राजनीति

संवेदनाओं की सियासत करते राहुल

शिवानंद द्विवेदी ‘सहर’ 

downloadआगामी लोकसभा चुनाव एवं पाँच राज्यों की विधानसभा चुनावों की तैयारियों में जुटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी आजकल संवेदनाओं की सियासत करते नजर आ रहे हैं. उनके द्वारा अलग-अलग राज्यों की रैलियों में दिये पिछले तीन भाषणों की अगर समीक्षा की जाय तो उनके भाषणों का सारा ताना-बाना उनके परिवार के सदस्यों के इर्द-गिर्द ही नजर आता है.

अपने भाषणों में राहुल गाँधी द्वारा अपनी दादी इंदिरा गाँधी की हत्या,पिता राजीव गाँधी की हत्या सहित अपनी माता सोनिया गाँधी की बीमारी आदि का जिक्र खूब किया जा रहा है. हालाकि संवेदनाओं की बुनियाद पर आधारित भाषण राहुल गाँधी द्वारा पहले भी दिये जाते रहे हैं लेकिन जबसे भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने दिल्ली रैली में चाय वाले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी तक का अपना सफरनामा बताया तबसे राहुल के भाषणों में संवेदनाओं का घोल अत्यधिक देखने को मिल रहा है. ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या आज 2013-14 में भी ऐसी स्थिति है कि चुनाव संवेदनाओं और सहानुभूति की बुनियाद पर लड़े जा सकते हैं ? इस पूरे मामले में नरेंद्र मोदी का चाय वाले से यहाँ तक के सफर को तो एकबारगी जनता पचा भी सकती है लेकिन राहुल के इस परिवार राग को पचाना बेहद मुश्किल है.

एक दौर था जब इंदिरा गाँधी अपने कतरे-कतरे खून का हवाला देकर सियासत के तीर साधती थीं और राजीव गाँधी को अपनी माँ की हत्या की सहानुभूति मिलती थी, लेकिन आज देश उस तिराहे पर खड़ा हैं जहाँ उसे इन सब बातों से ऊपर उठकर सोचना पड़ रहा है. महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा के सवालों से जूझ रही जनता की शायद इस बात में कोई रूचि अबतक ना बची हो कि इंदिरा गाँधी के साथ क्या हुआ और सोनिया गाँधी क्यों बीमार हैं. अपने पिता और दादी की कड़ी में आगे बढते हुए राहुल गाँधी जब ये कहते हैं कि उन्होंने मेरे पिता और दादी को मारा वो मुझे भी मार देंगे तो बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि भला वो राहुल को क्यों मार देंगे ? आपने ऐसा किया क्या है जो वो आपको मार देंगे ?

चूंकि राहुल की वर्तमान राजनीति की बुनियाद अगर इंदिरा और राजीव की हत्या पर टिकी है तो थोड़ा इतिहास पर नजर डालना ही होगा. अगर देखा जाय तो इंदिरा गाँधी की हत्या पंजाब में भिंडरावाले के जन्म और फिर उस पर लगाये गए नकेल के बीच उपजी हिंसा में एक प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा लिए फैसले के परिणाम स्वरुप हुई थी जो कि एक राजनीतिक हत्या थी. राजीव गाँधी के मामले में भी कमोबेश श्रीलंका मसला एक राजनीतिक फैसले की परिणति ही कही जानी चाहिए. लेकिन राहुल गाँधी की हत्या भला कोई क्यों करेगा जबकि पिछले दस सालों में राहुल गाँधी द्वारा आधिकारिक तौर पर ना तो जवाबदेही ली गयी है और ना ही ऐसा कोई राजनितिक फैसला ही लिया गया है सिवाय कांग्रेस के आंतरिक राजनीति में उनकी सक्रियता के. राहुल गाँधी कभी कोई ऐसा पद लिए नहीं जिससे कि उनका कोई प्रभावी निर्णय देश की आंतरिक अथवा बाह्य व्यवस्था के लिए उनको जवाबदेह बनाता हो. ऐसे में फिर आपको ये कहने का कोई औचित्य नहीं बनता कि जो आपकी दादी को मारे वो आपको भी मार देंगे. राहुल गाँधी को राजनीतिक हत्या और आम हत्या का फर्क तो समझना ही चाहिए क्योंकि राजनितिक हत्याएं एक राजनीतिक फैसले की परिणति में असंतुष्ट वर्ग द्वारा की गयी हिंसक प्रतिक्रिया होती है जो कि उचित नहीं है. इस पुरे मामले के अगर दूसरे पक्ष पर नजर डालें तो साफ़ तौर पर सपष्ट होता है कि राहुल गाँधी की मजबूरी है कि अगर वो संवेदनाओं की चाशनी में डूबा हुआ भाषण ना दें तो आखिर जनता के बीच और क्या बोलें ? जिस जनता के बीच वो अपना भाषण दे रहे हैं वो जनता अपने सवालों के जाल में फंसी सरकार से इतनी असंतुष्ट है कि उसके सवालों का जवाब राहुल कभी ना दे पायें. क्या राहुल गाँधी संप्रग-2 के प्रथम 100 दिन में किये गए वादों पर बोल पायेंगे या बेतहाशा बढ़ रही आम जरुरत की चीज़ों की कीमतों पर कुछ बोल पायेंगे ? राहुल के पास भ्रष्टाचार पर बोलने के लिए कुछ भी ऐसा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले में उनकी सरकार ने अबतक का सबसे बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया है. क्या राहुल रुपये की इस बदहाली में देश की अर्थव्यवस्था पर ही कुछ बोल पायेंगे जहाँ रुपया सत्तर को छु चुका है ? या राहुल गाँधी पाकिस्तान और आतंकवाद पर ही कुछ बोलने में सक्षम है जिसमे हमारे सैनिकों के गले काट कर सीमा पार ले जाए जा रहे हैं ?

निश्चित तौर पर आज राहुल गाँधी के सामने यह बड़ा संकट है कि वो आखिर क्या बोलें, और इसी का परिणाम है कि वो देश, सरकार और व्यवस्था से दूर जाकर पूरे मुद्दे को अपने परिवार के इर्द-गिर्द समेटना चाहते हैं. अपने नाकामियों पर पर्दा डालने और जनता को मुद्दे से भटकाने के लिए राहुल गाँधी द्वारा यह नया तरीका अपनाना पड़ रहा है. वो इस पूरे संवेदनात्मक भाषण के माध्यम से एक बार विकास आदि की राजनीति को भटकाकर साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की तरफ ले जाना चाहते हैं. यही वो कांग्रेस का सबसे सुरक्षित किला है जहाँ वो बीजेपी पर भारी पड़ राजनीतिक सांठ-गाँठ कर पाने में कामयाब रह पाती है. राहुल पूरे मामले को कुछ इस तरह प्रस्तुत करना चाहते हैं मानो वो साबित करना चाहते हों कि देश में हिंसा और दंगो के लिए भाजपा ही जिम्मेदार है.

राहुल गाँधी की संवेदनाओं का निहितार्थ यही है कि मुद्दा गाँधी परिवार से शुरू होकर धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता तक ठहर जाए जिसमे विकास और रोजागर आदि के मसलों की जगह और तफ्तीश ना हो. इसमें कोई संशय नहीं कि गाँधी नेहरू परिवार के साथ इस देश के लाखों लोग संवेदनाओं के साथ जुड़े हैं लेकिन राहुल गाँधी को यह बात समझनी चाहिए कि फिलहाल देश ये सब उनसे नहीं सुनना चाहता. देश उनसे उनके पिछले कार्यों का हिसाब और लेखा-जोखा चाहता है. देश उनसे उनके आगामी विजन को जानना चाहता है. अत: राहुल गाँधी को यह बात समझनी चाहिए कि संवेदनाओं की सीढ़ी लगाकर वोटों की मंजिल तलाशने का वो दौर शायद अब नहीं रहा और अब यह देश थोड़ा समझदार हो चुका है जिसे अपने हित भी समझ में आने लगे हैं. अत: उन्हें बजाय कि दादी-मम्मी की बात करने के कुछ व्यवस्था और शासन से जुड़ी बात भी करनी चाहिए.