धर्म-कर्म में दिखावे से बचें

पब्लिसिटी से क्षीण होता है पुण्य

डॉ. दीपक आचार्य

धर्म धारण करने का विषय है, प्रचार-प्रसार का नहीं। धर्म का मूल मर्म लोकोपकारी जीवनयापन और ऊर्ध्वगामी यात्रा से पूर्व अधिकाधिक पुण्य संचय का है।

आजकल धर्म और पुण्य के नाम पर कई प्रकार के आडम्बरों और धूर्त्तताओं का जमाना है। पहले धर्म का नाम सुनते ही आत्मशांति, अन्दरूनी मस्ती, ईश्वर के सामीप्य और दिव्यता का अहसास आदि सब कुछ हुआ करता था। पर आजकल धर्म का मतलब रह गया है कानफोड़ू शोर, धंधा, पाखण्ड, आडम्बर। कभी प्रसाद के नाम पर तो कभी ईश्वर की कृपा पाने के नाम पर लूट-खसोट आदि का बिजनैस होता जा रहा है।

धर्म के नाम पर वो सब कुछ चल रहा है जिसकी ईश्वर कभी ईजाजत नहीं देता। धर्म का चौला पहन कर आजकल लोग कुछ भी करने को स्वतंत्र और स्वच्छन्द हैं। कलिकाल का पूरा असर धर्म पर छा गया है तभी तो धर्म भी गरीबों और अमीरों में भेद करने लगा है। धर्म का अर्थ यह है कि हर किसी व्यक्ति को पूजा-अर्चना, दर्शन आदि का समान अधिकार है चाहे वह सम्पन्न हो अथवा विपन्न।

मन्दिरों की यह हालत है कि भगवान के दर्शन भी पैसे लेकर जल्दी कराने का धंधा परवान पर है। फिर वीआईपी का भेद अलग से। यों सच पूछा जाए तो ऐसे मन्दिरों का ईश्वर किसी काम का नहीं होता जहाँ दर्शन, प्रसाद और पूजा आदि में भेदभाव हो। ऐसे मन्दिर सिर्फ जिज्ञासुओं के लिए पर्यटन और दर्शन का केन्द्र हो सकते हैं, असली भक्तांे के लिए श्रद्धा के केन्द्र कतई नहीं। असल में तो वहाँ के भगवान स्वयं भी पाषाणों और धातुओं को त्याग कर कहीं ओर पलायन कर चुके होते हैं।

बात मन्दिरों की हो या बाहर के धर्म की, धर्म के नाम पर हमारे देश में जो फैक्ट्रियाँ चल रही हैं उनका कोई मुकाबला नहीं। शून्य लागत पर ईश्वर के नाम पर अखूट सम्पत्ति बनाने वाले इस धंधे से बड़ा आसान और आदरणीय धंधा और भला क्या होगा? फिर इसमें लुटने वाले भी सम्मान और आदर देते हुए नहीं अघाते।

धर्म के लिए यह चिन्तनीय विषय है कि आज जो हो रहा है वह धर्म है क्या? धर्म सार्वजनीन, सार्वकालिक और सर्वजनसुखाय होता है लेकिन आज धर्म के नाम पर जिस प्रकार के धंधे और पाखण्ड चल रहे हैं उन सभी का एकमेव मकसद ईश्वर या धर्म लाभ अथवा पुण्य संचय की बजाय लोगों की भावनाओं और अंध श्रद्धा की परम्पराओं को भुनाते हुए पैसा बनाना रह गया है।

दुर्भाग्य यह कि धर्म के ठेकेदारों से लेकर अंध भक्तों तक सारे के सारे इस धारा में घुल-मिल गए हैं और ऐसे में किससे यह अपेक्षा रखी जाए कि वे धर्म के मूल स्वरूप के बारे में समझाएं और भ्रमों तथा अंधेरों को दूर करें। बाड़ ही खेतों को चट करती जा रही है।

धर्म के नाम पर पब्लिसिटी का गोरखधंधा आजकल हर मीडिया और बाजार में जबर्दस्त ढंग से हावी होता जा रहा है। कोई सा चैनल हो, कोई सा मन्दिर हो, गंगा, यमुना या नर्मदा का तट हो, अथवा किसी रागी-वैरागी संत, महात्मा, मठाधीश, महामण्डलेश्वर, पीठाधीश्वर का आश्रम या मठ हो, सर्वत्र धन संग्रह करने के लिए कई-कई नायाब तरीकों का खेल चल रहा है। धर्म के प्रति समझ नहीं बना पाने लोग लुटते ही चले जा रहे हैं। हर कहीं धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसे देख यही लगता है कि धर्म ही ऐसी सामग्री हो गया है जो हर कहीं बिकने लगा है।

सारे संसार को छोड़ बैठे और वैराग्य की डींगे हाँकने वाले लोगों ने ऐसे-ऐसे मीडिया मैनेजर पाल रखें हैं जो धन और प्रतिष्ठा के मोह में या अपने अपराधों को ढंकने, संरक्षित बने रहने इन तथाकथित वैरागियों के साथ जुड़कर उन सारे हथकण्डों को अपना रहे हैं जिन्हें मीडिया मैनेजमेंट के गुर कहा जाता है।

किसी को भी समझ में यह नहीं आ रहा है कि जिन लोगों का ईश्वर से संपर्क है अथवा भगवान को पाने की यात्रा में निकले हुए हैं उन लोगों को समाचारों, फोटो, इन्टरव्यू, लाईव टेलिकास्ट और मीडिया कवरेज, विज्ञापनों आदि का मोह क्यों सताता रहता है। फिर आम आदमी, नेताओं और इन संत-महात्माओं में क्या अंतर रह गया है। आम आदमी भीड़ के रूप में श्रोता-दर्शक होता है और मंचों पर नेताओं व संतों का मेल। इससे बात साफ समझ में आ सकती है।

एक बात यह अच्छी तरह समझनी होगी कि जो लोग पब्लिसिटी के भूखे हैं वे न संत हो सकते हैं, न साधक और न ही सिद्ध। संतत्व की पूर्णता के लिए यह जरूरी है कि अपने जीवन से पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा को बाहर निकाल फेंके। अर्थात भूमि, भवन और आश्रम का मोह, धन संग्रह की लपलपाहट और छपास या पूजनीय होने की भूख बनी रहने पर कोई भी संत नहीं कहा जा सकता है। इन तीनों प्रकार की भूख के पूर्णतः समाप्त हो जाने के उपरान्त ही ईश्वर अथवा आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर कदम बढ़ाया जा सकता है।

धार्मिक गतिविधियों की जहाँ पब्लिसिटी होती है वहाँ प्रचार-प्रसार तो खूब होगा लेकिन पुण्य का क्षय हो जाता है। जो लोग पुण्य संचय करते हुए अपनी आगे की यात्रा को सुखद और ऊर्ध्वगामी बनाना चाहते हैं उन्हें अपने धार्मिक क्रियाकलापों व अनुष्ठानों, साधनाओं आदि को पब्लिसिटी से दूर रखना चाहिए अन्यथा जब वे ऊपर जाएंगे तब खाली पीपे की तरह…।

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