‘बोल’ में क्या बोल?

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त फिल्मकार शोएब मंसूर ने ‘खुदा के लिए’ के बाद ‘बोल’ में एक ऐसी औरत की जिंदगी के पक्ष को उभारने का प्रयास किया है जो पुरूषवादी मानसिकता का शिकार हो जाती है। नारी मात्र देह नहीं है वह भोग्या नहीं है पर ऐसा देखने को मिलता है कि पुरूषवादी सामंती मानसिकता में स्त्री-पुरूष के लिए भोग्या छोड़कर और कुछ नहीं है। इस फिल्म की नायिका पाकिस्तानी है, पर वह हिन्दुस्थान की भी हो सकती है। विश्व के विभिन्न भागों में 10 प्रतिशत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, राजदूत, पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखिका तथा अन्य किसी भी क्षेत्रों में कुछ महिला आगे हो तो नारी मुक्ति नहीं हो जाती, लेकिन हां स्त्रियां उनको ‘गॉडमदर’ मानकर आगे बढ़ सकती हैं।

 

हुमैमा मलिक (जैनब) अपने पिता की ही हत्या कर देती है तथा उसको सजा हो जाती है तथा जीवन के काले पक्षों का परत-दर-परत खुलना इस बात की तरफ इंगित करता है कि पिता मंजर शेहबाई (हकीम साहब) को 14 संताने हुईं जिसमें 7 बहनें तथा एक किन्नर। पिता परंपरावादी तथा धर्मांध है तो लड़कियां आधुनिक मानसिकता की। बेटी के विचारों से घर में बवंडर आता है तथा पिता की हत्या हो जाती है। हुमैमा मलिक (जैनब) का परिवार पाकिस्तान है नहीं है वो तो भारत का ही है। यह परिवार विभाजन के पूर्व आकर एक हिंदू घर में रहता है।

वैचारिक स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के विकास के लिए एक ऐसे फिल्मी माहौल की जरूरत है जो समाजिक कोढ़ को नष्ट कर डाले। संपूर्ण मानव समाज जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, रंग तथा अन्यान्य कुरीतियाें से ग्रसित है। ऐसे समय में जब शोएब मंसूर जैसा फिल्मकार वैश्विक आतंकवाद की आश्रयस्थली से धर्मांधता पर प्रहार करें तो उसका बार-बार नमन करना चाहिए। यह इसलिए की पाकिस्तान आतंकवादियों का संगम है। जहां से जैश-ए-मुहम्मद, हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठन धर्मरूपी अफीम की खेती किया करते हैं। इस्लाम और कुरान की परंपरावादी व्याख्या में मानवता के समक्ष यक्ष प्रश्न खड़ा किया है। मूलतः धर्म जीवन जिने की कला है लेकिन जब वह धर्म व्यक्ति में रूढ़ियों को भर दें तो वह धर्म नहीं रह जाता। फिल्म में एक स्थान पर नायिका कहती है कि मोहम्मद साहब ने यह कहा कि इस्लाम का सही अर्थ समझने वाले खुब लोग हों, अर्थात् पढ़े-लिखें इस्लाम के अनुयायी हो। या केवल जनसंख्या पर जोर दिया जाए। जब आप इतने बच्चों की परिवरिश नहीं कर सकते तो इतने बच्चें पैदा करने का हुक्म नहीं है। यहां फिल्म ने कुरान व हदीस के माध्यम से नायिका से यह कहलवाने का प्रयास किया है जो सामाजिक यथार्थ है।

निर्देशक – शोएब मंसूर कलाकार – हुमैमा मलिक, आतिफ असलम, मंजर शेहबाई व माहिरा खान वगैरह।

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