सचिन त्रिपाठी
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के भाषण के जवाब में भारत की ओर से पेटल गहलोत ने जो तीखा उत्तर दिया, वह केवल एक कूटनीतिक पलटवार नहीं था बल्कि एक सावधानीपूर्वक तैयार किया गया सार्वजनिक-कूटनीतिक संदेश और राष्ट्रीय नैरेटिव को अंतरराष्ट्रीय मंच पर दृढ़ता से पेश करने की रणनीति भी था। पेटल गहलोत ने ‘राइट ऑफ रिप्लाई’ का प्रयोग करते हुए पाकिस्तान पर आतंकवाद को पनाह देने और घटनाओं को विकृत तरीके से प्रस्तुत करने का आरोप लगाया और कहा कि विवादों को दो-पक्षीय तरीके से सुलझाया जाना चाहिए. इससे भारत ने पारंपरिक बहस को स्पष्ट, संक्षिप्त और निर्णायक शब्दों में पेश किया।
तकनीकी रूप से देखें तो ‘राइट ऑफ रिप्लाई’ वाकई अदालती प्रक्रिया जैसा नहीं बल्कि सार्वजनिक कूटनीति का एक औज़ार है, सीमित समय में प्रभावी, संदेश-केन्द्रित और दर्शकों के समक्ष तर्क प्रस्तुत करने का माध्यम। गहलोत का अंदाज़ सधे हुए आक्रामकपन का था जिसकी सबसे चर्चित पंक्ति रही कि यदि “टूटा हुआ रनवे और जला हुआ हैंगर विजय हैं” तो पाकिस्तान उसे एन्जॉय कर सकता है. यह व्यंग्यपूर्ण तंज न केवल आक्षेप को खारिज करता है बल्कि विपक्षी दावे की हास्यास्पदता भी उजागर करता है। इस तरह के शब्दजन्य प्रयोग से संदेश सरल, यादगार और मीडिया-फ्रेंडली बन जाता है।
राजनीतिक मायने में गहलोत का उत्तर तीन स्तरों पर प्रभावी था। पहला, यह भारत की उस लम्बे समय से चली आ रही रणनीति को दोहराता है कि हिंसा और आतंक से जुड़े मसलों को लेकर पाकिस्तान को जवाबदेह ठहराया जाए और विश्व समुदाय के समक्ष सबूत-आधारित कथन रखे जाएँ। दूसरा, यह संदेश था कि संवेदनशील द्विपक्षीय मामलों को बहुपक्षीय मंचों पर भड़काने वाले दावों को भारत नकारता है — यानी दोनों पक्षों के लिए “बिलेट्रलिज़्म” पर ज़ोर। तीसरा, यह घरेलू दर्शकों के लिये भी संकेत है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत अपनी रेखा स्पष्ट, आत्मविश्वासी और संगठित तरीके से रखता है। इन बिंदुओं को कई प्रमुख समाचार रिपोर्टों ने उद्धृत किया है।
पेटल गहलोत का व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि भी इस पल को खास बनाती है। वे पेशेवर कूटनीतिज्ञ हैं जिनका करियर विदेश मंत्रालय और भारत के स्थायी मिशन, यूएन में रहा है. उनकी भाषा-कुशलता, शैक्षिक योग्यता और बहु-संस्कृति अनुभव ने संभवतः तेज, तराशा हुआ और प्रमाणिक जवाब देने में मदद की। इस तरह के युवा, बहुभाषी और बहु-आयामी प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क पर देश की छवि को आधुनिक और गतिशील दिखाते हैं।
दिलचस्प रूप से, उसी दिन सोशल मीडिया पर उनका एक पुराना वीडियो भी वायरल हुआ जिसमें वे गिटार बजाती और गाती दिखती हैं। यह वायरल होना एक तरह से युद्ध-कूटनीति और मानविकता के बीच का सेतु दिखाता है. औपचारिक और तीखे कूटनीतिक पलों के पीछे एक सामान्य, सृजनात्मक इंसान का चेहरा भी मौजूद है। मीडिया-सर्कुलेशन ने इस ‘ह्यूमनाइज़िंग’ तत्व को बढ़ाया जिससे गहलोत का वक्तव्य न सिर्फ दलील के रूप में बल्कि व्यक्तित्व-कहानी के रूप में भी प्रसारित हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि संदेश का पहुंच-विकिरण private और public दोनों ही दर्शक समूहों में बढ़ा।
फिर भी, यह साबुत सन्देश निहितार्थों के बिना नहीं है। यूनाइटेड नेशंस जैसी बहुपक्षीय सभाओं में तीखा भाषण अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने का त्वरित तरीका हो सकता है पर व्यवहारिक स्तर पर इससे सीमाओं, सामरिक फैसलों या दोनों देशों के बीच दीर्घकालीन जलवायु में तुरंत बदलाव नहीं आता। इसका वास्तविक महत्व ‘नैरेटिव-वॉर’ में है: किस देश ने किस बात को विश्व स्तर पर अधिक भरोसेमंद तरीके से पेश किया। ऐसे मौके दोनों पक्षों के लिए कूटनीतिक रूप से खतरनाक भी बन सकते हैं—क्योंकि भाषणों के बाद जनता एवं मीडिया का दबाव राजनैतिक हस्तक्षेपों को तेज कर सकता है।
निष्कर्षतः, पेटल गहलोत का यूएन में दिया गया जवाब आधुनिक भारत की कूटनीति की शैली का संकेत है तेज, प्रमाण-आधारित, मीडिया-सेंसिटिव और व्यक्तित्व-आधारित। यह कदम भारत के लिए सॉफ्ट-पावर और हार्ड-स्टेटमेंट का मिश्रण था जहां एक ओर तर्क और आरोप पेश किए गए, वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक छवि निर्माण और युवा कूटनीति का प्रदर्शन भी हुआ पर असली चुनौती यही रहेगी कि क्या इस तरह के बहुपक्षीय मंचों पर गूंजने वाले संदेश द्विपक्षीय रूप से समाधान की दिशा में सकारात्मक रूप से परिवर्तित होंगे या केवल रणनीतिक संदेश-युद्ध ही बने रहेंगे — और यह तय करना दोनों सरकारों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हाथ में है।
सचिन त्रिपाठी