।

हाँ, अगर “आस्था एवं विश्वास” शब्दों से ही नफरत रखने वाले कुछ खास लोग इसे तोड़ने की जिद ठान लें, तो यह अलग मामला बन जाता है। इसी प्रकार, अगर कुछ लोग सिर्फ अपना मुनाफा देखें और इसकी परवाह बिलकुल न करें कि हमें आनेवाली नस्लों के लिए भी पर्यावरण को रहने लायक बनाये रखना है, तो फिर अलग बात है।

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लगे हाथ इस मामले में ‘राजनीति’ की बात भी हो जाय। ऐसी हवा फैलायी जा रही है कि वर्तमान काँग्रेस सरकार ने इस परियोजना को बनाया है और भाजपा इसके सख्त खिलाफ है। वास्तव में, यह मामला काफी पुराना है और इस मामले में सारी राजनीतिक बिरादरी साथ-साथ है।

“मन्नार की खाड़ी” से होकर जलजहाजों के लिए रास्ता बनाने की परिकल्पना 1860 में जन्मी थी, जब अल्फ्रेड डी. टेलर नामक एक अँग्रेज ने ऐसा सोचा था। आजादी से पहले इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में 9 समितियाँ बनीं और आजादी के बाद 5 समितियाँ। हर समिति ने ‘धनुषकोटि’ और ‘मण्डपम’ के बीच की जमीन को काटकर नहर बनाने का सुझाव दिया। 1956, 1961, 1968, यहाँ तक कि 1996 की रिपोर्ट में भी “रामसेतु” को तोड़ने का जिक्र नहीं था।

मगर आश्चर्यजनक रुप से 2001 में भारत सरकार ठीक उसी प्रोजेक्ट को मान्यता देती है, जिसमें “रामसेतु” को तोड़ते हुए नहरों का निर्माण होना था। क्या उन्हीं दिनों अमेरिका अपनी अन्तरिक्ष संस्था ‘नासा’ के माध्यम से “रामसेतु” पर शोध कर रहा था- कि इसकी तह में कौन-कौन से खनिज हैं?

इस समय अटलबिहारी वाजपेयी साहब प्रधानमंत्री थे, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रह चुके हैं। बेशक, वे चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल-जैसे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं थे- उन्होंने विश्व समुदाय के खिलाफ जाकर परमाणु परीक्षण को हरी झण्डी दी थी और देशवासियों के स्वाभिमान को जगाया था। मगर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अमूल्य धरोहर “रामसेतु” को तोड़नेवाली इस परियोजना को पूरा करने के प्रति अपनी “प्रतिबद्धता” उन्होंने क्यों जतायी थी- यह एक रहस्य है!

जब भाजपा के नेतृत्व वाली तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार हर हाल में “रामसेतु” को तोड़ने पर आमादा थी, तो काँग्रेस के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार से भला हम क्या उम्मीद रखें? इसी सरकार के निर्देश पर 2 जुलाई 2005 को “रामसेतु” को तुड़वाने का काम शुरु हो गया!

हालाँकि शुरु में रहस्यमयी तरीके से दो क्रेन डूब भी गये। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाकर पर्यावरण तथा आर्थिक मुनाफे के आधार पर परियोजना की समीक्षा करने के लिए कहा। 2008 में ‘पचौरी समिति’ बनी, जिसने इस परियोजना को पर्यावरण के लिए हानिकारक तथा व्यवसायिक रुप से अलाभदायक बताया। मगर भारत सरकार इस मामले को इज्जत का सवाल मानकर इस परियोजना को हर हाल में पूरा करना चाहती है।

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यहाँ इस बात का जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्री जयसूर्या ने इस सेतु के ऊपर से होकर सड़क बनाने का सुझाव भारत सरकार को दिया था, मगर भारत सरकार ने इसे नहीं माना। कई बड़ी कम्पनियाँ इस सड़क पुल को बनाने के लिए रुचि भी दिखला चुकी हैं। जाहिर है कि इस सड़क पर जब भारत-श्रीलंका के बीच यातायात होगा, तो दोनों सरकारों की कमाई भी होगी। मगर इस कमाई को छोड़कर भारत सरकार जलजहाजों से ही कमाई क्यों पाना चाहती है?

करोड़ों भारतीयों की आस्था को ठोकर मारते हुए, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हुए, व्यवसायिक दृष्टि से हानिकारक होते हुए भी आखिर भारत सरकार लाखों साल पुराने इस सेतु को क्यों तोड़ना चाहती है? क्या इसके पीछे कोई गुप्त रहस्य है?

कहा जा रहा है कि इस सेतु को तुड़वाकर इसके कचरे को अमेरिका को सौंप दिया जायेगा। अमेरिका ने पता लगा लिया है कि इस सेतु के नीचे ‘थोरियम’ (एक रेडियोधर्मी तत्व, जिसका उपयोग परमाणु बम में भी हो सकता है) का बड़ा भण्डार है। यह आशंका कहाँ तक सच है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। मगर भारत सरकार ने इस सेतु को तोड़ने के लिए जिस तरह की जिद्द ठान रखी है और जिस तरह भाजपा-काँग्रेस दोनों राष्ट्रीय दल इस मामले में मौसेरे भाई बने हुए हैं, उससे तो ‘थोरियम’ पाने के लिए ‘अमेरिकी दवाब’ का सन्देह गहरा हो ही रहा है!

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ध्यान रहे- इस प्राकृतिक संरचना को तोड़कर जलजहाजों के लिए शॉर्टकट बनाना एक “”विध्वंसात्मक”” कार्य होगा; जबकि इस संरचना के ऊपर पुल बनाकर दो पड़ोसी देशों के बीच यातायात को सुलभ बनाना एक ““रचनात्मक”” कार्य होगा। …और हर हाल में “रचनात्मक” सोच व काम बेहतर होता है बनिस्पत “विध्वंसात्मक” काम व सोच के।

‘विज्ञान’ एवं ‘तकनीक’ के बल पर ‘प्रकृति’ एवं ‘पर्यावरण’ पर ‘विजय’ प्राप्त करने की मनुष्य की जो ‘लालसा’ है, वह ‘आत्महत्या’ के समान होती है। क्योंकि हमने हवा और पानी में मकानों और गाड़ियों को तिनकों की तरह उड़ते और बहते हुए देखा है। सूर्य एक किलोमीटर भी अगर धरती की ओर खिसक जाय, तो हम सब खाक हो जायेंगे। ऐसे में, बेहतर है कि हम प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्मान करें और उनके साथ सामंजस्य बिठाते हुए जीने की कला सीख लें।

भावना से रहित प्रतिभा और प्रतिभा से रहित भावना दोनों ही बेकार है। उसी प्रकार, आस्था से रहित विज्ञान और विज्ञान से रहित आस्था भी किसी काम की नहीं।

Ramsetu-JDजयदीप शेखर