आपातकाल की पुनरावृत्ति

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अनिल अनूप

25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उसके राजनीतिक, सामाजिक और तात्कालिक कारण क्या थे, यह बहुत लंबा विषय है और फिलहाल प्रसंग भी नहीं है, लेकिन उसके बाद आपातकाल एक मुहावरा बन गया। हम उसी मुहावरे की भाषा में बात कर रहे हैं। जब भी सरकारों या पुलिस ने तानाशाही और अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया है, उन स्थितियों को ‘अघोषित आपातकाल’ करार दिया जाता रहा है। सरकारें और पुलिस के चरित्र बर्बर भी होते हैं। हमारे सामने उत्तर-आपातकाल के कई उदाहरण हैं। फिलहाल वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी की उनके घर से अमानवीय गिरफ्तारी ने पूरे देश को उबाल दिया है, मानो आपातकाल की कोई नई घोषणा कर दी गई हो! अर्नब ने पत्रकारिता में लंबा सफर तय किया है और अब वह ‘रिपब्लिक’ टीवी चैनल के प्रधान संपादक हैं। सरकार, पुलिस या कोई भी अर्नब की पत्रकारिता से असहमत हो सकता है। अर्नब की सहमति में भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के असंख्य नागरिक हैं। यह बीते कल के विरोध-प्रदर्शनों से स्पष्ट हो गया। पत्रकारिता के पक्षधर और समर्थक भी जन-समुदाय है, यह भी साबित हो गया। प्रेस क्लब ऑफ  इंडिया से जुड़े पत्रकार तो सड़क पर आ सकते हैं, लेकिन पूर्व सैनिक, साधु-संत, छात्र, महिलाएं और अनगिनत चेहरे हाथों में मशाल और मोमबत्तियां लिए सड़कों पर थे, कमोबेश हमने तो ऐसा विरोध-प्रदर्शन पहली बार देखा है। गलत-सही की व्याख्या भिन्न है, लेकिन पत्रकारिता के प्रति जागृति और जुड़ाव चौंकाने वाला था। अर्नब अपराधी नहीं है, आतंकवादी या नक्सलवादी भी नहीं है। बेशक फर्जी केस बनाना सरकारों और पुलिस की पुरानी फितरत रही है। अर्नब को भी घेरा जा सकता है। गिरफ्तारी की भी एक आचार-संहिता और संवैधानिक प्रक्रिया  होती है। देश के किसी भी नागरिक और खासकर पत्रकार को उसके घर से घसीटते हुए, उसके परिजनों को धकियाते और अपमानित करते हुए, ए.के.-47 राइफलों और शार्प शूटर की छाया में, गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। किसी दुर्दान्त अपराधी को धर-दबोचने गए थे क्या?  पुलिस अदालती समन लाए और आरोपी को भी एक निश्चित मानवीय व्यवहार के साथ गिरफ्तार करे। लेकिन हम अपनी पुलिस से इतना सभ्य और लोकतांत्रिक व्यवहार की अपेक्षा और कल्पना कर ही क्यों रहे हैं? खाकी वर्दी बार-बार दाग़दार हुई है, उसने पाप किए हैं, जेल में ही लोगों की हत्याएं कर दी हैं। जांच और न्याय किसी निष्कर्ष पर जाने में सालों लगा देते हैं। सब कुछ अप्रासंगिक हो जाता है। बेशक पुलिस बल का गठन औसत नागरिक और समाज की सुरक्षा के लिए ही किया गया था। हमारा सरोकार अर्नब के संदर्भ में व्यक्तिगत नहीं है। इतने जन-समर्थन की लड़ाई व्यक्तिगत होती भी नहीं है। हमारी चिंता पत्रकारिता और पत्रकार को लेकर है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी लोकतंत्र को बचाने का प्रयास किया है।1975 के आपातकाल के दौरान भी अख़बार का काला और खाली पन्ना छाप कर उसने भारत के लोकतंत्र में तानाशाही चेहरों और प्रवृत्तियों का घोर विरोध किया था। कइयों को जेल में डाल दिया गया। कुछ चेहरे इतिहास बताने को आज भी हमारे बीच जिंदा हैं। अर्नब के साथ महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार किसी निजी खुंदक के तहत कार्रवाई कराए और उन्हें जबरन गिरफ्तार करवा अपनी सत्ताई ताकत का प्रदर्शन करे, तो यह बेहद अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कुचलन है। साररूप में यह लोकतंत्र की हत्या है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। सरकारें, राजनीतिक दल, पुलिस और आम आदमी किसी भी संकट या शोषण अथवा अन्याय की  स्थितियों में पत्रकार के पास ही जाते हैं। यदि महाराष्ट्र में संविधान ढहने और अराजकता के हालात हैं, तो दायित्व केंद्र सरकार का है। बेशक कई केंद्रीय मंत्रियों ने अर्नब का पक्ष लेकर महाराष्ट्र सरकार और पुलिस के अलोकतांत्रिक व्यवहार की भर्त्सना की है, लेकिन ऐसे हालात में कैबिनेट की बैठक बुलाकर विमर्श करना चाहिए। राज्य सरकार को चेतावनी-पत्र जारी किया जाना चाहिए। फिर भी हालात न संवरें, तो राष्ट्रपति शासन अंतिम विकल्प है। राज्यपाल को अपनी रपट केंद्र को भेजनी चाहिए। कोई भी सरकार और पुलिस संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। भारत के लोकतंत्र में नागरिक अधिकार सर्वोच्च हैं।

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