धार्मिक इण्डस्ट्री के बीज

churchकौशलेन्द्रम
आबाबाबाबाबाबाबाबा ….शीबाबाबाबाबाबाबा ….हालू लुइया ….हालू लुइया …हालू लुइया …हालू लुइया ……धन्यवाद …धन्यवाद ….धन्यवाद ….धन्यवाद …………..!
जगदलपुर के लगभग हर मोहल्ले में स्थापित चर्चों में, अक्टूबर माह में आयोजित होने वाला, ईसाइयों का यह एक चंगाई और धन्यवादी समारोह है जिसमें चिल्ला-चिल्ला कर दोहराये जाने वाले हिब्र्यू भाषा के ये शब्द एक धार्मिक आवेश सा उत्पन्न करते हैं जो कभी-कभी यहाँ के निर्धन और अशिक्षित वनवासियों में एक विचित्र सा उन्माद भर देते हैं । भारतीयों के लिये अपरिचित हिब्र्यू भाषा के इन शब्दों को आप मंत्र कह सकते हैं जो ईसाई समुदाय के लिये पवित्र माने जाते हैं ।
समारोह लगभग एक सप्ताह तक चलता है जिसमें ईसाई भजनों के साथ लोग भावविभोर हो नृत्य करते हैं और धर्मगुरु पवित्र बाइबिल के सन्देशों की व्याख्या करते हैं । मध्य एशिया के इस्माइल, याक़ूब और मरियम जैसे विदेशी नाम धार्मिक हीरो की तरह लोगों की श्रद्धा के केन्द्र बन कर उभरते हैं और पीढ़ियों तक धार्मिक ख़ुराक से वंचित रहे आदिवासियों के मन, मस्तिष्क और हृदय में बस जाते हैं । अपनी परम्पराओं से बंधे रह कर जीने वाले आदिवासियों की प्राचीन परम्परायें तब शिथिल हो जाती हैं जब उन्हें टूटी-फूटी और गज़ब की अशुद्ध हिंदी में बाइबिल के सन्देश सुनाये जाते हैं । बाइबिल का अनोखा हिंदी अनुवाद यीशु के सन्देशों को विशेषता प्रदान करता है । धार्मिक उपदेशों से वंचित रहे आदिवासियों के लिये यह सब कुछ नितांत नवीन, अद्भुत और चरमज्ञान है । बाइबिल में उल्लेखित धार्मिक नायक उनकी श्रद्धा और आकर्षण के केन्द्र बन जाते हैं । उन्हें बताया जाता है कि धरती के लोगों को यह पवित्रज्ञान देने वाले एक मात्र प्रभु यीशु हैं, जिन्होंने लोगों के दुःखों को दूर करने के लिए न केवल धरती पर अवतार लिया बल्कि पापियों को भी क्षमा किया और सलीब पर लटककर अमानवीय यातनायें सहीं । यीशु लोगों के हृदय में एक देवदूत की तरह छा जाते हैं ।
चंगाई और धन्यवादी समारोह में हिन्दू मान्यताओं और कर्मकाण्डों की तरह जहाँ जटिलता नहीं होती वहीं दार्शनिक और आध्यात्मिक गहरायी का भी अभाव रहता है किंतु यह अ-जटिलता ही अशिक्षित और वंचित आदिवासियों को ईसाई धर्म के समीप लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यहाँ जटिल मंत्र नहीं हैं, जटिल कर्मकाण्ड नहीं हैं, जटिल भाषा नहीं है, जटिल नियम नहीं हैं …। सब कुछ सरल है, इनके धर्मगुरुओं ने कुछ सामान्य से वाक्यों में आम आदमी के लिये प्रार्थनायें रची हैं, सरल भजन हैं, आधुनिक वाद्य यंत्र हैं जिनकी आकर्षक ध्वनियों पर नाचने की सुविधा है । ….और आदिवासी संस्कृति के अनुरूप अतीन्द्रिय शक्तियों से आवेशित हो कर झूमने, सिर हिलाने, विचित्र सी हरकतें करने ….बातें करने ….और आर्तनाद करने की स्वतंत्रता है ।
धर्मगुरुओं द्वारा यह धारणा सुस्थापित की जाती है कि दुःखों से मुक्त होने और प्रभु का आशीष पाने के लिये प्रभु यीशु के शरणागत हो कर आर्तनाद करना चाहिये । दुःखी, निर्धन और वंचित लोग प्रभु के शरणागत होते ही अपने सांसारिक दुःखों को स्मृत कर आर्तनाद करने लगते हैं ….चीखने-चिल्लाने लगते हैं । उनके सांसारिक जीवन के सारे ग़ुबार एक साथ विस्फोटित हो कर रुदन में बदल जाते हैं । रुदन के पश्चात उन्हें बहुत हल्का लगता है …मन में एक शांति का अनुभव होता है । उन्हें विश्वास है कि उनका रुदन प्रभु सुनेंगे औरउनकी व्याधियों, समस्याओं और दरिद्रता का समाधान हो जायेगा । किशोर होते छोटे बच्चे यही सब देख-देखकर धार्मिक होना सीखते हैं और किशोर होने पर अफसोस करते हैं कि वे भारत में पैदा ही क्यों हुये उन्हें येरुशलम में जन्म क्यों नहीं मिला । उनकी कल्पना के महल में येरुशलम एक मात्र तारनहार धार्मिक स्थल के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है और भारत उनके लिये घृणा का विषय हो जाता है । धर्मांतरित ईसाइयों की नयी पीढ़ी एक ऐसे कल्पना लोक में स्वयं को विचरित करता हुआ पाती है जो भारत की धरती से दूर ….बहुत दूर है । जहाँ स्वर्ग का आलम है और जहाँ प्रभु यीशु की कृपा सदा ही बरसती रहती है । उनके भारतीय पूर्वज, लिंगा देव, बूढ़ा देव आंगादेव जैसे भारतीय आराध्य देव …सब अपरिचित और घृणा के पात्र हो जाते हैं …और आश्चर्यजनकरूप से इन सबका स्थान येरुशलम के लोग ले लेते हैं । उनकी कल्पना में मध्य-पूर्व एशिया के एक देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक व्यवस्था उन्हें आकर्षित करती है और धीरे-धीर वे स्वयं को येरुशलम से जुड़ा हुआ पाने लगते हैं । भारत उनके लिये गौण हो जाता है ….एक ऐसा स्थान जहाँ वे रहने के लिये विवश हैं ।
भारत के राष्ट्रवादियों के लिये यह जानना अत्यावश्यक है कि भारत में धार्मिक आयात के लिये कौन सी परिस्थितियाँ उत्तरदायी रही हैं ? और अब जबकि हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हो चुके हैं, वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो आयातित धर्मों को पोषित कर रही हैं ? मनुष्य के लिये धर्म जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक बार फिर यह चिंतन की आवश्यकता है कि क्या धर्म, वास्तव में सामाजिक भेद उत्पन्न करने का एक कारण नहीं है ? आज, जबकि एक धर्म विशेष के नाम पर हिंसा की सारी सीमायें टूट चुकी हैं यह विचार करना होगा कि क्या धर्मान्तरण और धर्मों का वर्तमान स्वरूप किसी भी समाज और देश के लिये उचित है और इन्हें प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिये ?

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