विवेक रंजन श्रीवास्तव
हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य एक सशक्त माध्यम रहा है जिसने सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मानवीय दुर्बलताओं को बिना कटुता तीखेपन से उघाड़ा है। ये गीत मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दर्पण का काम करते हैं जो समाज के अंतर्विरोधों को संगीत और शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म पड़ोसन (1968) का गीत “एक चतुर नार करके सिंगार, मेरे मन के द्वार ये घुसत जात…” राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित और किशोर कुमार व मेहमूद द्वारा गाया गया यह गीत नारी चतुराई और पुरुष अहं पर करारा व्यंग्य करता है। इसमें दक्षिण भारतीय लहजे का प्रयोग हास्य के साथ-साथ सांस्कृतिक रूढ़ियों को भी चिह्नित करता है ।
फिल्म प्यासा (1957) का गीत “सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए…” शकील बदायूंनी के बोल और मोहम्मद रफी की आवाज में जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था। यह गीत शहरी जीवन की अवसादग्रस्त दिनचर्या और तनावमुक्ति के लिए तेल मालिश (चंपी) पर निर्भरता का मखौल बनाकर हास्य उत्पन्न करता है। जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान एक चंपी में खोजा जा रहा है जो निजी कुंठाओं से भागने का प्रतीक बन जाता है. यह व्यंग्य हास्य मिश्रित है। काला बाज़ार (1989) का गीत “पैसा बोलता है…” कादर खान पर फिल्माया गया जो धन के अमानवीय प्रभुत्व को दर्शाता है। नितिन मुकेश की आवाज में यह गीत पूँजीवादी समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की ओर इशारा करता है, जहाँ पैसा हर रिश्ते और सिद्धांत पर हावी है ।
कॉमेडियन महमूद की अदाकारी ने कुंवारा बाप (1974) के गीत “सज रही गली मेरी माँ चुनरी गोते में…” को यादगार बनाया। यह गीत हिजड़ों के माध्यम से समलैंगिकता और पारंपरिक पितृसत्ता पर प्रहार करता है। बोल “अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात…” लालन-पालन में पुरुष की भूमिका को चुनौती देते हैं, जो उस दौर में एक साहसिक विषय था ।
1950-80 के दशक के स्वर्ण युग में कॉमेडियन्स ने व्यंग्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। जॉनी वॉकर की विशिष्ट अभिव्यक्ति, महमूद का स्लैपस्टिक हास्य और किशोर कुमार का संगीत के साथ व्यंग्य का संयोजन, सभी ने गीतों को सामाजिक टिप्पणी का माध्यम बनाया। फिल्म हाफ टिकट (1962) का गीत “झूम झूम कव्वा भी ढोलक बजाये…” या गुमनाम (1965) का “हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…” जैसे गीतों ने रंगभेद और वर्ग संघर्ष को हल्के अंदाज में प्रस्तुत किया था ।
साहित्य और फिल्मी गीतों के बीच का सामंजस्य भी रोचक रहा है। गीतकारों ने साहित्यिक रचनाओं को फिल्मों में लोकप्रिय बनाया। गोपाल दास ‘नीरज’ ने मेरा नाम जोकर (1970) के गीत “ऐ भाई ज़रा देख के चलो…” को अपनी पुरानी कविता “राजपथ” से अनुकूलित किया था, जो मानवीय अहंकार पर व्यंग्य था । इसी प्रकार, रघुवीर सहाय की कविता “बरसे घन सारी रात…” को फिल्म तरंग (1984) में लिया गया, जो साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बना ।
व्यंग्य के सम्पुट के साथ इस तरह के फिल्मी गीतों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। “पैसा बोलता है…” जैसे गीत आज के भौतिकवादी युग में और भी सटीक लगते हैं। ये गीत सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करने के साथ-साथ श्रोताओं को हँसाते-गुदगुदाते हुए विचार करने को प्रेरित करते हैं, जो हिंदी सिनेमा की सांस्कृतिक धरोहर का अमर हिस्सा हैं ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव